Saturday 14 October 2023

 श्री तेजाकर झा द्वारा लिखित पुस्तक The Crisis of succession को पढ़ा ।आज  तक महाराजा,महारानी और साम्राज्य संबंधी बातें हमने इतिहास में ही पढ़ा है। लेकिन इस किताब के माध्यम से जाने पहचाने क्षेत्रों और उनके शासकों को  पढ़ना काफी रोचक है। जैसा कि इस किताब के नाम से ही स्पष्ट है एक भरे पूरे और प्रभुत्व संपन्न साम्राज्य में उत्तराधिकार के अंधी दौड़ में किस तरह की साजिशें रची जा सकती है और  इसका परिणाम संबंधों को किस हद तक ले जा सकता है,ये किताब इसे पेश करने में पूरी तरह सक्षम है।
 वैसे तो अपने को देवी कंकाली का सेवक मात्र मानने वाले तिरहुत /मिथिला/दरभंगा खंडावला वंशीय महाराजाओं का इस रियासत का आरंभ सन् 1573 से माना जाता है जिसे पहले मुगल बादशाह शाह आलम 2nd और बाद में बंगाल के नवाबों द्वारा घोषित किया गया। कुल अठारह राजाओं ने इस पर राज किया जिन्होंने अपनी अच्छी शिक्षा  और सुचारू रूप से चलने वाले शासन प्रबंध के द्वारा साम्राज्य की अच्छी पहचान बनाई लेकिन इस किताब में लेखक श्री झा ने महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह ,महाराज रामेश्वर सिंह और विशेष रूप से महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह जी का चरित्र चित्रण और उनकी महारानियो की जीवनी  लिखी है। साथ ही साथ  महाराजा के निकटस्थ संबंधी भी पुस्तक का  महत्वपूर्ण हिस्सा है।
 महाराज रामेश्वर सिंह जी की एक बेटी लक्ष्मी दाईजी और  दो पुत्र कामेश्वर सिंह एवम   विशेश्वर सिंह थे। लक्ष्मी दाईजी उम्र में अपने भाई कामेश्वर सिंह से पांच वर्ष बड़ी थी। भाइयों से बड़ी होने के कारण वो स्वभाव से ही काफी दबंग थी ।अपने गुणों और बड़े भाई होने के कारण कामेश्वर सिंह जी दरभंगा के महाराज बने और कालांतर में विशेश्वर सिंह को राजाबहादुर की उपाधि के साथ राजनगर सौंपा गया। 
 तत्कालीन समय के अनुरूप  सोलह वर्षीय कामेश्वर सिंह जी का ब्याह नौ वर्ष की कुलीन परिवार की छोटी सी कन्या से हुआ जो विवाह के बाद राजलक्ष्मी कहलाई ।राजलक्ष्मी बचपन से ही काफी धार्मिक प्रवृति और स्वभाव से सरल थी । शायद उनकी इसी  प्रवृति के कारण उनकी सास ,ननद और यहां तक की उनके मायके से साथ आई नौकरानी तक उनपर हावी रही जो महाराज से उनके अलगाव का कारण बनी । यहां महाराज और महारानी के बीच दूरी बढ़ाने का काम संभवत उत्तराधिकार से सबंधित एक सोची समझी रणनीति थी जिसके अनुसार महाराज के अपनी संतान नहीं होने की स्थिति में में यह अधिकार संभवत लक्ष्मी दाईजी के पुत्र कन्हैयाजी को मिलता ।लक्ष्मी दाईजी,उनकी मां और उनके पति ने अपने बेटे को इस गद्दी का अघोषित वारिस मान लिया था।
महाराज कामेश्वर सिंह और महारानी राजलक्ष्मी जी के वैमनस्य के कारण महाराज ने दूसरा विवाह किया जो विवाह के बाद कामेश्वरी प्रिया कहलाई । शिक्षित,संस्कारी और बुद्धिमती रानी अपने पहले ही  प्रसव के दौरान लक्ष्मी दाईजी की षडयंत्र का शिकार बन कर मृत्यु को प्राप्त हुई और  जिसका आरोप  बड़ी महारानी पर आया जिसके कारण क्रोधित होकर महाराज ने जिंदगी भर उनका मुंह न देखने की शपथ खा ली । इस बीच राजाबहादुर को तीन पुत्र हुए और महाराज ने उनके बड़े बेटे जीवेश्वर सिंह को बाकायदा उतराधिकारी बनाने के बारे में सोचना शुरू किया ।लेकिन  राजमाता ने महाराज को तीसरे विवाह के लिए विवश किया ।तीसरी रानी एक बड़े पंडित परिवार से आई और कामसुंदरी कहलाई । लेकिन वो भी महाराज को वारिस नहीं दे पाई। जीवेश्वर सिंह को हर तरह से एक शासक बनाने की कोशिश की गई लेकिन अंतत वो कई बुरी आदतों का शिकार होने की वजह से इससे वंचित रह गए ।उत्तराधिकार की लड़ाई अब संपत्ति की लड़ाई में बदल गई और पारिवारिक षड्यत्रो और साजिशों से तंग आकर महाराज ने लंदन में बसने का इरादा किया लेकिन उससे पहले ही संदेहास्पद मृत्यु को प्राप्त हुए ।
  दरभंगा राज, एक ऐसा राज्य जो इस क्षेत्र में अपने समय का सबसे विशाल और समृद्ध राज था । जिसकी सांस्कृतिक विरासत और प्रसिद्धि पूरे देश में दूर दूर तक फैली हुई थी। हर लिहाज से एक ऐसी  आदर्श रियासत , जो अपने आखिरी शासक की संदेहास्पद मृत्यु के मात्र 60 साल के भीतर ही क्यों छिन्न भिन्न हो गई !
इस तरह बातें संभवत किसी भी रियासत के लिए साधारण हो ।लेकिन यह किताब मात्र सुनी सुनाई बातों पर न होकर  महाराज ,महारानियो और कुमार जीवेश्वर सिंह जी के डायरियों पर आधारित है।इसके साथ साथ राज में कार्यरत कर्मचारियों के रिपोर्ट भी इसके साथ संलग्न है।
एक ऐसा राजवंश जिसके शासकों ने रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए क्षेत्र में कई उद्योगों और मिल्स की स्थापना करवाई । शिक्षा और आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने वाले ये शासक  अपने भाई भतीजे के साथ महारानियो की शिक्षा के लिए काफी प्रयासरत थे लेकिन उस समय की परंपरागत सोच और रूढ़िवादिता उन्हें पीछे धकेलने के लिए पर्याप्त थी । नारी अशिक्षा ,बाल और बेमेल विवाह के कारण अधिकांश राजाओं के दांपत्य जीवन में सामंजस्य  का अभाव रहता था जिसके कारण विवाहोत्तर संबंध और व्यभिचार आम बाते थी । 
अगर अधिक विस्तार में इस पुस्तक की बातों को लिखा जाए तो शायद ये चर्चा काफी लंबी हो जाएगी और  नए पाठकों के लिए जिज्ञासा खत्म  हो जाएगी । महाराज की मृत्यु के बाद की स्थिति का वर्णन भी किताब में बखूबी किया गया है।लेखक श्री झा का  महारानी कामसुंदरी के नजदीकी रिश्तेदार रहते हुए भी सभी महारानियो के प्रति तटस्थता का भाव रखना उनकी लेखनी की गहराई का परिचय देता है।
इस रियासत के संबंध में गालिब का  ये शेर कहना वाजिब है
हमें तो अपनों ने लूटा , गैरों में कहां दम था।
अपनी कश्ती वहां डूबी जहां पानी कम था ।।

