Wednesday 18 November 2020

 बात शुरू होती है आज से लगभग 28 साल पहले की ।जब मेरी शादी हुई थी । शादी के सिलसिले में हम रांची से पटना  छठ पूजा के खरना के दिन पहुंचे थे । उस दिन  पूरी पटना दुल्हन की तरह सजी थी ।  शादी के बाद  जाना कि दादीमाँ(ददिया सास)   छठ करती थी और उस छठ में  हमारा  पूरा परिवार इकट्ठा होता था ।साल भर में परिवार में कोई भी नया सदस्य आता था दादीमाँ उस सदस्य के लिए छठ का एक कोनिया कर देती थी ।फिर चाहे वो कोई नवजात शिशु हो या बहू इस तरह से बढ़ते बढ़ते कोनिया की संख्या 60 तक पहुंच गई थी चूंकि उस समय हम पापाजी (ससुर) को मिले R block के विस्तृत कंपाउंड वाले सरकारी क्वार्टर में रहते थे तो बाद के वर्षों में गंगा घाट के बजाय अपने कंपाउंड में ही पोखर बना कर छठ करने पर भी कोई दिक्कत  महसूस नहीं होती थी ।दादीमाँ के साथ साथ बाद में सासुमां  ने भी छठ शुरू कर दिया और बढ़ती उम्र के कारण दादीमाँ ने छठ का व्रत छोड़ दिया इस बीच एक उल्लेखनीय बात यह हुई  कि पापाजी के रिटायरमेंट के कारण सरकारी मकान खाली कर हम अपने अपार्टमेंट में आ गए । शुरुआती वर्षों में R Block के विशाल क्वार्टर के मुकाबले अपार्टमेंट की छोटी सी जगह में छठ जैसे पर्व का समावेश पवित्रता से होना हमें काफी मुश्किल लगता था लेकिन अपने स्वभाव के अनुसार जल्दी ही सासुमां ने छोटी जगह को अपने लायक बना लिया और पूरे उत्साह के साथ हर साल छठ होने लगा ।छठ हमारे लिए एक पर्व ही नहीं बल्कि सालाना होने वाला फैमिली फंक्शन था ।सच कहा जाए तो उन दिनों हमें न तो दशहरा खास उत्साहित करता था न ही दीवाली ।साल भर हम छठ की राह देखते और उन चार पाँच दिनों में बनाए जाने वाले बिना प्याज लहसुन के व्यजंनों की सूची बनाते ।यहां एक बात उल्लेखनीय है कि इस अवसर पर हर वर्ष सासुमां की ओर से मुझे और मेरी ननद को एक जैसी साड़ी मिलती ।याद आता है  सासुमां से  मिलने वाली साड़ी के कारण  किसी एक साल बच्चों ने मिलकर अपनी कपड़ों के लिए काफी हंगामा किया था ।  पहले अर्ग की रात परिवार के बच्चे  बड़ो के द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था जिस तरह हम छठ में पहनने वाली साड़ियों की तैयारी करते ठीक उसी तरह  बच्चों के द्वारा गीत और नाच की तैयारी होती वैसे इसे बच्चों तक सीमित करना गलत होगा क्योंकि इस शाम के कार्यक्रम में कई बार हमारे दादाजी से लेकर बुआजी तक  भी शामिल होती थी मिला जुला  कर वो पूरी रात जागते हुए ही  बीतती थी ।बाद में धीरे धीरे बच्चे पढ़ाई के क्रम में बाहर  गए  और पीढ़ियों के हस्तांतरण के साथ हम अपार्टमेंट में आ गए ।बचपन से छठ के व्रत के प्रति एक भय था कि इस व्रत में कोई गलती नहीं होनी चाहिए लेकिन सासुमां के छठ के साथ हम इस पर्व की वर्जनाओं के इतने आदी हो गए कि मेरी छोटी बेटी जो घर की सबसे छोटी सदस्या है वो भी इसके एक एक नियमों को जानने लगी । इस व्रत के बारे में सासुमाँ का ये कहना बिल्कुल सही था कि इस  व्रत करना किसी अकेले के वश की बात नहीं इसमें पूरे परिवार का सहयोग होता है चूंकि ये व्रत पटना के प्राय हर घर में होता है तो आप इस बात को मान कर चले कि इस चार दिन आपकी सहायता के लिए  बाई से लेकर स्वीपर ,दूधवाला ,धोबी कोई भी   मौजूद नहीं होगा ।पूजा के बहुत से कामों के साथ उन सहायकों के हिस्से का काम भी खुद आप को ही करना होगा। पर लोगों का व्रत के प्रति श्रद्धा कहें कि हर एक  सदस्य अपने काम को पूरी खुशी और श्रद्धा के साथ करता है । धीरे धीरे बच्चों के बाहर जाने के साथ साथ सासुमां का स्वास्थ्य ने  उन्हें व्रत छोड़ने के लिए लाचार कर दिया और तीन साल पहले उन्होंने छठ परमेश्वरी को प्रणाम कर लिया ।आज खरना है अगल बगल के घरों से छठ के गानों की आवाज आ रही है अचानक ऐसा लगता है कि अरे 1बज गए अभी तक अमुक काम बाकी है ,शाम की पूजा के लिए देर हो रही  है....

Tuesday 17 November 2020

लगभग दो साल पूर्व पापा के देहांत के बाद माँ और तीन महीने पहले सासुमां के जाने के बाद पापाजी जिंदगी के सफर पर अकेले चलने को बच गए । मेरे ससुराल और मायके में दोनों ही  में एक बात समान थीं पापा और पापाजी दोनों ही  घर के बड़े थे अर्थात अपने माता पिता के साथ साथ छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी इनके ऊपर थी जिसे माँ और सासुमां की  मदद से सुख दुख सहन करते हुए पूरी तरह निभाया ।  जीवन के सफर में अचानक साथी का साथ छूट जाने की वेदना को मैं  पहले एक बेटी के रूप में और अब एक बहु के रूप में महसूस कर रही हूं ।  

Friday 30 October 2020

आज मैंने पेपर में श्री रघुरामन का एक पोस्ट पढ़ा । किसी नए बिज़नेस को शुरू करने की सलाह देता हुआ ये पोस्ट बाएं हाथ से काम करनेवालों के बारे में था ।  बाएं हाथ से लिखना या काम करने में कोई बुराई नहीं होती पर लिखने या काम करते हुए सामने वाला एक पल के लिए आप पर एक नज़र डाल ही देता है ।आज इस पोस्ट को पढ़कर मैं अपने बचपन में लौट गई जब मेरा बाएं हाथ से लिखना या काम करना सबके लिए  कौतुक की बात हुआ करती थी ।घर में भले ही इस बात के लिए कोई नहीं टोकता पर स्कूल में कम से कम प्राइमरी कक्षा तक तो मेरी हर दूसरी सहपाठिनी मुझसे बस एक बार दाहिने हाथ से लिखने की जिद करती और मेरी असमर्थता पर आश्चर्य करती ।बाद में जब मैं उच्च क्लास में पहुंच गई तो लड़कियों के ऐसे करने पर अमिताभ बच्चन ,सचिन तेंदुलकर 

Thursday 15 October 2020

पूजा संबंधी एकटा आउर जिज्ञासा ,पूजा कत्ती काल करि ? किछ लोक क पूजा म मोन लगैत छै लेकिन हमरा बुझने एकर निर्धारण वयस ,समय आ स्थिति पर छै ।मिथिला म बियाह संगे गौरी क पूजा होइ छै ओना कत्ते गोटा  बियाह स पहिने स इ पूजा करै छै लेकिन बियाह क बाद एकर अनिवार्यता होए छै अर्थात कोनो कनिया बियाह क बाद नहा क पहिने गौरी क पूजा करू तखन किछ खाओ ओना परिस्थितिवश कोई आन ओइ गौरीक पूजा करथिन अर्थात ओ गौरी अपूज्य न रहती ।अई म हम अपन अनुभव share करै छी ज बियाह क तुरंत बाद ,पहिने स पूजा करै क अभ्यास नै रहे तै जोर स भूख लागि जाए आ चाह क अभ्यास नै रहे बेसी काल सासु माँ कहैत जे अहा खा लिअ हम अहा क गौरी क पूजा कअ देब ।परिवार पैघ रहे त कएक बेर हुनका लोक टोकि डाइत रहेन कि अहा किया हुनकर पूजा करै  छियैन त ओ कहथिन ज अखन बच्चा छैथ आ बच्चा बुच्ची कम्मे पूजा करे छै अवस्था हेतैन त अपने करअ लगती ।ओना हमर अलावा अगर कोनो कम वयस क लोक क बेसी पूजा करैत देखथिन त कहथिन जे अखन अहा क वयस एतेक पूजा करै क नै अछि परिवार क देखब पहिल पूजा अछि । जहां तकअपन नैहर स कोनो पूजा सीखै क बात त अइ मामला म हमर माँ पापा क बहुत पुरान विचार अर्थात  सासुर क कोनो बात , विध या पूजा पाठ म कोनो हस्तक्षेप नै ।माँ क कहब जे साउस कहे छैथ से करूं । 2011 म हम सब अपन साउस ससुर आ माँ पापा क लअ क पुरी गेल रही ।ओइ ग्रुप म सबसे बेसी प्रसन्न पापा रहैत लेकिन जखन हम सब पुरी क मंदिर पहुँचलौ त मूर्ति क समक्ष पापा गोर लागि क तुरंत कात म ठार भअ गेलत माँ हुनका कहलकैंन जे एतेक जल्दी गोर लागि लेलौ ठीक स गोर लगितोउ नै ,त सहज हुनकर जवाब रहेन जे हमर सबटा बात भगवान के बुझल छैन तै बरि काल गोर लगै क कोन काज ।पापा क कहियो कतौ बरि काल गोर लगैत नै देखियेन । पुनः अपन सासु माँ क बात पर पहुंचे छी जे हुनका रहैत कहियो इ बुझबे नै केलौ जे आब अवस्था भेल आ पूजा करबाक चाही अर्थात सब दिन बच्चे रहि गेलौ ।कहे छै जे माय बाप लेल लोक सब दिन बच्चे रहैय त दु बरख पहिने पापा क गेला स आ दू मास पहिने सासु माँ क गेला स अचानक लागि रहल अछि जे आब पैघ भअ गेलौ आ माथ पर स धीरे धीरे रक्षा कवच हटल जा रहल अछि ।

