Wednesday 30 August 2017

जब किसी बाबा का पर्दाफाश होते देखती हूँ तो मन में ये उम्मीद जगती है कि ये शायद बाबा 
देश के अंतिम बाबा हो जो जनता को बेवकूफ बना रहे हो ।दस दिन नहीं बीतते हैं कि फिर एक बाबा हाज़िर ।शायद लोगो में  अपनी समस्याओं का निदान जल्द   करवाने  की होड़  ही इन रक्तबीज बाबा को जन्म देती  है । लेकिन यहां मुझे ऐसा भी लगता है कि इन बाबा को भी मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जाता है और इनकी काली करतूतों के पीछे एक रैकेट होता है जो इतने बड़े स्तर पर धन ,वासना और भक्ति का जाल बिछाकर रखता है ।सोचने वाली बात यह है कि क्या  सिर्फ एक व्यक्ति इतना बड़ा साम्राज्य स्थापित कर सकता है ?

Sunday 13 August 2017

जब बचपन में किसी सहेली या भाई बहन से जोरदार लड़ाई हो जाती तो हमारे बड़े उस बात को खत्म करने के लिए कहते कि जिससे प्यार होता है  उसी से तो लड़ाई होती है ।सौभाग्यवश उस समय हमारे भाई बहनों में मात्र सहोदर की ही गिनती नहीं होती थी ।अर्थात भाई  बहनों की संख्या काफी होती थी ।एक बार फिर याद आती है जब गर्मी ,जाड़े या किसी के शादी विवाह के अवसर पर हम अपने ददिहाल जाते तो साधारणत माँ और चाची लोगों की परिधि रसोई तक होती और  बाहर के बरामदे पर पापा सभी भाई बहन आपस में बातचीत करते ।ये  बात चीत ,अकसर पॉलिटिक्स पर टिकी होती और कब ये तीखी बहस में बदल जाती उसका कोई  ठिकाना नहीं और एक अंततः पैर पटकता वहाँ से चला जाता लेकिन मुझे ये बात बिल्कुल ही समझ में नहीं आती थी कि कल जिन दो लोगों में इतनी बहस हुई या शायद उस क्षण उन्होंने एक दूसरे का मुंह जिंदगी भर नहीं देखने का फैसला किया वो दूसरे ही दिन इतने समीप कैसे हो गए कि साइकल उठाकर साथ साथ घूमने को  चले गए ! जहां तक रोजाना की बात है शादी होने के पहले तक हम तीनों(भाई बहन) के लड़ाई की भी कई बातें याद आती हैं । अब  उसी लड़ाई ने चिढ़ाने का रूप ले लिया है वो भी बस जरा सभ्यता से ।वो शायद इसलिए की तीनों की मुलाकात की अवधि काफी संक्षिप्त रहती है । शायद उसी चिढ़ाने या झगड़े के कारण हम आज भी  आपस में खुले हुए हैं ।ठीक यही स्थिति मैंने अपने ससुराल में भी पाया जहां काफी बड़ा परिवार , जब किसी भी विशेष पूजा या शादी विवाह के अवसर पर सभी जमा हुए घंटे दो घंटे में किसी एक या दो के बीच विवाद न हो ऐसा संभव नहीं और एक बार जब बात शुरू हो जाए तो फिर बात निकलेगी तो दूर चली जाएगी और परिणामस्वरूप घर वापस आने तक दोनों के मन में ढेर सारा गुस्सा ।लेकिन ये क्रोध दो चार दिनों में समाप्त और चाहे बात मेरे मायके की हो या ससुराल की जब तक अपनों के बीच तू तू मैं मैं होती रहीं आपसी बॉन्डिंग बनी रही अर्थात  छोटे मोटे झगड़ों के बाद भी हम एक दूसरे के दुख सुख से बंधे रहे ।आपसी दूरी तब बढ़ गई जब लोग औपचारिक हो गए और आपस मे बात चीत कुछेक अवसरो तक सिमट गया । तो अब  ये बात मुझे  हर कदम पर याद आती है कि जिससे प्यार होता है तकरार भी उसी से होता है ।तो मेरी ये सलाह है कि चाहे भाई बहन हो या पति पत्नी  आपस में बात करें झगड़े भी करें  औपचारिकता न बरतें ।बस यहां एक बात अत्यंत स्मरणीय हैं कि कोई भी चीज़ उस समय विष बन जाता है जब उसकी अति हो जाती फिर चाहे वो आपसी प्रेम हो झगड़ा ।