Thursday 21 September 2023

पिछले दो हफ्तों से श्री विकास कुमार झा द्वारा लिखित पुस्तक "राजा मोमो और पीली बुलबुल "को पढ़ने में लगी हुई थी।देश के सबसे छोटे राज्य गोवा के विषय में इसे एक उत्कृष्ट पुस्तक के रूप में जाना जा सकता है। बचपन से लेकर इस किताब को पढ़ने तक गोवा के विषय में मेरी धारणा कुछ अलग किस्म की थी ।ज्यादातर लोग इसे नशाखोरी और हिप्पियों के अड्डे के रूप में ही जानते हैं लेकिन जब हम गोवा को किसी गोअन की दृष्टि से देखते हैं तो उसके एक अलग रूप से परिचित होते हैं।
    "मारियो मिरांडा "  गोवा के लौटोलिम गांव में रहते थे वो Times of India prakashn से बतौर कार्टूनिस्ट जुड़े हुए थे ।अपने बेटे के मनिपाल ले जाने के क्रम में लेखक का गोवा जाना हुआ और गोवा में वो  विश्व प्रसिद्ध  कार्टूनिस्ट मारिया मिरांडा के आवास पर जाकर मिले । हालंकि मिरांडा उन दिनों अपने दो दोस्तों के गुजर जाने से काफी दुखी थे लेकिन फिर भी उन्होंने श्री झा को अपना समय दिया।जब श्री मिरांडा ने जाना कि श्री झा ने कई उपन्यास लिखे हैं तो उन्होंने उनसे गोवा के विषय में लिखने को कहा उनका कहना था कि हर लिहाज से खुशगवार गोवा आज एक अलग तरह की समस्या से जूझ रहा है और वो है मोटापा । इस मोटापा के कारण उनका जीना मुश्किल है क्योंकि वे अपने दैनिक काम करने से भी लाचार हैं। महिलाओं में ये बीमारी अधिक देखी जा रही हैं लेकिन पुरुष और बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। गौर करने वाली बात ये है कि श्री झा के मिलने के कुछ दिनों के बाद ही श्री मिरांडा का निधन हो गया।इस दौरान श्री झा का अनेकों बार गोवा जाना हुआ और श्री मिरांडा से किया गया वायदा उन्हें बार बार याद आता रहा।इसी दौरान उनकी मुलाकात एक बेकरी चलाने वाली मां बेटी से हुई । दोनों ही अत्याधिक मोटापे से ग्रस्त थी लेकिन मां कई सालों से 24घंटे  बिस्तर पर ही रहने को लाचार थी ।श्री झा को श्री मिरांडा से किया गया वायदा याद आ गया और उन्होंने उनसे उनपर लिखने की अनुमति मांगी।कुछ झिझक के बाद उन्होंने नाम बदलने की शर्त पर इसकी अनुमति मांगी। 
सैंड्रा और उनकी मम्मी मिनि पर आधारित कहानी काफी रोचक है ।इस क्रम में आप कई बार उनके दर्द से भावुक हो जाते हैं। घटनाक्रम कुछ ऐसी होती हैं कि घर के ठीक बगल में "सैंड्रा फिटनेस सेंटर" के नाम से एक जिम खुल जाता है। पूर्वाग्रह से ग्रसित सैंड्रा इसे अपना मजाक बनाना समझती है जबकि यथार्थ कुछ और ही होता है। गोवा में चार दिनों तक चलने वाला कार्निवाल फेस्टिवल में किंग मोमो जो सैंड्रा का बचपन का साथी है वो उसे एक मनचाहा प्रिंस के पाने की दुआ देता है लेकिन अपने उम्र के चालीसवे साल में पहुंची अविवाहित सैंड्रा जिंदगी के प्रति  बिल्कुल हताश है लेकिन किंग मोमो की दुआ के अनुसार उसकी बुआ के द्वारा भेजा गया एक मेहमान विटामियो उसके सपनों का राजकुमार होता है जो उसकी जिंदगी की हर परेशानी का समाधान करता है ।
इस कहानी के साथ साथ चेरिल ,नेहरू पिमेटा , विश्वसुंदरी रीता फारिया और कई और किरदारों की कहानी से भी आप रूबरू होते है। लेखक श्री झा गोवा के साथ साथ पुर्तगाल के इतिहास के अच्छे जानकार हैं ये  बात इस किताब को पढ़कर आप अच्छी तरह से समझ सकते हैं। जनसाधारण गोवा के क्रिसमस और नए साल के जश्न को ही जानता है लेकिन इसे पढ़ने के बाद ही आप गोवा के ऐसे वसंत ऋतु से वाकिफ होते हैं जिसमें कार्निवाल फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है जिसमें किंग मोमो के रूप में एक प्रतिनिधि का चुनाव किया जाता है जिसे देखने के लिए पूरी दुनिया के लोग आते हैं।छोटी सी पीली बुलबुल गोवा की राजकीय पक्षी है। विगत दो हफ्तों से मैं इस किताब को पढ़ते हुए वहां की सामाजिक और भौगोलिक क्षेत्र को जानते हुए गोवा के काफी करीब पहुंच गई । पुर्तगालियों ने मिट्टी और नदी के भविष्य को सोच कर ब्राजील की तरह गोवा में भी काजू की खेती शुरू करवाई वे जानना  भी काफी दिलचस्प है।काजू ,बादाम और धान के फसलों से भरपूर गोवा मेहनती किसानों से भी भरा हुआ है जो कई गांवो में हिंदु बहुसंख्यक के रुप में हैं ।जब आप इस तरह की किताब को पढ़ते हैं तो इसे एक झटके में किसी सामान्य उपन्यास की तरह नहीं पढ़ सकते हैं बल्कि इसे कोर्स की किताब की तरह समझकर पढ़ना श्रेयस्कर होता है। 
 

