मेरे घर में एक नियम है हम कही जाने या कही से आने पर अपने पूजा घर में भगवान् को १०- २० रुपये चढ़ाते है जिसे प्रणामी कहते है। आने जाने के अलावा किसी खास अवसर पर भी ये रकम चढ़ाई जाती है। मात्रा १०-२० रूपये की रकम चार पाँच महीने में ६०० से ७०० हो जाती है। जिससे पूजा की कोई सामग्री खरीद ली जाती है। ये एक छोटी सी बात है और हो सकता है ऐसा बहुत सारे घर में होता हो। यहाँ ध्यान देने की ये बात है कि मात्र एक घर के ६ -७ लोगो के द्वारा जमा की गयी रकम इतनी हो सकती है तो आप जरा अपने के आस पास के मंदिरों के बारे में सोचें। ये बात मैं शहर या अपने राज्य के बारे में कह सकती हूँ. किसी भी तरह से नास्तिक नहीं हूँ लेकिन मेरा कहने का अभिप्राय है की न जाने कितने लाचारों और गरीबो की आमदनी भगवान् के नाम पर पंडितों के हाथ में चली जाती है। देश के बड़े मंदिरो के बारे में कई बार समाचार में भी निकाले जाते है और इसकी चर्चा आम लोगों के बीच होती है। लेकिन इन् छोटे मन्दिरों की ओर तो किसी की नज़र भी नहीं उठती है. मैंने अपने इर्द गिर्द जितने मंदिरों को देखा है वहाँ जैसे जैसे मंदिर का परिसर संकीर्ण होता जाता है उसी अनुपात में पंडितो का घर फैलता जाता है। तारीफ़ की बात ये है की घर भगवान् का हो या पंडितो का दोनों ही सरकारी जमीं पर बने होते है। आज की तारीख में किसी मंदिर की स्थापना एक मुनाफे का सौदा है। अगर आप किसी मंदिर को उसके प्रारंभिक दौर से बनते हुए देखे तो आप पाएंगे कि ये लंबी प्रक्रिया है। पहले किसी पेड़ के नीचे किसी भी भगवान् की मूर्ति, एकाध त्रिशूल आदि रख दिया जाता है और समय के अनुसार (सावन या नवरात्रि के) धार्मिक गीत बज कर सजावट की जाती है. धीरे धीरे वहाँ लोगो का ध्यान जाता है और लोग वहाँ पैसे चढ़ाने लगते है जनमानस के मांग पर वहाँ कोई पंडित भी रहता है। इस प्रकार किसी भी जमीन पर आसानी से मंदिर की स्थापना हो जाती है। एक बार मंदिर या कोई अन्य धार्मिक इमारत के बनने के बाद उसे हटना प्राय असंभव हो जाता है क्योंकि यहाँ के लोग अन्य बातो में चाहे कितने भी उदारवादी बन जाए धार्मिक तौर पर बड़े कट्टर होते है।
Sunday 21 August 2016
Sunday 7 August 2016
फ्रेंडशिप डे
आज पूरी दुनिया फ्रेंडशिप डे मना रहा है। जब बच्चे छोटे थे तो एकाध सफ्ताह पहले से ही दर्ज़नों फ्रेंडशिप बैंड खरीदते थे और आने वाले चार पांच दिनों तक किस दोस्त का बैंड ज्यादा अच्छा है उसकी चर्चा होती और दोस्ती के रेटिंग के हिसाब से वो कलाई पर उतने दिनों तक बंधा रहता था। उसके लिए बच्चों को काफी डांट भी पड़ती थी । मैं ये मानती हूँ कि हमारे जीवन में एक समय ऐसा होता है कि सभी रिश्तेदारों से बढ़कर हमे दोस्त प्रिय हो जाते हैऔर हम अपनी सभी समस्याएँ उनसे साझा करना चाहते हैं।
हमारे मिथिला में फ्रेंडशिप को हम बहुत दिन से मानते आये है। इसके लिए कोई खास दिन तो नहीं होता था लेकिन वह दोस्ती लगाई जाती थी। चूँकि प्रायः संयुक्त परिवार का चलन था और जो भी नौकरी के सिलसिले में जो बाहर रहते थे उनका हर छुट्टियों में गांव आना प्रायः तय होता तो एक उम्र के भाई और बहन आपस में कुछ दोस्ती लगा लेती थी। ये दोस्ती बाकायदा माँ ,चाची ,मामी के सहयोग से होता था। इसमें दो छोटे बच्चे एक दूसरे को किसी मीठी चीज़ का आदान प्रदान करते थे और एक दूसरे से वादा करते थे की भविष्य में वे एक दूसरे को उनके नाम से नहीं किसी कॉमन नाम से पुकारेंगे। लड़कियों में ये कॉमन नाम गुलाब ,प्रीत ,मिलन ,फूल,दिल ,रोज और न जाने क्या क्या होते थे। वही लड़को में दोस्त ,मीत ,मित्र ,यार और बहुत कुछ । बस इसी को दोस्ती लगाना कहते थे।ये दोस्ती मात्र भाईयों और बहनों तक ही सीमित नहीं था बल्कि ये ननद भावज ,जिठानी देवरानी में भी प्रचलित था। शायद दोस्ती लगाने का मतलब रिश्तों में मिठास और नज़दीकी लाना होता हो।हमने जो भी दोस्ती लगाई वो इतनी छोटी उम्र में लगाई कि वो घटना मुझे याद नहीं लेकिन दोस्ती लगाने के साथ साथ हम भाई बहनों में झगड़े भी खूब होते थे अब तो वो रिश्ते इतने औपचारिक हो गए है कि झगड़ो का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे विचार से बचपन के वही झगड़े भविष्य के लिए ठोस नीँव का काम करती थी। अब की बात कहे तो हम इतने व्यस्त हो गए है कि अपने सहोदरो से मिले अरसा हो जाता है तो चचेरों और फूफेरों की बात कौन कहे। आज अगर मैं अपनी किसी बहन को फूल कहती हूँ तो मेरी ही बेटी पूछती है कि तुम मौसी को फूल क्यों कहती हो उनका नाम तो कुछ और है ?
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