Wednesday 9 August 2017

शायद तीन चार दिन पहले पेपर में मुंबई के पॉश इलाके अंधेरी में रहने वालीआशा सहनी की लोमहर्षक मौत के बारे में पढ़ा ।उस दिन से आज तक ये घटना  सभी सोशल मीडिया पर छाई हुई है । कुल मिला कर देखा जाए तो दोषी कौन ? आशा सहनी का नालायक बेटा ।बेटों की नालायकता तो हम औरंगजेब और अजातशत्रु से लेकर कई घटनाओं में देखते आए हैं ।लेकिन क्या इस घटना के पीछे और कोई वजह नहीं ? ये जहां महानगर के खोखले चमक दमक के पीछे छुपी एक अंधकार की ओर इंगित करती है वहीं परिवार के अति संकुचित होने को भी दिखाता है ।ये बात तो सर्वविदित है कि हमारे समाज में सयुंक्त परिवार लगभग खत्म होने की कगार पर है और इसके ह्रास होने का सबसे अधिक खामियाजा बच्चे और बुजुर्ग ही भुगत रहे हैं ।परिवार का निजीकरण होना कोई गलत बात नहीं क्योंकि जब हम विकास की राह में पश्चिम को अपनाएंगे तो हमें अच्छा औऱ बुरा दोनों ही अपनाना होगा ।इसके साथ साथ परिवार के निजीकरण के और भी बहुत से कारण है ।बच्चों की कम संख्या ,शिक्षा का प्रसार और बहुत कुछ ।मैं इसे गलत भी नहीं मानती क्योंकि विकास और जन्म स्थान से बच्चों की दूर बस जाना कोई गलत नहीं ,गलत है लोगों के द्वारा समाज से बनाई गई दूरी ।हम में बहुत से लोग बच्चों की पढ़ाई , कैरियर और अपनी प्राइवेसी के कारण आत्मीय और समाज से एक अलिखित दूरी बना लेते हैं ।जब तक हम शारीरिक रूप से समर्थ हैं या पति पत्नी दोनों जीवित हैं हमें किसी तीसरे की उपस्थिति नागावर लगती है लेकिन दोनों में से किसी एक को पहले जाना है तो उसके बाद उस दूसरे की स्थिति दयनीय हो जाती है ऐसे में बेटा या बेटी अपने कैरियर में  सेट हो जाता है और जिसने बचपन से अपने माता पिता को मात्र अपने को अपने बच्चे तक ही सिमटा हुआ पाया था ,उसकी दुनिया भी अपने बच्चों तक ही रह जाती है और माता या पिता भी उसके लिए एक अवांछित सदस्य बन जाते हैं ।आप बस एक बार  सोच कर देखें कि क्या उक्त महिला का उस बेटा के अलावा मायके और ससुराल का  कोई आत्मीय नहीं था स्पष्टत उसकी दुनिया बस उसके बेटे तक ही सीमित थी हो सकता है कि शारीरिक और मानसिक  अस्वस्थता के कारण के वो अपने लोगों से दूर थी ।मैं नहीं जानती कि उस परिवार का  समाजिक दायरा कैसा था लेकिन आर्थिक रूप से  मजबूत होने के बाद भी बेटा भी अपनों से बहुत अलग था ।इस संदर्भ में मुझे कुछ साल पहले की एक घटना याद आती है जब मैं अपने पति के गॉलब्लेडर के स्टोन के ऑपरेशन के लिए एक निजी नर्सिंग होम गई थी ।वहां एक पेशेंट के ऑपरेशन की जमा की गई रकम इसलिए वापस कर दी गई क्योंकि उसके साथ कोई अटेंडेंट नहीं था जहां वो डॉक्टर और दूसरे स्टाफ़ को अपनी ओर से पूरी सफाई देने में लगा था कि मुझे किसी की जरूरत नहीं मैं अकेला काफी हूँ ! लेकिन ये बात तो लाखों वर्ष पुरानी है ," मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना रहने वाले मनुष्य की तुलना देवता या दानव से की जाती है "।इस घटना से डरने की नहीं सीखने की जरूरत है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या , अपने परिवार और बच्चों के अलावा की दुनिया से भी जुड़ने की कोशिश करें ।