Tuesday 15 August 2023

आज सुबह की सैर से लौटते हुए एक घर को टूटते हुए देखा। कई महीनों से ये घर खाली पड़ा था सुनने में आया था कि ये घर अपार्टमेंट के लिए किसी बिल्डर को दे दिया गया है।इस घर में एक प्रोफेसर साहब रहा करते थे और उनकी वाइफ बच्चों की ट्यूशन लिया करती थी संयोगवश दोनों बेटियों के पढ़ाई के सिलसिले में मैं अक्सर उनसे मिलती रहती थी तो हमारा संबंध काफी घरेलू बन गया था। सच कहूं तो एक बार में अच्छा नहीं लगा देख कर ,किसी भी घर से बहुत सी यादें जुड़ी होती है न जाने कितनी बार टीचर्स डे के मौके पर इस घर के छोटे से बरामदे ने स्टेज की भूमिका निभाई थी और इसी घर में न जाने कितनी ही बार मैडम से मैंने किशोरवय बच्चों की पढ़ाई के साथ साथ  कई अन्य मसलों पर सलाह भी ली, ये तो  एक निजी मकान है वैसे बुरा तो उस वक्त भी लगा था जब मैंने R block के सरकारी घर को तोड़ कर नई इमारतें बनते हुए देखा ।पापाजी (ससुर ) सरकारी नौकरी में थे और उन्हें R block का बड़े से कंपाउंड वाला सरकारी क्वार्टर मिला था उसी घर से परिवार की कई शादियां हुई मेरी  दोनों बेटियों  का बचपन भी  उसी घर में गुजरा । उसी तरह प्रोफेसर साहब काफी दिनों से वहां रहते थे तो जाहिर सी बात है कि बेटे और बेटी की शादी भी उन्होंने उसी घर से किया था ।समय बीतता गया उनके दोनों बच्चे अपनी अपनी जिंदगी में सेट हो गए ।बाद के वर्षों में जब भी मेरी बेटियां आती लगभग तब ही उनके साथ मैं भी उस परिवार से मिल पाती और कई बार मैडम को बढ़ती उम्र और घरेलू परिचायको की अनियमितता के कारण घर की साफ सफाई और रख रखाव के लिए परेशान देखती ।
   वहीं रांची में मेरे  पापा के जाने के बाद मां का  घरेलू सहायिकाओ के सहारे रहने के कारण हम तीनों भाई बहनों का रांची जाने का क्रम बढ़ गया है और वहां की हर यात्रा में कॉलोनी का हर तीसरा मकान तोड़ कर नया बनता दिखाई देता है। धीरे धीरे वहां की कॉलोनी के अमूमन सभी के बच्चे नौकरी और शादी  के सिलसिले में बाहर निकल गए हैंऔर बूढ़े माता पिता जो अपने पुराने लेकिन शौक से बनवाए मकान में रहते हैं ।यह स्थिति कमोवेश प्राय हर जगह पर देखी जा सकती है । इस मामले में जिनकी दूसरी पीढ़ी संयोगवश माता पिता के साथ में रहती है उनके साथ इस तरह की समस्या नहीं आती ।  
अब अगर इसी विषय को बेटे बेटियों की ओर से सोचा जाए तो उनके लिए ये समस्या काफी बड़ी है क्योंकि विवाह , परिवार और नौकरी  के कारण उन्हें माता पिता को छोड़ कर  दूर जाना ही पड़ता है और धीरे धीरे उनकी व्यस्तता बढ़ती जाती है नतीजन वो छोटी बड़ी बातों के लिए आ नहीं पाते है ,वहीं मकान को भी पुराने होने के बाद बार बार मरम्मत की ज़रूरत होती है ।इसके साथ ही कोई भी बड़ा घर बाद के वर्षों में बुजुर्गो के लिए रख रखाव के साथ साथ सुरक्षा के लिहाज से भी परेशानी का कारण बन जाता है। ऐसे में हाल के वर्षो में अपार्टमेंट बनाने वाले बिल्डरों के द्वारा लोगों के सामने एक अच्छा  विकल्प रखा गया है भले ही कुछ लोगों को खुले और बड़े से घर में रहने के बाद फ्लैट में रहना पसंद नहीं आता है लेकिन जहां तक मैं सोचती हू व्यवहारिक दृष्टिकोण से इस मसले पर सोचा जा सकता है। जहां अपार्टमेंट्स आपको आपकी जरूरत के हिसाब से कई सुविधाएं देता है  वहीं सुरक्षा के लिहाज से भी विचारणीय है। 
तो बदली हुई परिस्थितियों के साथ बदलना कई बार अच्छा फैसला होता है वैसे भी हमारे मिथिला में कहावत है "नब घर उठे पुरान घर खसे" ।
 
   

Monday 15 May 2023

कल का दिन माताओं के नाम था । मां तो मां होती है फिर चाहे वो इंसान के रूप में हो या संसार के किसी भी प्राणी के रूप में।
पिछले कुछ दिनों से मेरी बड़ी बेटी जो बैंगलोर में नौकरी के सिलसिले में पिछले डेढ़ सालों से रह रही है बेहद खुश और व्यस्त रहती थी ।वैसे आज कल के बच्चे अपने काम में इतने तल्लीन रहते हैं कि उन्हें  मशीनी जिंदगी जीने की आदत हो जाती है। खैर,बेटी की खुशी का राज यह था कि उसके फ्लैट के बालकनी के हैंगिंग  इनडोर प्लांट में दो  बुलबुलों ने घोंसला बनाना शुरू किया था।धीरे धीरे जैसे जैसे उन पखेरुओ का गृह निर्माण का काम आगे बढ़ता गया  बेटी के साथ साथ हमारी उत्सुकता बढ़ती गई । सफ्ताहांत में दिन में कई कई बार हम वीडियो कॉल के जरिए पहले घोंसले और बाद में उन दो अंडो को देखते। स्कूली कक्षा में पढ़ी कहानी "रक्षा में हत्या" के कारण मैंउसे यथासंभव घोंसले से दूर रहने की सलाह देती । धीरे धीरे उसका घर नन्हें खेचरों की चहचहाहट से भर गया।उसकी दिनचर्या में उनकी उपस्थिति अनिवार्य हो गई और कभी नजदीक जाने पर उनकी छोटी सी मां उसे अपनी चहचहाट से दूर करने का प्रयास भी करती ।अक्सर मेरे  दोनों बच्चे मुझसे पूछते कि एक बार घोंसले से निकलने के बाद क्या फिर वो अपनी मां को पहचान पाएंगे ? और इसी तरह की कई बातें हमारे टेलीफोनिक वार्ता का हिस्सा बन चुकी थी।
इस कहानी का अंत शायद अत्यंत सुखद होता अगर परसों बहुत सुबह बेटी का जोर जोर से रोता हुआ फोन मेरे पास नहीं आता । कुछ देर रोने के बाद जब उसने बताया कि कौवे ने घोंसले में मौजूद दोनो बच्चों को मार दिया और उनकी मां उन्हें बचा नही पाई। अपनी सुबह की नींद को कोसती बेटी लगातार रोती जा रही थी ।
    शायद यही प्रकृति का नियम है जिसके अनुसार हर क्षेत्र में कमजोर ,ताकतवर के द्वारा शोषित होता है ,मेरे पास इन शब्दों में उसे दिलासा देने के अलावा दूसरा कोई वि
वैसे अगर सच कहूं तो मुझे बेटी को समझाने के लिए कहे गए अपने  ही शब्द बेहद खोखले लगते हैं  क्योंकि कमजोरों और निरीहों को दबाने की प्रवृत्ति क्या प्रकृति तक ही सीमित है ?
 