Saturday 10 October 2020

लगभग दो तीन माह पहले मैंने अपने बीच की कुछ ऐसी हस्तियों की चर्चा की थी जो लीक से थोड़े अलग हैं अथवा उनके द्वारा किए गए कार्यों के कारण मैं उनकी इज़्ज़त करती हूं । इसी क्रम में आपसे अपनी एक सहेली के विषय में बताना चाहूंगी ।वैसे अपने स्वभाव और उम्र दोनों के हिसाब से अब मेरे लिए किसी से नई मित्रता करने की कोई गुंजाइश नहीं होती लेकिन sister shivani के अनुसार बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनसे हमेशा भेंट या बात चीत नहीं होने पर भी  उनसे एक अलग ही लगाव होता है । मेरी इस मित्रता की सूत्रधार  हम दोनों के घर काम करने वाली महरी बनी ।बहुधा वो उनके बारे में मुझसे एकाध ऐसी बातें कहती जिससे मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाती ।मार्च के अंतिम दिनों से कोरोना ने अपनी विभीषिका दिखानी शुरू कर दी । उसी दौरान मैंने पेपर  में   पुणे में स्थित एक ऐसे NGO  के बारे में पढ़ा जो कोरोना से पीड़ित परिवारों के लिए खाना और जरूरत की चीजें मुहैया करती है । दुर्भाग्य से हमने अपने शहर में इस प्रकार की किसी भी संस्था के बारे में नहीं सुना जबकि यहां ऐसे बुजुर्गों की कमी नहीं जो बिल्कुल अकेले नौकरों के भरोसे रहते हैं  और इस रोग ने कुछ ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी जिससे बुजुर्ग क्या नौजवान भी हाशिये पर आ गए । इस बीमारी की खास बात यह थी कि इसने दोस्त ,संबंधी के साथ साथ घरेलू सहायकों को भी हमसे दूर कर दिया । इस प्रकार की स्थिति में आप कल्पना करें किसी ऐसे परिवार की जहां बिस्तर पर पड़े बुजुर्ग हो उनके बच्चे कोरोना ग्रस्त हो गए हो और घर में एक भी घरेलू सहायक न हो या कोई ऐसा परिवार जिसके सभी सदस्य कोरोना से पीड़ित हो ।उन दिनों रोग ने कुछ इस तरह आतंक मचा रखा था कि लोग उनके घरों को  दूर से भी देखकर डर जाते थे। ऐसी ही स्थिति से गुजरने वाले परिवार को सुबह शाम खाना पहुंचाने का बीड़ा मेरी इस सखी ने  उठाया जबकि  पर थी जबकि खुद उसके पति डायबिटिक है । ये बात मेरे हिसाब से share करने की इसलिए है क्योंकि किसी एक के शुरुआत पर ही उसका अनुकरण दूसरे भी करते हैं जैसा वहां की स्थिति में हुआ ।इसके शुरुआत करने के बाद  दूसरों ने भी कदम उठाया और ये काम जरूरी प्रीकॉशन के साथ किया गया तो भगवान की दया मदद करने वाले और पीड़ित परिवार दोनों ही ठीक रहे । मेरी नजर में मेरी इस सखी की इज़्ज़त और बढ़ गई जिसकी दिनचर्या में अब तक निर्धन धोबी के बेटे को पढ़ाने और जरूरतमंदो की सेवा तक थी ।आज कोरोना के कारण समाचारों में करोड़ों की संख्या में लोगों की नौकरी छूटने की खबर देखती हूँ ।इसे मेरी आत्मश्लाघा नहीं समझी जाए क्योंकि जब अपने लघु व्यवसायी पति के पिछले जीवन को देखती हूँ तो न सिर्फ अपने व्यवसाय से वर्तमान में उन्होंने चार पाँच लोगों को रोजगार देने का काम किया है बल्कि सात साल पहले अपने दो भांजों को भी दरभंगा में अपने निर्देशन में व्यापार शुरू करवाया ।मामा की दिखाई गई राह और बच्चों की मेहनत रंग लाई जिसका नतीजा एक सफल व्यापार ने लिया । कहते हैं चाहे दुनिया कितनी भी मतलबी क्यों न हो जाए आज भी हमारे बीच ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो गलत  सरकारी सिस्टम और समाज की भत्सर्ना की परवाह न करते हुए दूसरों की मदद करते हुए कस्तूरी मृग की भांति अपनी खुशबू हमारे इर्द गिर्द फैलाते जाते हैं।

Friday 25 September 2020

कुछ साल पहले मैंने एक छोटी सी कहानी पढ़ी थी ।ये कहानी एक महंत और उनके शिष्यों के विषय में है । जिसमें गुरु जी शिष्यों को तीन खोपड़ियों की मदद से जीवन का एक पाठ पढ़ाते हैं ।पहली खोपड़ी  के कान में गुरुजी एक पतली लकड़ी को डालते हैं जो कि उसके दूसरे कान से निकल जाता हैं उसकी तुलना गुरु जी ऐसे मनुष्य से करते हैं जो किसी भी बात को सुनकर तुरंत भूल जाता हैं उनके अनुसार इस तरह के लोग बेकार हैं ।दूसरी खोपड़ी के कान में गुरुदेव लकड़ी डालते हैं जो उसके मुंह से निकल जाता हैं उनके अनुसार इस प्रकार के लोग किसी के कहे गए बात को सुनकर तुरंत उसे दूसरों पर प्रकट कर देते हैं  ,गुरू जी के अनुसार ऐसे लोग बेहद खतरनाक होते हैं तीसरी खोपड़ी में लकड़ी डालने पर वो उसके गर्दन से निकल जाता है अर्थात वैसे मनुष्य किसी भी बात को सुनकर अपने पेट मे रख लेते हैं जो उन गुरुदेव के अनुसार लाख टके का आदमी होता है ।
आज मैं अपने इस पोस्ट में दूसरे तरह के खतरनाक लोगों के विषय में कुछ कहना चाहती हूं ।ये बात बहुत ही साधारण है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम उतने ही असाधारण होते हैं ।कहते हैं महाभारत में  युधिष्ठिर ने अपनी माता कुंती के बात छिपाए जाने के कारण समूची नारी जाति को कोई भी बात को  न छिपा सकने का श्राप दिया था जिसका परिणाम हम अक्सर अपने मित्रों और संबंधियों में पाते हैं । यूं तो इसे

Wednesday 26 August 2020

आज सासुमां को गए 32 दिन हो गए ।27 साल और कुछ महीने मैं उनके साथ रही ।पहले पति की  नौकरी और बाद में व्यवसाय के कारण ,अगर सासुमां और अपने  घूमने फिरने और कुछेक महीनों के कटिहार प्रवास को भी मिला दिया जाए तो भी हम अधिक से अधिक कुल मिला कर एकाध साल ही अलग रहे होंगे।मेरे हिसाब से जब इतने दिन लगातार सास बहू एक  साथ रहती हैं तो वो संबंध सास बहू का न होकर वो दो औरतों के बीच का संबंध बन जाता है।  उनमें ऐसी बहुत सी बातें थी जिन्होंने मुझे बहुत प्रभावित किया और आज मैं  अपने बच्चों के साथ साथ अपने सभी मित्रों को जीवन में उन मूलमंत्रों को अपनाने की सलाह दूँगी ।क्षमाशीलता या घर परिवार में होने वाली छोटी या बड़ी बातों को नजरअंदाज करने की आदत ने उन्हें दूसरों से बिल्कुल अलग कर दिया था ।शायद  अपने इसी गुण के कारण अपने विवाह के प्रारंभ से ही  सास ससुर के साथ साथ देवर ननद के परिवारों के साथ रहने में वो  सामंजस्य बना पाती थी । अपने विवाह के शुरू के वर्षों में मैं इस बात से आश्चर्य में पड़ जाती थी कि घर में होने वाली किसी भी बहस का अंत एक चाय के प्याले के साथ हो जाता था ।रात की बात रात में ही खत्म करना और चाहे कोई कितना भी गुस्से में क्यों न हो हमारे घर में किसी को अपना गुस्सा खाने पर निकाल कर भूखे रहने की इजाज़त नहीं थी और न ही उस  विवादित बात को  वो फिर दुहराती थीं । चाय पीना उन्हें अत्यंत प्रिय था ।अक्सर मुझे हँसकर कहा करती थीं कि मेरे श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन से पहले  चाय पिला देना ,मधुशाला की तर्ज़ पर चाय वाली इच्छा को  मैंने श्राद्ध में पालन करने की कोशिश की। खाने और खिलाने की बेहद शौकीन सासुमां एक बेहतरीन कुक थी छोटी उम्र में शादी होने के कारण आज भी मेरी रसोई पर माँ से अधिक सास की ही स्पष्ट छाप प्रतीत होती है। इन बातों के साथ जीवन के प्रति सकारात्मक सोच से मैं बहुत प्रभावित थी ।जितना है उसी में बेहद खुश और संतुष्ट हो कर जीना , घर में होने वाले किसी भी पर्व त्योहार के लिए  बेहद उत्साहित रहना घर में अनायास ही स्वस्थ वातावरण को जन्म देता है।किसी भी त्योहार के लगभग एक सफ्ताह पहले से उनकी बातों में उसी पर्व या व्रत का जिक्र रहता था ।आज महिलाओं को एक मेहमान एक शाम के लिए परेशान होते देखती हूं जबकि मायके ससुराल  रिश्ते के कितने ही लोग अपने काम के सिलसिले में पटना आते और  कई बार कई दिनों तक बने रहते लेकिन इसके लिए मैंने कभी माँ के चेहरे पर शिकन आते हुए नहीं देखा वो मेरे भाई बहन के लिए भी उतनी ही ममतामयी थी जितनी अपने किसी खास के लिए ।माँ की ऐसी बात का मैं जिक्र करना चाहूंगी जिसे कितने ही आधुनिक परिवारों में सीखने की जरूरत है ।मेरे पति अकेले भाई है और मेरी दो बेटियां हैं ।आज भी मैंने कई आधुनिक और पढ़ी लिखी महिलाओं को पोते के लिए बिसूरते देखा है लेकिन आज मैं गर्व से कह सकती हूं कि माँ के मन में कभी भी मैंने इस बात का मलाल नहीं देखा मेरे बच्चों के लिए वो मुझसे अधिक फिक्रमंद रहा करती थीं ।शायद इसी कारण नौकरी और पढ़ाई के बाद भी कोरोना हमारे लिए एक हिसाब से फायदेमंद साबित हुआ कि दोनों ही बच्चे दो महीने से दादी के पास थे । पिछले लगभग चार पाँच साल से वे अपनी पैर की तकलीफ से बहुत व्यथित थी ।भगवान पर अगाध आस्था रखने वाली माँ से शायद ही कोई व्रत अछूता था । जब किसी के बारे में हम कुछ लिखते हैं तो इस बात का संदेह बना ही रहता है कि कोई ऐसी बात मेरी लेखनी से अछूता न रह जाए लेकिन मेरी इस माँ के हृदय में क्षमा का विशाल भंडार था तो निश्चय ही मेरी इस उच्श्रृंखलता को वो दूर से भी माफ करेंगी।

