आज सतुआइन है आज के दिन हमारे मिथिला में सत्तू ,बेसन की कढ़ी,सहजन और दालपुरी आदि खाने की परंपरा है। आज जिन खाद्य पदार्थों को हम ताजे रूप खाते हैं उन्हीं को कल के बासी खाने का भी रिवाज है अर्थात् कल के दिन चूल्हे को आराम दिया जाता है जिसे आम भाषा में जुराने का नाम दिया जाता है।जिस चूल्हे ने सालभर हमें अपनी निर्विघ्न सेवा दी उसे निर्जीव होते हुए भी जुराया जाता है। वैसे अब तो हमारी नई पीढ़ी पूरे साल ही पिज्जा, बर्गर के रूप में बासी खाना खाती है।
इन खाने पीने के साथ आज के दिन अपने साथ साथ अपने पूर्वजों के लिए भी सत्तू ,घड़ा और पंखा दान करने की परंपरा है। पिछले चार सालों में मैंने पहले अपने पापा ,फिर सासु मां और फिर ससुरजी को खो दिया। संयोगवश अंतिम दिनों में तीनों को ही परहेज के तौर पर डॉक्टर ने मात्र एक से डेढ़ लीटर पानी पीने को कहा था जिसमें दाल,दूध और चाय की मात्रा को शामिल किया जाना था । जो गर्मी क्या जाड़े में भी काफी कष्टप्रद थी ।बहुधा मैं उन्हें तयशुदा पानी से ज्यादा पीने पर टोक दिया करती थी। आज तीनों ही हमारे बीच नहीं है और अब वे जहां कहीं भी होंगे उनके लिए कोई भी वर्जना नहीं होगी ।हमारे इन्हीं पूर्वजों के लिए उनके संतानों को इस तरह के दान का प्रावधान सुकून देता है।कहते हैं कभी औरंगजेब के अत्याचारों से दुखी होकर पिता शाहजहां ने हिंदू जाति का हवाला देकर कि धन्य है हिंदू धर्म जो अपने मरे पूर्वजों को भी पानी देता है और.......
"आज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सिखाऊं,कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊं "
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