Thursday 4 May 2023

इन दिनों मेरे पति के इंटीरियर वर्क्स के काम के सिलसिले में एक नए बढ़ई को देख रही हूं। अपने काम में निपुण उस बढ़ई की भाषा  सहज में समझ नहीं आती है जिसके कारण उसके साथी बढ़ई उसके बोलने की नकल करके उसका मजाक उड़ाया करते हैं। चूंकि अभी कुछ दिन पहले ही उसने आना शुरू किया है तो उसके और उसके परिवार से मैं अपरिचित हूं। 
जहां दिनभर वो अपना काम पूरी लगन से करता शाम के चार बजे से ही अपने औजार समेटने लगता जबकि दूसरे, सात से पहले जाने का नाम नहीं लेते ।इस विषय पर कितनी ही बार बोलने पर उसपर कोई असर नहीं होता।  कल फिर जब वो साढ़े चार के लगभग घर जाने के लिए बिल्कुल तैयार हो था तो मैंने उससे पूछा कि "आप कहीं दूसरी जगह भी काम करते हैं क्या ? 
नहीं ! सिर हिला कहा ।
फिर ?
शादी के पंद्रह साल के बाद बेटी हुई है, अभी अभी उसने बोलना शुरू किया है और शाम होते ही सो जाती है। शरमाते हुए उसने बताया।
अच्छा ! मैंने रुचि दिखाते हुए कहा।
क्या बोलती है ?
पापा ! और बिल्कुल साफ बोलती है मेरी तरह नहीं !
 छोटी सी बेटी की साफ बोली ने उसके जिंदगी भर के हीन भाव पर एक मलहम का काम किया । 
जेहन में याद आ गई फिल्म कोशिश का  वह दृश्य जब संजीव कुमार और जया भादुड़ी एक मूक वधिर माता पिता की भूमिका में थे और बच्चे के न सुनने से परेशान हो गए थे। 
फिर बेटी के  पिता का "पापा जल्दी आ जाना" की डोर पर खींचा जाना मेरे चेहरे पर मुकुराहट लाने के लिए काफ़ी था।



 