Wednesday 19 August 2020

29 july शाम को 6 बजे सासु माँ की इहलीला खत्म हो गई ।17 की रात को उन्हें पैरालिसिस अटैक हुआ था ।  शादी के लगभग 27 साल तक मैं उनके साथ रही ।पहले  पति की उसी शहर में नौकरी और बाद में व्यवसाय के कारण  अगर कुछ दिनों के कटिहार प्रवास  अथवा घूमने आदि को  जोड़ दिया जाए तो कुल मिला कर बीच के एकाध साल ही शायद हम अलग रहे होंगे ।मेरे हिसाब से जब इतने दिन लगातार सास बहू एक  साथ रहती हैं तो वो संबंध सास बहू का न होकर वो दो औरतों के बीच का संबंध हो जाता है । मनुष्य होने के नाते नहीं कह सकती कि उनमें कोई खामी नहीं थी या मैं ही गुणों की खान थी पर शायद किसी नए संबंध के प्रति उनकी प्रारंभिक सूझ बूझ थीं कि इतने वर्ष साथ रहने के बाद हम दोनों में बहस न के बराबर हुई । 
 वे याद आती है मेरी शादी से 5 साल पहले हुई दीदी की शादी के समय की बात ।दीदी की सास का देहांत जीजाजी के विद्यार्थी जीवन में ही हो गया था तो जब दीदी की शादी की बात चली तो पहले पहल माँ ने कहा कि यहां कैसे शादी होगी लड़के की तो माँ ही नहीं है ! बाद में वर की योग्यता को ध्यान में रखते हुए दीदी की शादी वही हुई लेकिन ये बात बिल्कुल सच है कि समय समय पर उनकी कमी सभी को खली। सास के रूप में पहली छवि मैंने अपनी दादी की देखी जो अत्यंत निरीह और भोली थी । बाद में मेरी शादी इस परिवार में हुई जो छोटा होते हुए भी संयुक्त होने के कारण काफी वृहत था ।आज मन फिर से वर्षों पहले की याद दिलाता है जब मैंने ससुराल में पहला कदम रखा था । ये कहना शायद मेरी अतिश्योक्ति होगी कि किसी भी नवब्याहता के मन में सास के लिए अत्यंत

Friday 17 July 2020

आज पापा की दूसरी बरखी है ।कोरोना ने कुछ ऐसा कहर ढाया कि घर पर किसी भी ब्राह्मण को बुला कर खिलाने की बात सोची तक नहीं जा सकती है ।हम दोनों बहनों के लिए तो हमारे मिथिला के अनुसार  दामाद ही 11 के बराबर की तर्ज पर कोई दिक्कत नहीं पर कोरोना के हॉटस्पॉट बना मुंबई में रहने वाले भाई के लिए किसी बाहरी को बुलाना असंभव है तो मन को शांत करने के लिए उसने दान धर्म का सहारा लिया। वैसे भी हम  मनुष्यों को ही इस तरह की बातें परेशान करती हैं बाकी देवता या पितर हमारी सभी समस्याओं को समझते हैं । किसी भी अनुष्ठान को अपनी शारीरिक और आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार ही  करना पापा के सिद्धांत में था फिर चाहे वो धार्मिक हो या श्राद्ध कर्म ।याद आता है तीन चार साल पहले जबकि भयंकर गर्मी में रांची के घर में नए बोरिंग के साथ सुम्मेरसैबले पंप लगाने की जरूरत पड़ी ।पापा जब तक अचानक आए हुए बड़े खर्च का हिसाब लगाते भइया ने नए बोरिंग के साथ नया मोटर लगवा दिया बात बहुत छोटी सी है पर पापा हमेशा हमसे कहा करते थे कि कहते हैं कि बेटा बाप को मरने के बाद पानी देकर तृप्त करता है  लेकिन आलोक  ने मुझे मेरी जिंदगी में ही पर्याप्त पानी दे देकर तृप्त कर दिया। पापा अपनी जिंदगी के अंतिम  एक साल में पटना के हृदय रोग विशेषज्ञ के इलाज में थे मुझे  बहुत से लोगों ने कहा कि तुमने पापा को डॉक्टर से दिखा कर आलोक का काम कर दिया ।आज मैं उन सभी लोग जिन्हें बेटे और बेटी दोनों हैं ,उनसे  एक प्रश्न पूछती हूँ कि माता पिता की जिम्मेदारी क्या सिर्फ बेटे की हैं अथवा अगर बेटी अपने माता पिता की कोई सेवा करें  तो क्या वो अपने भाई के ऊपर कोई उपकार कर रही है ?

Saturday 11 July 2020

मार्च के अंतिम सफ्ताह से हमारे देश में लोकडौन की अधिकारिक घोषणा की गई । नतीजतन सभी काम बंद हो गए और एक तरह से छुट्टियों की स्थिति आ गई । अब जबकि चारों ओर से सिर्फ नकारात्मक खबर ही आ रही थी तो इसे कुछ सकारात्मक रूप देते हुए अपने आप से मैंने लोकडौन के समय कुछ ऐसे कामों को करने का वादा किया जो मैं रोज़ की दिनचर्या में नहीं कर पाती थी ।सबसे पहले नज़र उन किताबों की ओर गई ,अकसर मैं पुस्तक मेले या अन्य किताब की दुकान पर किताब खरीदते वक़्त एक साथ चार पाँच खरीद लेती हूं और बाद में पढ़ते समय एकाध को भूल जाती हूँ ,मैंने इस अवधि में उन किताबों को खोज कर पढ़ने की सोची ।उसके बाद घर के कई ऐसे काम जो मैं भाग दौड़ में नहीं कर पाती हूँ उन्हें पति और बच्चों की मदद से करना मेरे दूसरे नम्बर पर था ।मेरी कई दोस्त या रिश्तेदार जिनके कामकाजी होने के कारण प्राय महीनों बात नहीं हो पाती है उन्हें फोन कर फिर से यादें ताज़ी करने की सोची पर आज की तारीख में एक नहीं दो दो लोकडौन खत्म हो गए बीच में दिनचर्या सामान्य होने के बाद फिर से  लोकडौन लगा दिया गया और मेरी स्पेशल लिस्ट ज्यों की त्यों रही ,हालांकि मैंने उनमें से कई किताबों को पढ़ा पर सबों को नहीं । उनमें से कई काम हुए पर सब के सब नहीं मेरे हिसाब से इन सबका का कारण समय की कमी या काम की अधिकता नहीं बल्कि मेरी टालने की प्रवृत्ति है । आप में से कई लोगों को शायद मेरे जैसी एकाध प्रवृत्ति हो और अक्सर काम को कल पर टालते हो ।जब तक ये आदत घरेलू कामों तक रहता है तब तक हमें एक झुंझलाहट भर होती है लेकिन जब ये आदत ऑफिस या कार्यालय के जरूरी काम पर पहुंच जाता है तो समस्या गंभीर हो जाती है । हम किसी भी काम के अंतिम तारीख का इंतजार क्यों करे चाहे वो बिजली बिल या insurance की प्रीमियम भरने की तारीख  हो या बैंक के एकाउंट सबंधित कार्य । कभी कभी इन कागजों संबंधी छोटी सी लापरवाही हमें बड़ा नुकसान दे देती है और हम इस आदत के कारण परेशानी में पड़ जाते हैं और एक के बदले दो के चक्कर में पड़ जाते हैं फिर चाहे वो नकद के रूप में हो या मेहनत के रूप में हो । कोई भी बड़ी समस्या तभी बड़ी हो जाती है जब उसे छोटे रहने तक ध्यान नहीं दिया जाता है । तो " काल करे सो आज कर आज करे सो अब ,पल में प्रलय आएगा बहुरि करेगा कब "को बदल कर "आज करे सो कल कर ,कल करें सो परसों इतनी क्या है जल्दी पड़ी अभी पड़े है बरसों " न करें उसे उसके मूल रूप में ही रहने दें ।

Wednesday 8 July 2020

19जुलाई को पापा की दूसरी बरखी है इस कोरोना के कहर को देखते हुए घर में किसी भी बाहरी व्यक्ति को बुलाने की बात सोचना भी मना है ।हम दोनों बहन तो निश्चिंत है क्योंकि हमारे घर में ही जीमने के लिए ब्राह्मण मौजूद हैं ।समस्या तो भाई के लिए है क्योंकि अब वहां पूर्ण रूप से अब भी lockddown है और स्थिति बेहद खराब है खैर उसके लिए कोई न कोई रास्ता निकल ही जाएगा क्योंकि परिस्थिति हम आप जैसे लोग नहीं समझते हैं देवता और पितर हर परेशानी में हमारे साथ है ऐसा मेरा विश्वास है ।पापा की बरखी के साथ मुझे पापा के एक साल पहले बीमार होने की बात याद आई ।पापा की तबीयत ठीक नहीं ।ये सुन के मैं उन्हें देखने रांची गई ।संजोग की बात थी उसी समय मुंबई में जीजाजी की एक कठिन सर्जरी होनी थी इसलिए दोनों भाई बहन का वहां से आना मुश्किल था ।मैंने जब पापा की स्थिति को देखते मैं अपने साथ पटना ले आई । कुशल डॉक्टर के चिकित्सा में पापा महीने भर में ही ठीक हो गए लेकिन साथ ही डॉक्टर ने जल्दी ही इनके महाप्रस्थान की भविष्यवाणी भी कर दी जिंदगी देना किसी के हाथ में नहीं पर उसके बाद की एक साल की जिंदगी कुछ हिदायतों के साथ उनके लिए आसान हो गई । अब यहां बात आती है लोगों की ।हर दूसरा व्यक्ति मुझसे ये कह रहा था कि तुमने आलोक (मेरा भाई ) का काम कर दिया । अरे ऐसा क्यों क्या माता पिता के प्रति मेरा कोई

