सुदामा नहीं रहा ! पिछले लगभग सात दिनों से ये बात हमारे गली ,चौक और हर मिलने वाले के मुंह पर था और जिसने भी सुना अरे कैसे ! पिछले छह महीनों से बीमार था न । ओह बेचारा ! सभी ने एक अफ़सोस जरूर जाहिर की लेकिन अफसोस के साथ प्राय सभी ने कहा दोनों लड़के तो दिख ही रहे हैं लगातार प्रेस करते हुए दिख ही रहे हैं।
अरे आप भी न ! इन लोगों का क्या ! व्यंग्य के साथ बात खत्म हो गई।
अब बात सुदामा की ।कौन था ये सुदामा ? तो सुदामा हमारे अपार्टमेंट की गेट की बगल में कपड़ा प्रेस करने वाले का नाम था । जो लगभग पच्चीस वर्षों से कपड़ों को प्रेस करने का काम करता था । जगह मिलने की आस पर कई सालों तक हमारे अपार्टमेंट के साथ साथ बगल अगल के कई अपार्टमेंटों में गुजारिश करता रहा लेकिन जगह नहीं देने की हालत में हार कर यहां वहां सड़क के किनारे ,पेड़ के नीचे अपनी चौकी ,चूल्हा लेकर खुशी खुशी अपनी दुकान चला रहा था। उसकी सुबह पांच बजे हो जाती जो रात के दस बजे तक चलती । न भीषण ठंड को उसने माना न ही चिलचिलाती धूप । कोरोना में जब रोड बिल्कुल सुनसान सुदामा की आवाज सुनाई देती ही रही । घर से कहीं निकलते वक्त गार्ड चाहे गाड़ी को गेट से निकलते वक्त नहीं रहे ,सुदामा गाड़ी के दिशा निर्देश को तत्पर ।हर आने जाने वालों को टोकता सबके हाल चाल लेता ।
अब बात आती है उसके मौत पर हुए उसके बेटों की , जो मातमपुर्सी करने की जगह तीसरे दिन से ही प्रेस करने में जुटे हुए हैं। तो अलग अलग संप्रदाय में इसके अलग अलग तरीके बताए गए हैं ।हमारे मिथिला में माता पिता के मरने के बाद मासिक छाया करने का प्रावधान है और पांच वर्षों तक बरखी को श्राद्ध कर्म की तरह किया जाता है ।जो अन्यत्र कहीं सुनने में नहीं आया। इसी प्रकार कहीं कहीं पुण्यतिथि के अवसर पर शांति सभा या दरिद्र भोजन करवाने की बात भी सुनने में आती है।
लेकिन जब सुदामा के बेटों को देखती हूं तो यशपाल की लिखी कहानी "दुःख का अधिकार" की याद आती है जिसमें किसी के परिवार को अपने परिजन की मौत पर भी शोक मानने का अधिकार इंसान के आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है । यहां किसी जाति या संप्रदाय का होना किसी श्राद्ध कर्म को प्रभावित नहीं करता है जितना कि उसकी आर्थिक स्थिति का । याद आती है पिछले नवंबर में ससुराल के गांव की । जहां एक बिजनेस करने वाले के वयोवृद्ध पिता की मृत्यु हो गई तो उसके क्रिया कर्म के लिए स्पेशल ऑर्डर के द्वारा पूर्णिया के गुलाब बाग से दो ढाई मन चंदन की लकड़ियां मंगाई गई ,दस दस डीजे के साथ धूम धाम से उनका अंतिम संस्कार किया गया।लगातार दस दिनों तक पूरी बस्ती को खिलाया जाता रहा और बारहवीं के दिन इलाके के तमाम प्रतिष्ठ लोगों के साथ बीस हजार लोगों को खिलाया गया ।
कहने का मतलब यह है कि माता पिता के मरने पर दुःखी हर व्यक्ति होता है लेकिन इस मृत्यु पर होने वाला श्राद्ध कर्म या कोई भी मृत्यु भोज मात्र एक श्रद्धांजलि है जो व्यक्ति विशेष की परिस्थिति पर निर्भर करता है । पहले भी इन विषयों पर टीका टिप्पणी की जाती रही है और भविष्य में भी होती ही रहेगी ।तो इनकी इतनी विवेचना हो कि साहिर लुधियानवी के शब्दों में कहा
"ये महलों ,ये ताज़ो ,ये तख्तों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हो