Friday 14 April 2023

सतुआइन

आज सतुआइन है आज के दिन  हमारे मिथिला में सत्तू ,बेसन की कढ़ी,सहजन और दालपुरी आदि खाने की परंपरा है। आज जिन खाद्य पदार्थों को हम ताजे रूप खाते हैं उन्हीं को कल के बासी खाने का भी रिवाज है अर्थात् कल के दिन चूल्हे को आराम दिया जाता है जिसे आम भाषा में जुराने का नाम दिया जाता है।जिस चूल्हे ने सालभर हमें अपनी निर्विघ्न सेवा  दी उसे निर्जीव होते हुए भी जुराया जाता है। वैसे अब तो हमारी नई पीढ़ी पूरे साल ही  पिज्जा, बर्गर के रूप में बासी खाना खाती  है।
इन खाने पीने के साथ आज के दिन अपने साथ साथ अपने पूर्वजों के लिए भी  सत्तू ,घड़ा और  पंखा दान करने की परंपरा है। पिछले चार सालों में मैंने पहले अपने पापा ,फिर सासु मां और फिर ससुरजी को खो दिया। संयोगवश अंतिम दिनों में तीनों को ही परहेज के तौर पर डॉक्टर ने मात्र एक से डेढ़ लीटर पानी पीने को कहा था जिसमें दाल,दूध और चाय की मात्रा को शामिल किया जाना था । जो गर्मी क्या जाड़े में भी काफी कष्टप्रद थी ।बहुधा मैं उन्हें तयशुदा पानी से ज्यादा पीने पर टोक  दिया करती  थी। आज तीनों ही हमारे बीच नहीं है और  अब वे जहां कहीं भी होंगे उनके लिए कोई भी वर्जना नहीं होगी   ।हमारे इन्हीं पूर्वजों के लिए उनके संतानों को  इस तरह के दान का प्रावधान सुकून देता   है।कहते हैं कभी औरंगजेब के अत्याचारों से दुखी होकर पिता शाहजहां  ने हिंदू जाति का हवाला देकर कि धन्य है हिंदू धर्म जो अपने मरे पूर्वजों को भी पानी देता है और.......
"आज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सिखाऊं,कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं "
सुदामा नहीं रहा ! पिछले लगभग सात दिनों से ये बात हमारे गली ,चौक और हर मिलने वाले के मुंह पर था और जिसने भी सुना अरे कैसे ! पिछले छह महीनों से बीमार था न । ओह बेचारा ! सभी ने एक अफ़सोस जरूर जाहिर की  लेकिन अफसोस के साथ प्राय  सभी ने कहा दोनों लड़के तो दिख ही रहे हैं लगातार प्रेस करते हुए दिख ही रहे हैं।
अरे आप भी न ! इन लोगों का क्या  ! व्यंग्य के साथ बात खत्म हो गई।
          अब बात सुदामा की ।कौन था ये सुदामा ? तो सुदामा हमारे अपार्टमेंट की गेट की बगल में कपड़ा प्रेस करने वाले का नाम था । जो लगभग पच्चीस वर्षों से कपड़ों को प्रेस करने का काम करता था । जगह मिलने की आस पर कई सालों तक हमारे अपार्टमेंट के साथ साथ बगल अगल के कई अपार्टमेंटों में गुजारिश करता रहा लेकिन जगह नहीं देने की हालत में हार कर  यहां वहां सड़क के किनारे ,पेड़ के नीचे अपनी चौकी ,चूल्हा लेकर खुशी खुशी अपनी दुकान चला रहा था। उसकी सुबह पांच बजे हो जाती जो रात के दस बजे तक चलती । न भीषण ठंड को उसने माना न ही चिलचिलाती धूप ।  कोरोना में जब रोड बिल्कुल सुनसान सुदामा की आवाज सुनाई देती ही रही  । घर से कहीं निकलते  वक्त गार्ड  चाहे गाड़ी को गेट से निकलते वक्त नहीं रहे ,सुदामा गाड़ी के दिशा निर्देश को तत्पर ।हर आने जाने वालों को टोकता सबके हाल चाल लेता ।
अब बात आती है उसके मौत पर हुए उसके बेटों की , जो मातमपुर्सी करने की जगह तीसरे दिन से ही प्रेस करने में जुटे हुए हैं। तो अलग अलग संप्रदाय में इसके अलग अलग तरीके बताए गए हैं ।हमारे मिथिला में माता पिता के मरने के बाद मासिक छाया करने का प्रावधान है और पांच वर्षों तक बरखी को श्राद्ध कर्म की तरह किया जाता है ।जो अन्यत्र कहीं सुनने में नहीं आया। इसी प्रकार कहीं कहीं पुण्यतिथि के अवसर पर शांति सभा या दरिद्र भोजन करवाने की बात भी सुनने में आती है।
      लेकिन जब सुदामा के बेटों को देखती   हूं तो यशपाल की लिखी कहानी "दुःख का अधिकार" की याद आती है जिसमें किसी के परिवार को अपने परिजन की मौत पर भी शोक मानने का अधिकार इंसान के आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है । यहां किसी जाति या संप्रदाय का होना किसी श्राद्ध कर्म को प्रभावित नहीं करता है जितना कि उसकी आर्थिक स्थिति का । याद आती है पिछले नवंबर में ससुराल के गांव  की । जहां एक बिजनेस करने वाले  के वयोवृद्ध  पिता की मृत्यु हो गई तो उसके क्रिया कर्म के लिए  स्पेशल ऑर्डर के द्वारा पूर्णिया के गुलाब बाग से  दो ढाई  मन चंदन की लकड़ियां मंगाई गई ,दस दस डीजे के साथ धूम धाम से उनका अंतिम संस्कार किया गया।लगातार दस दिनों तक पूरी बस्ती को खिलाया जाता रहा और बारहवीं के दिन इलाके के तमाम प्रतिष्ठ लोगों के साथ  बीस हजार लोगों को खिलाया गया । 