Sunday 5 July 2020

इन बड़ी हस्तियों के साथ ही हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने अपने जरिए कुछ अधिक तो नहीं पर दस पंद्रह लोगों को रोजगार दिया है यहां मैं जिक्र करना चाहूंगी कि अपने पति श्री अशोक झा का । लगभग17 साल kitply और Greenply जैसी प्रतिष्टित कंपनियों में काम करने के बाद इन्होंने छोटी सी राशि सेअपना काम शुरू किया । कंपनियों में काम करने के दरम्यान इन्होंने कई नए लोगों को सफल व्यापार करवाया था शायद इसी कारण उन्हें इस तरह के काम की हिम्मत मिली । पिछले 10वर्षों से असम से ply के ट्रक मंगा कर पूरे बिहार में थोक विक्रेता के रूप में काम कर रहे हैं ।समय के साथ इसमें sunmica ,fevicol जुड़ते गए आदि के ।इसी दिशा में धीरे धीरे आगे कदम बढ़ाते हुए शौकिया तौर पर लोगों के इंटीरियर का काम तो विगत कई वर्षों से कर ही रहे थे उसे पिछले एक साल पहले दुकान का रूप दिया ।इनके द्वारा रोज़गार पाने वालों में ट्रांसपोर्ट वाले ,ठेला वाले ,बढ़ई औरअपने दुकान में काम करने वाले लोग हैं ।हालांकि हमारे ग्राहकों की संख्या चुनिंदा ही है शायद इसका कारण इनका quality product की वजह से पड़ने वाला अधिक मूल्य है लेकिन हमारे यहां ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जिन्होंने ने 5 से 7 साल पहले भी कभी चीज़ खरीदी हो ।

Friday 3 July 2020

श्रीमती वीना उपाध्याय ,यही नाम है जो खुद भी उच्च शिक्षित और एक IPS अधिकारी की पत्नी होते हुए छोटे तबके की महिलाओं को अपने पैरों पर खड़ा करने का सफल संचालन कर  रही हैं ।श्रीमती उपाध्याय से मैं पिछले 8-10 सालों मेरी बेटी की अभिन्न सखी की माँ के रूप में परिचित थी जो ग्रामीण इलाकों की महिलाओं के लिए काम करती थीं । इस लोकडौन के बाद जब मेरी बेटी मुंबई से आई तब मैंने वीनाजी के कार्यों की गंभीरता को महसूस किया ।आज बिहार की कला के नाम पर हमारे जेहेन में जो नाम आता है वो है  मधुबनी पेंटिंग और भागलपुर के सिल्क उद्योग ।लेकिन वीनाजी का कहना है मेरे हिसाब से बिहार एक ऐसा राज्य है जिसके हर जिले में हस्तकला छुपी हुई है फिर चाहे वो पटना हो, बिहारशरीफ हो ,नालंदा हो ,बेगूसराय ही हो । वर्तमान में वीनाजी  एक संस्था से जुड़ी है लेकिन उनका काम सिर्फ अन्य NGO की तरह ऑफिस तक ही सीमित नहीं है । इन बुनकर और अन्य हस्तकला के कारीगरों का पेट तो पूरे साल में एक दो मेले या प्रदर्शनी की आमदनी से तो नहीं भरता इसके अलावा जो बिक्री होती है उसका अधिकांश भाग बिचैलियों के हाथों में चला जाता है रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी परिणामस्वरूप ये लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए ऐसी स्थिति में वीनाजी जैसे अन्य लोगों ने इन कारीगरों को ऑनलाइन ट्रेंड करने की मुहिम उठाई इस काम में उन्हें सही ढंग से फोटोशूट करने से लेकर उचित मूल्य रखने के साथ साथ कुछ इस से ट्रेंड किया जा रहा है जिससे कोरोना संकट के बाद भी उनका भविष्य ठीक रहे ।

Friday 26 June 2020

किसी भी आर्थिक और सामाजिक संकट के समय मध्यम वर्गीय लोगों का तबका ऐसा होता है कि परेशान और  प्रभावित होते हुए भी सबकी नजरों से परे ही रहता है । विगत कुछ महीनों में प्रवासी मजदूरों के बेरोजगार होने की खबर प्राय सभी new channels और समाचार पत्रों में आई और कई जगहों पर संस्थाओं और नामचीन हस्तियों ने इनकी यथा संभव मदद करने की भी कोशिश की ।लेकिन इन सबके बीच ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो  सालों से अच्छी नौकरी करते हुए महानगरों में अच्छा जीवन व्यतीत कर रहे थे ऐसे में अचानक से नौकरी चली गई और अचानक वे बेचारे की गणना में आ गए। उम्र के इस चौराहे पर सबसे कठिन तथ्य यह है कि इस बीच अच्छी सैलरी के भरोसे  कई लोगों ने EMI या कर्ज लेकर गाड़ी से लेकर मकान आदि ले लिया  है  और सामने बच्चों की पढ़ाई ,उनकी शादी ,बूढ़े माता पिता और अपना बुढ़ापा मुँह ताक रहा है। ये तबका ऐसा है कि ये सालों से ऑफिस में काम करने के इस तरह आदी हो गया हैं कि जीवकोपार्जन के लिए किसी अन्य काम को करने में असमर्थ होता हैं।  खैर इस तरह की परिस्थिति का अंदाजा भी शायद ही किसी ने लगाया होगा ।जीवन एक चक्र है वही  कुछ साल पहले  साल पीछे जाकर हमारे आस पास के कुछ ऐसे लोगों को देखे जिन्होंने  स्वेच्छा से  महानगरों की जिंदगी को नकारते हुए कुछ अलग तरह की जिंदगी को चुना और  उस समय सामाजिक अवहेलना को भी झेला ।आज मेरा ये पोस्ट कुछ ऐसे लोगों के लिए है जिन्होंने शायद  कभी अपने सपनों को पूरा करने के कारण या कभी पारिवारिक समस्याओं के कारण अपने ही गाँव या शहर में रोज़गार करने की ठानी औऱ आज न सिर्फ अपना बल्कि अपने साथ साथ बहुत से लोगों को रोजगार देने का भी काम कर रहे हैं । श्री गिरीन्द्र नाथ झा हमारे बीच की एक ऐसी ही हस्ती है जिन्होंने दिल्ली में उच्च शिक्षा पाने के बावजूद 12 साल महानगर में बिताने के बाद गांव के जीवन को चुना ।उनके बारे में कुछ भी कहना सूरज को दिया दिखाने के बराबर है ।आज अपने इलाके में  नशाबंदी ,शिक्षा और रोजगार के नए अवसर देने के लिए इनके द्वारा किया गया प्रयास काबिलेतारीफ है । महानगर में बसा एक पत्रकार जो किसान बन कर वापस आता है उसका शुरुआती सफर निश्चय ही काफी कठिन रहा होगा ।गांवों से पलायन रोकने के लिए इन्होंने भूमिहीनों को अपनी जमीन की साझेदारी में खेती करने की पेशकश की । अपने प्रारंभिक दिनों में मजदूरों के बच्चों को पढ़ाई और नई टेक्नोलॉजी के द्वारा  नशे के दुष्प्रभाव को समझाया और उन्हें  अपने घर को नशामुक्त करने की कोशिश करने की बात कही । गिरीन्द्र जी की पहल पर उन बच्चों का अपने पिता को नशे की गिरफ्त से निकलना बहुत बड़ी चुनौती थी ।आज हम या हमारे बच्चे घूमने को विदेश जाते हैं ,हम गाँव देखने को केरल के गाँव जाते हैं ऐसा क्यों? क्या हमारी खुद की धरा इतनी गई बीती है कि छुट्टियों के लिए भी बाहर का रुख अख्तियार करें ।ऐसे में हम जहां अपनी जगह से कट रहे हैं वही राजस्व भी बाहर जा रहा है ।इसी धारणा को बदलने के लिए गिरीन्द्र जी ने चनका रेसिडेंसी की स्थापना की । एक ऐसा गाँव जो हरियाली से भरा हो जहां आपने जिस प्रकार के ग्राम्य जीवन को जीना चाहा वो मिले शहरों की कोलाहल से दूर हो गाँवों का भोजन मिले और उसपर विशेष बात ये है कि टेक्नोलॉजी से जुड़ा हुआ हो ।आज गिरीन्द्र जी की इसी कोशिश के कारण विदेशों तक से लोग पूर्णिया जैसे छोटे शहर की आकृष्ट हो रहे उन्हें देखना है  रेणुजी की धरती को  ।जिससे  सहज रूप से पर्यटन को बढ़ावा मिलता है और क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में वृद्धि होती है । अगर हमारे बीच इस प्रकार के लोग रहे तो गाँवों से शहरों का पलायन रुक जाएगा  और  महानगरों पर लोगों की अनावश्यक भीड़ भी कम होगी । मैं किसी को बाहर की नौकरी को छोड़ने या अपने भविष्य को दांव पर लगाने की सलाह हरगिज नहीं देती हूँ  लेकिन अपने बीच के कुछेक लोगों से कुछ सीखने की सलाह जरूर देती हूं ।मुझे मालूम है कि इस तरह के लोगों के बारे में कुछ भी लिखा जाना नाकाफ़ी है और इस बात की पूरी संभावना है कि मेरे द्वारा लिखी गई इन चंद लाइनों से उनके कार्य का अहम पहलू अनछुआ रह जाएगा लेकिन फिर भी अपने आने वाले कुछ पोस्ट में ऐसे ही लोगों के बारे में लिखने की कोशिश करूँगी ।मेरा अपने सभी फेसबुक मित्रों से ये आग्रह है कि अगर वो भी किसी इस तरह के व्यक्ति से परिचित हैं तो उनके बारे में  कमेंट बॉक्स में जरूर बताए ।

Thursday 25 June 2020

कोरोना वायरस के मद्देनजर lockdown के समय बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए ।ऐसे बेरोजगारों में मात्र महानगर या विदेशों के प्रवासी लोग ही नहीं थे वरन इसका असर बिहार के अंदरूनी हिस्से अर्थात गाँवो में  काम करने वाले शिल्पकार ,बुनकर और इस उद्योग से जुड़े हजारों की संख्या में मजदूरों की भी  हैं हालांकि हमारे राज्य के कामगारों का यह हिस्सा इस आपदा से पहले भी काफी हद तक सरकार और लोगों की पारखी नज़र से उपेक्षित ही था या दूसरे शब्दों में ये कहा जाए कि इस प्रकार के शिल्पकार, बुनकरों और अन्य लोगों की आमदनी का स्रोत साल छह महीने में लगने वाली कला प्रदर्शनी थी अथवा कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा इनके उत्पादों की खरीद थी जिसमें लाभ की अधिक मात्रा उन्हीं के द्वारा ले लिया जाता था लेकिन जब कोरोना आपद के समय इस प्रकार से होने वाली आमदनी भी बंद हो गई और ये भुखमरी के कगार पर पहुंच गए ।ऐसे में दाद देनी चाहिए उन्हीं संस्थाओं से जुड़े कुछ ऐसे लोगों को जिन्होंने इन जरूरतमंदों को एक नई दिशा देने और भविष्य के लिए भी आत्मनिर्भर बनाने की पहल की गई। श्रीमती वीना उपाध्याय से मेरी  पहली पहचान लगभग 15 साल पहले  मेरी पुत्री की अभिन्न सखी की माँ के रूप में हुई । बेटी के मुंह से कई बार मैंने सुना  कि वे एक आईपीएस अधिकारी की अर्धागिनी होने के साथ साथ सृजनी फाउंडेशन नामक एक संस्था को चला रही है जो इस तरह के अन्य संस्थाओं से इतर कार्यरत है । इस आपदा के समय जब बेटी WFH के कारण मुंबई से पटना आई तो उसे मैंने वीनाजी के साथ जुड़ते हुए पाया । सीधी बात अगर कहा जाए तो डिजिटल इंडिया के तर्ज पर उन कामगारों को बिचोलियों से बचाते हुए  खरीदारों के सीधे संपर्क लाने की कोशिश की गई ।इसके लिए उन्हें अपने सामानों की सही कीमत लगाने , उनकी सही फोटोज खींचने के लिए ट्रेंड की  

Wednesday 17 June 2020

14जून की दोपहर ,अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या करने की खबर से पूरा देश हिल गया वजह मानसिक अवसाद अथवा डिप्रेशन । यहां मैं कुछ ऐसा सोचती हूं कि शायद नियति ही उसे एक अति मेधावी छात्र होते हुए बॉलीवुड की ओर खींच कर ले गई थी या फिर उसे डॉक्टर की सलाह लेने में काफी देर हो गई और बीमारी काफी बढ़ गई। ये बात तो सर्वविदित है कि बॉलीवुड में काम करने वाले कलाकार  काफी तनावपूर्ण जिंदगी जीते हैं और अकसर अवसाद का शिकार हो जाते हैं । स्वर्गीय सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद जिन काली सच्चाईयों से धीरे धीरे पर्दा उठ रहा है ऐसे में  उनका अवसादग्रस्त होना लाजमी  था ।ये बात तो सुशांत सिंह की है जो समय के साथ साथ हमारे जेहेन से खत्म हो जाएगी लेकिन ये मानसिक अवसाद क्या है जो जीवन के हर सुख होने के बावजूद लोगों को घुट घुट कर जीने पर विवश कर देता है । अगर आप अपने आसपास परिवार या मित्रों की ओर नज़र डालेंगे तो कई लोगों को इसके गिरफ्त में पाएंगे । मुझे लगता है कि इस बीमारी की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि ज्यादातर मामलों में शारीरिक लक्षण के अभाव में  लोग इस बीमारी को समझ ही नहीं पाते हैं और न ही इसके इलाज की जरूरत समझी जाती है । किसी मानसिक मरीज की दुविधा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसकी तमाम तकलीफों को उसके अपने भी बदमाशी या गलती मान कर डांट डपट के द्वारा ही ठीक करने की कोशिश करते हैं ।जिस तरह हम किसी शारीरिक व्यधि से परेशान होते हैं उसी तरह हमें मानसिक व्यधि भी हो सकती है उसके परे हमारे समाज में किसी मानसिक रोगी को  लोक लाज के भय से दिखाया तक नहीं जाता ।वैसे स्वीकृति के बाद भी किसी मानसिक रोगी के परिवार के लोगों की भूमिका काफी कठिन होती है । मेरे विचार से जैसे हम शरीर के खास अंग की तकलीफ के लिए उसके विशेषज्ञ डॉक्टर से परामर्श लेते हैं उसी तरह  छोटी मानसिक तनाव या समस्या के लिए हमें इसके विशेषज्ञ की सलाह लेनी चाहिए ताकि समय रहते हम इसे ठीक कर सके ।इस प्रकार की समस्या को विशेषज्ञ की सलाह से कई बार समस्या  बिना किसी दवा के मात्र बात चीत के द्वारा ही सुलझ जाती है । अन्य बातों में हम अकसर पश्चिमी देशों का उदाहरण लेते हैं तो वहां इस तरह की समस्याओं में  मरीज निश्चय ही बिना किसी संकोच के डॉक्टर की सलाह ले लेते हैं वही किसी भी शारीरिक बीमारी जैसे बीपी या शुगर की तरह लोग इस व्यधि की दवा अगर लेनी भी पड़े तो लेते हुए सामान्य जीवन बिताते हैं ।  यह एक दुखद तथ्य है कि इस क्षेत्र में हमें चिकित्सा से अधिक सामाजिक तौर पर अधिक विकसित होने की जरूरत है ताकि लोग इस प्रकार की बीमारी के बारे में बिना कोई पूर्वधारणा बनाए इसके इलाज के लिए आगे आए ।

Thursday 4 June 2020

आज से दो महीने पहले तक लोग नेगेटिव होते थे लेकिन आज दो महीने से कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि पूरी दुनिया ही नकारात्मक ऊर्जा से भर गई है ।

Sunday 24 May 2020

वैसे तो कोरोना ने पूरे देश को अपने चपेट में ले लिया है पर 

Wednesday 20 May 2020

आज लॉकडौन के लगभग दो महीने हो  रहे हैं। पिछले संदेश में प्रधानमंत्री श्री मोदी जी ने लोगों से आत्मनिर्भर बनने की बात कही ।इस शब्द का तमाम सोशल साइट्स पर काफ़ी मजाक भी बनाया गया ।लेकिन आत्मनिर्भरता किसी के लिए भी जरूरी है कोई देश हो,राज्य हो या फिर चाहे वो छोटा सा बच्चा ही क्यों न हो धरती पर पड़ने वाला उसका वो पहला कदम जो बिना किसी मदद के वो उठाता है भविष्य में  उसके दौड़ने के रास्ते में अहम साबित होता है । किसी भी राज्य के आत्मनिर्भर होने के लिए बहुत से तथ्य होते हैं ।उद्योगऔर कृषि  संबंधी ,शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी आत्मनिर्भरता ।यहां उल्लेखनीय है कि कुछ दशक पूर्व बिहार इनमें से कुछ मामलों में बिल्कुल स्वालम्बित था । घरेलू खपत के साथ साथ चावल, मकई ,दाल जैसे अनाजों और आम,लीची जैसे फल सरकारी आय का बड़ा हिस्सा थीं ।  इसके साथ यहां के अच्छे शिक्षण संस्थान के कारण कभी विद्यार्थियों को बिहार से बाहर जाने की जरूरत  ही नहीं पड़ती थीं बल्कि कई बाहरी बच्चे भी यहां के कॉलेजों में पढ़ाई करने आते थे।लेकिन धीरे धीरे हम पिछड़ने लगे और कृषि से लेकर शिक्षा तक हमारा पायदान नीचे की ओर खिसकता गया ।एकाध  तकनीकी और मेडिकल कॉलेजों के अलावा यहां के कॉलेज राजनीति का अड्डा बन गए  बिहार की स्थिति इसलिए भी दयनीय है क्योंकि आज किसी भी मामले में ये राज्य आत्मनिर्भर नहीं रह गया है जबकि विधाता ने कृषि योग्य अत्यंत उपजाऊ मिट्टी के साथ साथ नदियों और पोखरों का वरदान दिया है जिसके कारण  इसने कभी देश के बाहर के देशों पर भी राज किया था। इसे  बिहार के लिए दुखद ही कहेगें  कि नदी और पोखरों से  भरा होने के बाद भी हमारा बिहार मछली के लिए आज भी आंध्र प्रदेश पर ही निर्भर है जिसके कारण आय का एक बड़ा हिस्सा राज्य से बाहर चला जाता है जो थोड़े से प्रयत्न से बचाया जा सकता है ।अगर  लोकल मछली मिलती भी है तो लोगों को इसकी प्राय दुगुनी कीमत अदा करनी पड़ती है। जबकि पड़ोस का  पठारी प्रदेश झारखंड इस मामले में पूर्ण रूप से न केवल आत्मनिर्भर बन चुका है  बल्कि विगत दो तीन  वर्षों से झारखंड  के प्रमुख शहरों में आंध्र प्रदेश से आने वाली मछली की बिक्री न के बराबर है और तो और झारखंड इस मामले में अपने क्षेत्र का प्रमुख निर्यातक बन चुका है यहां ध्यान देने वाली बात यह कि झारखंड के कुछ शहरों को छोड़कर बाकी सभी पानी की कमी से जूझ रहे हैं और जहां तक मैं समझती हूं वहां के तालाब अधिकतर पानी के लिए वर्षा जल पर ही निर्भर हैं । अभी की स्थिति में  लाखों मजदूरों की  वापसी के बाद मत्स्य पालन बिहार को  रोजगार बढ़ाने के साथ साथ राजस्व बढ़ाने में काफी मदद कर सकता है हालांकि इस दिशा में पूर्णिया के कुछ क्षेत्रों में पहल की गई है लेकिन ये उत्पादन बिहार के लिए नगणय कहा जाएगा है क्योंकि इन  क्षेत्रों में लोगों के मुख्य भोजन में मछली की प्रधानता होती है अर्थात यहां का ये उत्पादन बस रोजमर्रा के खाने तक ही सीमित है जबकि यहां मत्स्य पालन बड़े पैमाने पर किए जाने पर जहां इसे मैथिल बहुल क्षेत्रों का स्थानीय सहयोग मिलेगा वहीं बंगाल,आसाम से सटे होने के कारण  बड़ा बाजार भी सहज प्राप्य है ।आने वाले समय में सरकार को जरूरत है कुछ ऐसे ही रोजगार के साधनों का, जो राज्य सरकार की आय को दूसरे राज्य में जाने से बचाने के साथ साथ कोरोना के कारण  बेरोजगारी की मार झेल रहे मजदूरों को एक नई दिशा प्रदान करें  ।