कहने का मतलब यह है कि माता पिता के मरने पर दुःखी हर व्यक्ति होता है लेकिन इस मृत्यु पर होने वाला श्राद्ध कर्म या कोई भी मृत्यु भोज मात्र एक श्रद्धांजलि है जो व्यक्ति विशेष की परिस्थिति पर निर्भर करता है । पहले भी इन विषयों पर टीका टिप्पणी की जाती रही है और भविष्य में भी होती ही रहेगी ।तो इनकी इतनी विवेचना हो कि साहिर लुधियानवी के शब्दों में कहा
"ये महलों ,ये ताज़ो ,ये तख्तों की  दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो 
आज सतुआइन है आज के दिन  हमारे मिथिला में सत्तू ,बेसन की कढ़ी,सहजन और दालपुरी आदि खाने की परंपरा है। आज जिन खाद्य पदार्थों को हम ताजे रूप खाते हैं उन्हीं को कल के बासी खाने का भी रिवाज है अर्थात् कल के दिन चूल्हे को आराम दिया जाता है जिसे आम भाषा में जुराने का नाम दिया जाता है।जिस चूल्हे ने सालभर हमें अपनी निर्विघ्न सेवा  दी उसे निर्जीव होते हुए भी जुराया जाता है। वैसे अब तो हमारी नई पीढ़ी पूरे साल ही  पिज्जा, बर्गर के रूप में बासी खाना खाती  है।
इन खाने पीने के साथ आज के दिन अपने साथ साथ अपने पूर्वजों के लिए भी  सत्तू ,घड़ा और  पंखा दान करने की परंपरा है। पिछले चार सालों में मैंने पहले अपने पापा ,फिर सासु मां और फिर ससुरजी को खो दिया। संयोगवश अंतिम दिनों में तीनों को ही परहेज के तौर पर डॉक्टर ने मात्र एक से डेढ़ लीटर पानी पीने को कहा था जिसमें दाल,दूध और चाय की मात्रा को शामिल किया जाना था । जो गर्मी क्या जाड़े में भी काफी कष्टप्रद थी ।बहुधा मैं उन्हें तयशुदा पानी से ज्यादा पीने पर टोक  दिया करती  थी। आज तीनों ही हमारे बीच नहीं है और  अब वे जहां कहीं भी होंगे उनके लिए कोई भी वर्जना नहीं होगी   ।हमारे इन्हीं पूर्वजों के लिए उनके संतानों को  इस तरह के दान का प्रावधान सुकून देता   है।कहते हैं कभी औरंगजेब के अत्याचारों से दुखी होकर पिता शाहजहां  ने हिंदू जाति का हवाला देकर कि धन्य है हिंदू धर्म जो अपने मरे पूर्वजों को भी पानी देता है और.......
"आज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सिखाऊं,कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं "
आज सतुआइन है आज के दिन  हमारे मिथिला में सत्तू ,बेसन की कढ़ी,सहजन और दालपुरी आदि खाने की परंपरा है। आज जिन खाद्य पदार्थों को हम ताजे रूप खाते हैं उन्हीं को कल के बासी खाने का भी रिवाज है अर्थात् कल के दिन चूल्हे को आराम दिया जाता है जिसे आम भाषा में जुराने का नाम दिया जाता है।जिस चूल्हे ने सालभर हमें अपनी निर्विघ्न सेवा  दी उसे निर्जीव होते हुए भी जुराया जाता है। वैसे अब तो हमारी नई पीढ़ी पूरे साल ही  पिज्जा, बर्गर के रूप में बासी खाना खाती  है।
इन खाने पीने के साथ आज के दिन अपने साथ साथ अपने पूर्वजों के लिए भी  सत्तू ,घड़ा और  पंखा दान करने की परंपरा है। पिछले चार सालों में मैंने पहले अपने पापा ,फिर सासु मां और फिर ससुरजी को खो दिया। संयोगवश अंतिम दिनों में तीनों को ही परहेज के तौर पर डॉक्टर ने मात्र एक से डेढ़ लीटर पानी पीने को कहा था जिसमें दाल,दूध और चाय की मात्रा को शामिल किया जाना था । जो गर्मी क्या जाड़े में भी काफी कष्टप्रद थी ।बहुधा मैं उन्हें तयशुदा पानी से ज्यादा पीने पर टोक  दिया करती  थी। आज तीनों ही हमारे बीच नहीं है और  अब वे जहां कहीं भी होंगे उनके लिए कोई भी वर्जना नहीं होगी   ।हमारे इन्हीं पूर्वजों के लिए उनके संतानों को  इस तरह के दान का प्रावधान सुकून देता   है।कहते हैं कभी औरंगजेब के अत्याचारों से दुखी होकर पिता शाहजहां  ने हिंदू जाति का हवाला देकर कि धन्य है हिंदू धर्म जो अपने मरे पूर्वजों को भी पानी देता है और.......
"आज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सिखाऊं,कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं "

Monday 23 January 2023

पूस बीतते ही फिर से शादी ब्याह शुरू हो गए हैं और कार्ड्स आने लगे हैं लेकिन अब इन कार्ड्स के साथ आने लगे हैं एकल परिवार से संबंधित एक परेशानी। वैसे बहुतों को ये बातें शायद ही पुरानी लगें।
   आज किसी भी  परिवार में पूरे लगन में अगर  चार औपचारिक कार्ड्स आते हैं तो उनमें से दो Mr. &Mrs. के नाम से रहते हैं। इस परिस्थिति में वैसे दंपति जिनके छोटे बच्चे हैं और वे अपने  बच्चों के साथ शहरों में रहते हैं,शादी और समारोह के इस तरह आमंत्रण के कारण तनाव में आ जाते हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे इस तरह की परेशानी से कभी रूबरू नहीं होना पड़ा क्योंकि मैं हमेशा सौभाग्यवश अपनों के साथ ही रही तो बच्चे हमेशा मेरी अपेक्षा अपने दादा दादी के साथ खुश ही  रहते थे।इस संबंध में मेरी एक सहेली, जिनकी सासु मां का देहांत हो चुका है और साथ में वृद्ध ससुरजी रहते हैं,का कहना है कि बच्चों से भी अधिक समस्या  बुजुर्गो की हो जाती हैं क्योंकि नौनिहालों को छोड़कर आज कल के बच्चे तो वैसे भी कहीं भी जाना नहीं चाहते हैं लेकिन बुजुर्गों के पल्ले ये बात नहीं आती कि जब एकाध के आने से रोजाना के भोजन में फर्क नहीं पड़ता तो भोज भात में तो पच्चीस पचास लोग से क्या फर्क पड़ेगा ।ये बात अलग है कि उस समय के समारोह में दस लोगों के बराबर का खाना बर्बाद होना भी मामूली बात थी ।
   दूसरी तरफ अगर दूसरे पक्ष की ओर से देखा जाए तो शादी ब्याह अब प्राय होटलों या मैरिज हाल में होने लगे हैं जो काफी खर्चीले होते हैं ।किसी भी शादी का खर्च अब  हजारों में  नहीं बल्कि लाखों में होता है । पहले परिवार के लोग प्राय: एक साथ, एक ही घर या आस पास के स्थानों में रहा करते थे ,किसी भी समारोह को मिल जुल कर निपटा लिया करते थे ।वो समय ही ऐसा था जब घर ही नहीं बल्कि अगल बगल की औरतें मिलकर रसोई संभाल लेती थी और पड़ोसियों के घरों में आने जाने वालों को ठहराया जाता था । जबकि आज के परिवेश में joint family के टूटने , शिक्षा और रोजी रोटी के  प्रसार के कारण लोग काफी दूर हो गए हैं और किसी भी शादी या समारोह का भार कुछेक लोगों पर आ गया है जिसमें भोजन से लेकर रहने की जिम्मेदारी और तमाम कार्य उन्हें ही करना है जो  मात्र पैसों के बल ही हो पाता है तो समारोह में मेहमानों की संख्या को सीमित संख्या  करना लोगों की लाचारी बनती जा रही  है नतीजन पहले मजबूरी और बाद में प्रचलन के कारण हम इस तरह के आयोजनों के आदी होते जा रहे हैं।
 किसी भी नई व्यवस्था के अच्छे बुरे दोनों ही पक्ष होते हैं ।तो अगर इन समारोहों के बफे सिस्टम को देखा जाए तो इसमें खाने की बरबादी कम होने की गुंजाइश होती है साथ ही श्रम  और समय दोनों की काफी बचत होती है । रोज़गार के क्षेत्र में भी इस दिशा में अपार गुंजाइश है जो शायद  Event Management कहला रहा है।
तो बस भूल जाना होगा पुराने समय के उन समारोहों को जिसमें बड़े बड़े विराट बर्तनों में भोज भात का आयोजन होता था और थालियों में ना ना करने के बाद भी भाभी या चाची पूड़ी डाल देती थी । 
"छोड़ो कल की बातें......