Tuesday 19 May 2020

पिछले सीजन वाले कौन बनेगा करोड़पति में हफ्ते में एक दिन में समाज के कुछ ऐसे लोगों से मिलाया जाता था जिन्होंने अपनी सुख सुविधाओं को छोड़कर समाज के सामने एक मिसाल कायम की ।पिछले दो महीनों से हम कोरोना वायरस से प्रभावित अपने शहर गांव से दूर गए मजदूरों को भूख और बदहाली से तिल तिल कर मरते हुए देख रहे हैं ।आज मैं अपने बिहार के कुछ ऐसे ही लोगों के बारे में विवेचना करना चाहती हूं जो भले ही बहुत अधिक नज़रों में नहीं आए हैं लेकिन  उनके मन में आत्मसंतुष्टि की भावना ही उन्हें आगे की ओर बढ़ने में मददगार होती है ।इस विषय पर सा 

Sunday 17 May 2020

पिछले कुछ दिनों से news और सोशल मीडिया को  देखना कोरोना वायरस के कारण पलायन करने वाले मजदूरों की मार्मिक स्थिति के मद्देनजर बहुत कठिन हो गया है । भूख और आने वाले समय की विकटता को देखते हुए हजारों किलोमीटर की अकल्पनीय दूरी ये मजदूर बाल बच्चों के साथ तय करने की कोशिश कर रहे हैं और भूख और थकान से रास्ते में ही दम तोड़ रहे हैं । जहां तक मेरी जानकारी है 28 लाख मजदूर  बिहार आ रहे हैं और संभवत जो किसी तरह यहां पहुंच जाएंगे वो अभी के हिसाब से तो वापस कभी नहीं जाएंगे ।यहां मेरे मन में ये सवाल आता है कि आखिर इतने लोग अगर यहां से पलायन करके महानगरों में गए थे तो क्या हमारे बिहार में कुछ सरकारी योजना के अलावा उनके लिए कोई रोजगार मौजूद नहीं था  ? इस बीच मैंने कई जगहों पर बिहार में  चलने वाली कई तरह के मिलों के बारे में पढ़ा है ।मेरे स्वर्गीय बाबा जहां निर्मली के मुरोना ब्लॉक  में कार्यरत थे वहीं हमारे स्वर्गीय दादा(ददिया ससुर) कटिहार के जूट मिल में कार्यरत थे ।जाहिर है अपने ही परिवार के दो लोगों के कार्यरत इन मिलों में बड़ी संख्या में मजदूर भी रहे होंगे। इन दोनों जैसे अनेक लोगों  के अपने गांव से नज़दीक नौकरी करने के अनेकों फायदे थे जहां एक ओर नौकरी के द्वारा नकद आमदनी होती होगी वहीं गांव में रहने के कारण  कृषि कार्यों का भी संरक्षण भी होता था इसी तरह के न जाने कितने ही उद्योग रहे होंगे कहने का मतलब यह है कि किसी भी छोटे उद्योग के कारण कितने ही लोगों को रोजगार मिला हुआ था और इसके साथ साथ खेती भी की जाती थी ।मुझे नहीं मालूम कि क्यों और किन परिस्थितियों में इन मिलों को बंद कर दिया और धीरे धीरे गांव या बिहार से लोगों का पलायन होने लगा ।हाल के वर्षों में गाँवो की स्थिति कुछ ऐसी हो गई कि वहाँ प्राय घरों में मात्र या तो बूढ़े और अशक्त लोग बचे या फिर महिलाएं ,धीरे धीरे शहरी चकाचौंध ने इन्हें अपने जाल में कुछ इस तरह लपेटा कि ये परिवार के साथ वहां चले गए और आज से दो महीने पहले तक के हिसाब से छोटे बड़े फ़ैक्टरियों के अलावा वहां के तमाम टैक्सी चालक, गार्ड ,सब्जी बेचने ,बढ़ाई और प्लम्बर जैसे सभी श्रम प्रधान कार्य  अधिकतर बिहार और यूपी के लोग ही करते थे।यहां मैं सिर्फ सरकार को ही दोष नहीं दूंगी यहां लोगों को दिल्ली मुंबई की नौकरी इस कदर भाने लगी कि मजदूरों के साथ साथ किसी भी मामूली संस्थान से पढ़े हुए इंजीनियर ,मैनेजमेंट और अन्य प्रोफेशन कोर्स वाले 12 से 15 हजार की नौकरी के लिए अपने शहर या गांव को छोड़ कर दिल्ली या मुंबई जाने लगे इस जगह अगर कोई ऐसा रोजगार या नौकरी लोगों यहां मिल जाए तो शायद ये पलायन रुक जाता।नतीजतन बिहार खाली होता गया । इसके कारण धीरे धीरे खेती भी चौपट होने लगी । इस बारे में यहां मैं चर्चा करना चाहूंगी श्रीमती ऋतू जायसवाल जो खुद एक उच्च अधिकारी की पत्नी है और अपने ससुराल सोनबरसा सीतामढ़ी में मुखिया पद पर आसीन है ,उनका कहना है कि किसी भी राज्य से मजदूरों का बाहर जाना गलत नहीं है बशर्ते वो दोनों ओर से हो अर्थात हमने कभी नहीं सुना कि महाराष्ट्र या गुजरात के मजदूर  काम के सिलसिले में बिहार या यूपी आते हैं । मुझे लगता है कि जिस प्रकार अंग्रेजी शासन में भारत के कच्चे माल के द्वारा विदेशी कंपनियां लहलहाने लगी ठीक उसी प्रकार बिहार के मजदूरों के कारण महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली के तमाम उद्योग की उन्नति होती गई और बिहार खाली होता गया रही सही कसर झारखंड विभाजन ने पूरी कर दी । उसपर दुखद पहलू यह है कि इतनी भारी श्रमयोगदान के बावजूद हर जगह बिहारियों के हिस्से भत्सर्ना ही आई वहां होने वाले सभी फसादों की जड़ में बिहारियों को ही माना गया और कभी उन्हें भइया कभी लल्लू जैसे नामों से बुलाया गया ।आज जबकि 80%मजदूर भूखमरी की हालत में वापस नहीं लौटने के लिए घर लौट रहे हैं तो उनके हिस्से तो घर लौटने के बाद भी भूखमरी ही आएगी पर मेरा प्रश्न यह है कि क्या महाराष्ट्र ,गुजरात या अन्य जगहों की अर्थव्यवस्था बिना बिहार या यूपी के मजदूरों के चल पाएगी ? क्या इस दिशा में सरकार के साथ साथ उन उद्योगपतियों का ये फर्ज नहीं बनता था कि वे अपने मजदूरों को इस मुसीबत के समय उन्हें रोटी मुहैया कराए जो वर्षों से उनके लाभ का बड़ा हिस्सा बनाने में अपना सहयोग दे रहे थे । अभी की  स्थिति में भूख से मर रहे मजदूरों की हालत शटल काक की तरह हो गई जिनके बारे में केंद्र सरकार राज्य, सरकार की जिम्मेदारी बता कर उन्हें उनके पाले में फेंक रहा है और राज्य सरकार केंद्र सरकार की और नतीजे के रूप में मजदूर मर रहे हैं ।

Wednesday 22 April 2020

सारे संसार को कोरोना नाम के दानव ने लील लिया है  लगता है इसने मानव अस्तित्व को ही चुनौती देने का मन बना लिया है ।टी वी अखबार,रेडियो और सभी संचार माध्यमों के जरिए एकही बात कही जा रही है social distancing के द्वारा ही इस बीमारी पर काबू पाया जा सकता है ।social distancing मतलब अपने परिवार तक सीमित रहना घर से बाहर नहीं निकालना ।परिवार और घर का मतलब ? दरअसल बचपन से आज तक हमारे लिए परिवार का मतलब सिर्फ माता पिता और सहोदरों तक ही सीमित नहीं था ।हमारे लिए परिवार का मतलब दादी ,चाचा ,बुआ और सभी चचेरे भाई बहन होते थे ।इसके साथ ही हमारे परिवार में कई ऐसे लोग भी शामिल थे जो हमारे निकटस्थ संबंधी न रहते हुए हमारे लिए अपनों से बढ़कर थे ।कई बार हमने कई बातें माँ से न कह कर चाची से कहा है ।कभी भी हमने माँ को किसी भी तरह से अपने बच्चों और हमारे चचेरे फुफेरे भाई बहनों में फर्क करते नहीं देखा । बाद में जब शादी हुई तो कहने को दो भाई बहन का छोटा सा परिवार था लेकिन यहां परिवार का दायरा वहां से भी विस्तृत ।कभी ये पता ही चला कि ये मेरी अपनी ननद है और ये  अपनी नहीं ।बीमारी कोई एक हुआ पूरा परिवार तीमारदारी को तैयार । लेकिन धीरे धीरे मैंने ये गौर किया कि हम जैसों की संख्या अब घटती जा रही है लोग अपने आप में सिमटते जा रहे हैं ।अपने और पराए की दीवार अब सबके बीच खिंचती जा रही है ।परिवार का मतलब सिर्फ अपने ही बाल बच्चों तक सिमट कर रह गया ।दादा दादी ,चाचा और बुआ  की गिनती कभी कभी आने वाले मेहमानों में होने लगी । जहां पहले लोगों से घर भरा रहता था वहां एक दिन भी किसी का आना खलने लगा । यहां मैं जिक्र करना चाहूंगी एक घटना का लगभग 6-8 महीने पूर्व मुझे किसी ने मेरे पटना में रहने वाले चाचा के बारे में पूछा कि "वो तुम्हारे चचेरे चाचा हैं ?मैंने कहा हां मेरे चाचा है उसने फिर कहा चचेरे हैं न ।मैंने कहा चाचा हैं  इतना काफी नहीं ।क्या कहूं जिन्हें आज तक कभी चचेरे के रूप में नहीं देखा उन्हें अचानक क्या कहूं ? हमारे मिथिला में एक कहावत है "जे रोगी के भाबे से वैद फरमाबे " अर्थात रोगी की इच्छा के अनुसार ही वैद (चिकित्सक) सलाह देता है "। लगता है लोगों के अपने आप में सिमटती हुई इच्छा को भगवान ने भांप गए और उसने मानव जाति को  इस बीमारी का शाप दे दिया  ठीक  बचपन में सुनी उस कहानी की तरह राजा की तरह जो शुरू में  वरदान था लेकिन बाद में श्राप  जो जिस चीज़ को छुए वो सोने में बदल जाए । 

Saturday 21 March 2020

पिछले दो महीने से कोरोना नाम के दानव ने हमारे जीवन में प्रवेश किया है और लगभग एक महीने से लोगों में दहशत मचा दिया है ।आमतौर पर हमारी मानसिकता के अनुसार हम ये उम्मीद करते हैं कि अगर हम अस्वस्थ हैं तो लोग हमारा हाल चाल लें इसी बहाने हम कुछ समय के अपनी बीमारी को भूल जाते हैं । पिछले कुछ सालों में हमारे शहर में भी कुछ ऐसे अस्पताल खुल गए हैं जहाँ मानक समय से परे  रोगी से मिलने की वर्जना  होती है जोकि लोगों के  बीच आलोचना का विषय बनता है जबकि इस तरह की वर्जनाएं सभी पेशेंट के हित में ही कहा जा सकता है । लेकिन इस बीमारी ने तो पिछले सभी बातों को नकारते हुए लोगों के आपसी मेलजोल पर पाबंदी लगाने की बात कही और ऐसा नहीं करने पर भयानक परिणाम के रूप में चीन और इटली का उदाहरण पेश किया है  ऐसे में हम अपनी ओर से ऐतिहात बरते और सर्वशक्तिमान ईश्वर की आराधना करें कि वो हमें इस मुसीबत से बचाए ।मेरी ओर से पूज्यनीय हैं वे सभी स्वास्थ्यकर्मी,पुलिसकर्मी ,बैंककर्मी इमरजेंसी सेवा में तैनात तमाम ऐसे लोग जो अपनी जान को जोखिम में डाल कर हमारे लिए कार्यरत हैं ।अभी  के हालात में लगभग सभी दूर रह कर पढ़ने वाले बच्चे अपने अपने घर पहुंच चुके हैं और घर में रह कर परिवार के साथ अपना समय बीता रहे हैं ।लेकिन इन सब के साथ एक तबका उन बच्चों का है जो अपने माता पिता से दूर नौकरी कर रहे हैं और उन्हें WFH की सुविधा देते हुए कंपनी ने हेडक्वॉर्टर न छोड़ने की कड़ी ताकीद दी है ।मेरी बड़ी बेटी मुंबई में कार्यरत है और बीते सात दिनों से अपनी कंपनी की ओर से work from home के कारण घर पर है ।जिन दो लड़कियों ने उसके साथ फ्लैट साझा किया है उनका घर मुंबई से कुछ घंटों की दूरी पर है जिसके कारण वो अपने घर जा चुकी हैं ।जिस दिन से उसे कंपनी की ओर से वर्क फ्रॉम होम की सुविधा मिली उसी दिन से उसने अपनी बाई को आने से मना कर दिया हमारी आने वाली पीढ़ी हर बात में हमसे ज्यादा जागरूक है इस बात को मैं मानती हूं ।ऑफिस या नितांत घरेलू संबंधों के अलावा  महानगरों में वैसे भी आपसी संवाद की कमी ही  रहती है ।मैंने कभी कही पढ़ा था कि किसी के लिए खाने से ज्यादा जरूरी बोलना है । इस प्रकार की स्थिति में बच्चे अपने अकेलेपन को मिटाने के लिए मॉल और इधर उधर घूमने का सहारा लेते हैं जो इस समय अप्राप्य हैं । इस तरह के समय में हमारा एकमात्र विकल्प मोबाइल ही बचता है दिन में कई कई बार वीडियो कॉल कर हम उसे अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करते हैं ।मुझे लगता है कि प्राय सभी घरों में  बच्चों से हमारी विवाद की एक बड़ी वजह मोबाइल फोन बनता है और आज यही फोन मेरे जैसी अनेकों माता पिता के लिए ऑक्सीजन का काम कर रहा है जिनके बच्चे उनसे हजारों किलोमीटर दूर घरों में कैद हैं ।किसी भी उपकरण को हम किस तरह इस्तेमाल कर रहे हैं मोबाइल इसका  उदाहरण है ।

Thursday 5 March 2020

एक पुरानी कहावत है नीम हकीम खतरे जान मतलब अधूरे ज्ञान का ज्ञाता आपकी जान को खतरे में डाल सकता है । पहले के समय से ही  बहुत से लोग इधर उधर की जानकारी के द्वारा बीमारियों को ठीक करने की कोशिश करते हैं। बहुत सी चालू दवाईयां ऐसी होती हैं जिन्हें हम अपने मन से खा लेते हैं । उसके बाद बारी आती है प्राणायाम की बाबा रामदेव के साथ ही इस विद्या को मानने वालों में काफ़ी इजाफ़ा हुआ है उसके साथ ही चूँकि समय  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का है तो टीवी और सोशल साइट्स भी इसमें बड़ी भूमिका निभाने लगे हैं । आज किसी के भूत भविष्य और पर्व त्योहार के विषय में विभिन्न टीवी चैनलों पर आने वाले टीका धारी पंडित अच्छी तरह बताते हैं पर इन सबसे अधिक मेरे ख्याल से सबसे महत्वपूर्ण बातों पर ग़ौर करें । वर्तमान समय में जब से हमारे बीच स्मार्ट फोन और विभिन्न टेली कंपनियों ने मात्र 10 रुपए में भी नेट देने की व्यवस्था की है देश का हर दूसरा आदमी डॉक्टर बना जा रहा है ।कोई भी परेशानी हो ,गूगल पर सर्च किया और उस बीमारी के लक्षण से लेकर निदान तक पता लगा लिया ।इसके अलावा wp और फ़ेसबुक भी किसी प्रकार की जानकारी के लिए आसानी से उपलब्ध है ।कुछ दिन पहले मैंने किसी अखबार में पढ़ा कि अमुक स्थान में किसी महिला ने अपने fb ग्रुप की सदस्यों की सलाह को अपने डॉक्टर की सलाह से ज्यादा भरोसेमंद मानते हुए बीमार बेटे को दवा नहीं दी क्योंकि उसके fb वाले दोस्तों का कहना था कि उन्होंने इस दवा के साइड इफेक्ट्स को नेट पर देखा है भले ही दवा के नहीं देने की स्थिति उस महिला ने अपना बच्चा खो दिया । आपको अपने आस पास अनेकों ऐसे लोग मिल जाएंगे जो कि net की जानकारी के साथ साथ कई अन्य बीमारियों का निदान चलते फिरते बता देंगे यहां ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो high bp और शुगर की दवाईयों से बचने के लिए नमक और चीनी की मात्रा को अपने भोजन में से  सहज ही कम कर लिया हैं जो सर्वथा गलत है ।हमारे बीच आज भी  कई ऐसे वृद्ध हैं जो सामान्य भोजन और एक स्वस्थ दिनचर्या के साथ बिना किसी बीमारी के जिंदगी बिताई है । एक कहावत के अनुसार दवा खाने से अच्छा परहेज करना है लेकिन अति तो हर चीज की बुरी होती है । net की जानकारी ठीक है  जहां तक इसपर अमल करने की बात है वो बिना किसी डॉक्टर की सलाह के नहीं होनी चाहिए ।इस बारे में मेरे एक परिचित डॉक्टर का कहना है कि पहले हमने मेडिकल कॉलेज की इतनी लंबी पढ़ाई की फिर समय समय पर विशेष डिग्रियों को हासिल किया जिसमें समय ,मेहनत और धन तीनों लगाया लेकिन आज कोई भी नेट सर्च कर हमें बेवकूफ साबित करना चाहता है ।मैं नहीं कहती कि डॉक्टर हमेशा सही होते हैं बल्कि आज जिस प्रकार से कई डॉक्टरों ने पैसों के लिए मरीजों के प्रति असहिष्णुता को अपनाया है ऐसे में लोगों का डॉक्टरों के प्रति विश्वास में काफी कमी आई है अर्थात डॉक्टर भगवान होता है ये धारणा खंडित होती जा रही है लेकिन इसका निदान नेट सर्च कर नहीं निकाला जा सकता है बल्कि  किसी एक पर विश्वास नहीं होने की स्थिति में हम किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह लें तो बेहतर होगा।