Tuesday 3 January 2023

     सुबह रेडियो पर सुना कि स्वर्गीय सावित्री बाई फुले जी की आज  जन्मतिथि है एक ऐसी विलक्षण नारी जिन्होंने  1848में  तमाम विरोधों के बावजूद समाज में नारी शिक्षा का अलख जगाया। न केवल नारी शिक्षा बल्कि बाल विवाह , छुआ छूत और समाज में शामिल कई कुरीतियों का उन्होंने डट कर विरोध किया। आज भले ही इस तरह की बातें सहज मालूम होती हैं लेकिन उस समय किसी महिला के लिए इस तरह के सुधार  करना असंभव नहीं तो कठिन जरूर था ।
 यहां जब बात स्त्री शिक्षा की आती हैं तो जेहन  में कुछ ऐसी महिलाओं का नाम आता  है जिन्होंने  तमाम मुश्किलों को दूर करते हुए समाज में अपना स्थान बनाया। इस पोस्ट को लिखने से पूर्व यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि हमारा  मैथिल  समाज, स्त्रियों की शिक्षा के विषय में बरसों तक अनुदार ही रहा है। बाल विवाह के नाम पर हमसे एक पीढ़ी ऊपर  तक की महिलाओं की शिक्षा परंपरागत रूप से नाम गाम लिखने और विवाह के लिए खाना बनाने एवम अरिपन ,कोहबर  सीखने तक ही  सीमित थी । ऐसे में किसी परिवार में घर की बहु बेटियों  को उदार मायका या ससुराल पक्ष मिल जाए तो उनकी शिक्षा आगे बढ़ जाती थी। उदाहरण के तौर पर उस जमाने में हमारे दादाजी ने विवाह में  बहुओं के लिए  मैट्रिक पास होने को एक  आवश्यक प्रावधान बना दिया था । 
काबिलेतारीफ कह सकती हूं अपनी बुआ और सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती नीरजा रेणु को । जिन्होंने छोटी उम्र में विवाह और कई सामाजिक मुश्किलों का सामना करते अपने मुकाम को हासिल कर लिया ।भाइयों को पढ़ाने वाले शिक्षक को सुन कर शुरू की गई पढ़ाई ,जहां लोग हर छोटी बात में अपने नाम को लेकर बेहद सतर्क रहते हैं वहीं तत्कालीन सामाजिक स्थिति के कारण एक छदम नाम के जरिए साहित्य अकादमी पुरस्कार को हासिल करना निश्चय एक लंबी लड़ाई रही होगी । 
 यद्यपि वक्त के साथ हमारा समाज बदल गया है ।अब बेटियों को मात्र विवाह के लिए ही नहीं  मनचाहा कैरियर पाने के लिए पढ़ाया जाता है ।आज के माता पिता बेटियों को पढ़ाई के बीच में विवाह के लिए बाध्य नहीं करते हैं । अब हमारे समाज के लोग भी बेटियों की शिक्षा के खर्च को विवाह में किए गए खर्च की तरह आवश्यक समझते हैं । ये बदलाव न केवल  हमारे समाज में  बल्कि मेहनत करने वाले मजदूर वर्ग में भी  आ चुका है ।     स्त्रीशिक्षा के जरिए अपने जीवन स्तर को अच्छी बनाने की पहल शहर से लेकर गांव तक में शुरू हो चुकी है।