Thursday 20 February 2020

हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन से मृत्यु तक के कर्म के लिए किसी न किसी देवी देवता को जिम्मेदार ठहराया गया है मसलन इस सृष्टि के सृजन, पालन और संहार कर्ता के रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का नाम लिया जाता  है ।इसी तरह अगर किसी को स्वास्थ्य और  शारीरिक रोगों से मुक्त होना हो तो उसे सूर्य देव की आराधना करने की सलाह देते हैं। इसी तरह से देवियों को भी अलग क्षेत्र दिया गया है।जैसे शक्ति, विद्या और धन के लिए भी  क्रमशःदेवी  दुर्गा, देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी की पूजा करने प्रावधान है । बचपन से जब तक हमारा विद्यार्थी जीवन रहा,  हमें  हमेशा देवी सरस्वती की आराधना करने को कहा जाता था इसके साथ हम ऐसा सुनते थे कि देवी सरस्वती का स्थान हमेशा ही देवी लक्ष्मी से ऊपर है जिसके पास सरस्वती की कृपा होती है  देवी लक्ष्मी को उसके पास मजबूर होकर आना ही पड़ता है ।देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी की कथा बरसों से चली आ रही है लेकिन हाल के वर्षों में मैंने बड़ी तब्दीली देखी है । बच्चे के नर्सरी के क्लास से ही आपको यथेष्ठ धनराशि की व्यवस्था करनी होगी इसके साथ साथ जरूरी नहीं कि कड़ी स्पर्धा के दौर में बच्चे को मनचाहे स्कूल में एडमिशन मिल ही जाए ।इसके बाद मात्र डोनेशन की सहायता से ही आप किसी प्रसिद्ध स्कूल  में डाल सकते हैं ।कुछ ही  क्लासज के बाद उसे ट्यूशन और बड़े क्लास में जाने के बाद बच्चे को महँगे कोचिंग संस्थानों की जरूरत पड़ती है जो उसे उसके मनचाहे कैरियर चुनने में सहायक होते हैं। बात यही खत्म नहीं होती है कॉलेजों के चुनाव के बाद अगर आप मात्र विशेष क्षेत्र के कॉलेज जैसे IIM (या  किसी अन्यMBA कॉलेज),Clat या डिजाइनिंग  के सरकारी कॉलेजों की बात की बात करें तो ये खर्च आसानी से 15 से 18 लाख को पार कर जाता है । अगर बच्चे को अपनी योग्यता से सरकारी कॉलेजों में दाखिला नहीं मिल सका और उसने निजी क्षेत्र के कॉलेजों को चुन लिया तो सहज ही ये राशि 25 से 30 लाख तक पहुंच सकती है जबकि इसमें मैंने निजी मेडिकल कॉलेजों की बात नहीं कही है ।अगर हम बच्चे को देश के प्रसिद्ध  दिल्ली के सरकारी कॉलेज में मात्र स्नातक करवाने की सोचें तो कॉलेज की कम फ़ीस की भरपाई  विद्यार्थियों की संख्या से कम होस्टल के कारण महँगी pg कर देगी इसके बाद अगर बच्चे ने आगे की पढ़ाई के लिए विदेशी शिक्षा का रूख कर लिया तो छात्रवृत्ति मिलने के बाद भी काफी रकम की जरूरत पड़ती है।कहने का तात्पर्य यह है कि आज के समय में किसी भी पढ़ाई को करने के लिए बच्चे का मेधावी होना ही काफी नहीं है इसके साथ ही बच्चे के माता पिता को कोचिंग और फीस के लिए अच्छी रकम की तैयारी जरूरी है । तो पहले वाली कहानियों से परे मुझे लगता है कि अब देवी सरस्वती और देवी लक्ष्मी में खासी मित्रता हो गई है दोनों ही एक दूसरे की पूरक बन चुकी है।

Saturday 15 February 2020

हिन्दू धर्म में जीवन से मृत्यु पर्यंत कार्य क्षेत्रों को विभिन्न देवी देवताओं में जिम्मे बाँटा गया है ।उदाहरण के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश को सृष्टि के सृजन कर्ता, पालन कर्ता और संहार कर्ता के रूप में जाना जाता है ।हमारे धर्म मे अपने शरीर की रक्षा के लिए सूर्य देव की आराधना करने की सलाह दी जाती है ।ये तो देवताओं की बात हुई ।उसी प्रकार विभिन्न देवियों को धन,शक्ति या विद्यादायनी के रूप में माना जाता है ।  विद्यार्थियों के लिए सरस्वती से बढ़कर कोई नहीं अतः जब हम विद्यार्थी थे तो हमें हमेशा सरस्वती जी का ध्यान करने की सलाह दी जाती थी पर इसके साथ साथ मुझे माँ पापा की एक बात याद आती है जो संभवत उस समय के ह
सभी मध्यम वर्गीय माता पिता अपने बच्चों से कहते थे कि देवी लक्ष्मी जो धन की देवी है वो देवी सरस्वती के पीछे चलती है अर्थात अगर  देवी सरस्वती अगर तुम्हारे पास हैं तो देवी लक्ष्मी को

Friday 14 February 2020

छाया गीत ,आपके अनुरोध या मनचाहे गीत ऐसे कितने ही नामों से मेरे साथ साथ उस समय के सभी लोग परिचित होंगे और नहीं सुनने की स्थिति में मिस करते होंगे।अगर आप हिंदी फिल्मी गीतों के शौकीन हैं तो निश्चित तौर पर रेडियो सीलोन के अमीन सयानी के साफ़्ताहिक बिनाका गीत माला के पायदानों को लेकर अपने दोस्तों से बाज़ी लगाई होगी ।जिसे सुनकर मुझे हमेशा अपने फौजी भाइयों से जुड़े होने का अहसास होता है ।इसके साथ ही अमूमन सभी पर्व के दिनों में उनसे जुड़े रेडियो के गीतों ने खूब सराहा होगा ।जी हाँ ,मैं विविध भारती और आल इंडिया रेडियो की बात कर रही हूं जो हमारे स्कूल और कॉलेज के समय का आल टाइम फ़ेवरेट था । जब भी मैं अपने बचपन के दिनों को याद करती हूं तो मेरी यादों में दूसरे चीजों के साथ साथ रेडियो की मधुर आवाज गूंज उठती है ।आल इंडिया रेडियो की आवाज के साथ जो प्रोग्राम की शुरुआत होती वो सुबह रंगावली ,चित्रलोक से होती हुई सुबह की सभा समाप्ति के साथ दोपहर और रात के ग्यारह बजे तक चलता । वो समय था चाबियों वाली घड़ियों का ।तो सुबह आठ बजे के समाचार के साथ सभी घड़ियों में चाबी भरीं जाती और उसके साथ ही हम स्कूल जाने की तैयारी करते ।समाचारों का महत्व तो उस वक़्त हमारे लिए नहीं था तो गानों के बीच पापा जब स्टेशन बदल कर प्रादेशिक समाचार सुनते तो हम बिल्कुल ही भन्ना जाते ।इसी बीच स्कूल पास कर मैं कॉलेज में पहुंच गई ,दीदी की शादी और भइया के पढ़ाई करने के लिए दिल्ली जाने के कारण घर में अकेली पर गयी ।इस दौर में रेडियो ने मेरे अच्छे दोस्त की भूमिका निभाई । समय के साथ साथ टेलीविजन घरों पर राज करने लगा उसी क्रम में vcp और CD player जैसे यंत्र आए उसी तरह रेडियो में FM जुड़ गए लेकिन समय के साथ साथ पता नहीं कब विविध भारती पीछे छूट गया । कुछ साल पहले बाजार में Caarva आया जिसमें 2000 से लेकर 5000 गाने दिए गए थे पर बात बिल्कुल जमी नहीं । विगत कुछ वर्षों से मैं अपने पुराने रेडियो के लिए लालायित रहती थी जो बिल्कुल साधारण हो जिसमें पेनड्राइव या ब्लूटूथ वाली विशेषताएं भी न हो और न तो Caarva की तरह HMV के सदाबहार गाने से भरा पड़ा हो और न ही FM की तरह शोर शराबों से भरा हो ।बस मैं उसे बिजली या बैटरी की सहायता से सुनूं ।यहां मैं जिक्र करना चाहूंगी हमारे शहर के बड़े इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की दुकान का ,जब वहां बैठे 20-22 वर्षीय सेल्समैन से मैंने रेडियो दिखाने को कहा छुटते ही उसने पूछा ,रेडियो मतलब ? उफ ये नई पीढ़ी !लेकिन मेरी खोज कल जा कर पूरी हुई जब पतिदेव ने दसियों दुकानों में खोजने के बाद philips का वैसे ही पुराने ढ़ंग का रेडियो खरीद लिया ।यकीन मानिए उसे सुनकर मुझे ऐसा लगा कि मेरे स्कूल कॉलेज के दिन लौट आए हैं जब मैं इन गीतों के साथ पढ़ाई करती थींऔर यहां सबसे अच्छी बात यह है कि एकाध को छोड़कर सारे कार्यक्रम वही हैं फिर चाहे वो संगीत सरिता हो ,हेल्लो फरमाइश ! धन्यवाद विविध भारती ,धन्यवाद पति महोदय मुझे अपनी पुरानी यादों से जोड़ने के लिए।

Monday 6 January 2020

बीते कुछ दिनों से जब भी अपार्टमेंट के गेट से निकलती थी लगभग दर्ज़न भर पिल्ले को इधर उधर दौड़ता हुआ देखकर कोफ्त सी होती थी और तो और जैसे जैसे रात की ठंड बढ़ती वैसे वैसे समवेत स्वर में उनका क्रंदन वातावरण  को  मनहूस बनाता था ।कुल मिला कर  मैं ही कमोबेश सभी उनसे परेशान थे ।पिछली पूरी ही रात शान्ति से गुजरी ।आज सुबह जब सब्जी लेने नीचे गई तो देखा कि संभवत रात किसी तीव्र गति से आने वाली गाड़ी ने एक पिल्ले को अपना निशाना बनाया और उसके मृत अवशेष के पास थरथराती हुई जननी खड़ी थी । श्वान कुल की परंपरा के अनुसार उसके पिता का कोई पता नहीं लेकिन माँ तो माँ होती है फिर चाहे वो इंसान हो या किसी प्राणी की ।यहां गौर करने वाली बात है कि इस घटना के बाद लगातार स्वच्छंद विचरण करने वाला पिल्लों को समूह न जाने कहां गायब हो गया  अर्थात उन्होंने गलतियों से सबक लेकर जीना सीख लिया बस हम मनुष्य ही ऐसे हैं कि कई कई चेतावनी मिलने के बाद कभी नहीं सुधरते ।