Monday 4 November 2019

मेरी एक परिचिता का कहना है कि हर पति या पत्नी को चाय जरूर पीनी चाहिए क्योंकि इसी चाय के बहाने दोनों एक साथ बैठते हैं और आपस में बात चीत होती रहती है ।  ये बात  चाहे मजाक में कही गई हो या स्वास्थ्य के लहजे से बिल्कुल गलत हो लेकिन अगर इस बात के सकारात्मक पहलू की ओर से सोचे तो यकीकन  इसके पीछे की मूल बात है कि आपसी रिश्तों में संवाद का महत्व । इस विषय में जनसाधारण की सोच मैं नहीं जानती लेकिन
इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि आज के समय में लोगों में  संवादहीनता ने एक बड़ी समस्या का रूप ले लिया है । आज मैंने पेपर में श्री एन रघुरामन का पोस्ट पढ़ा जिसमें उन्होंने मुंबई के लोकल ट्रेन की बात रखी थी जहाँ लोग अपने मोबाइल में इतने तल्लीन थे
कि न तो वे आने वाले स्टेशनों के बारे में कुछ जान रहे थे और न ही अपने अगल बगल यात्रियों को देख पा रहे थे ।मुंबई तो मायानगरी है और वहां के इस तरह का बर्ताव की आशा हम सुनते आए हैं लेकिन मैंने ऐसा महसूस किया है कि आज रिश्तों में औपचारिकता बढ़ती जा रही हैं । विवादों से बचने या कई अन्य कारणों से लोगों में बात करना बहुत कम होता जा रहा है।  पहले की तरह अब शायद रिश्तों की गरमाहट घटती जा रही है ।काफी हद तक इसके लिए मोबाइल को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है लेकिन इस तरह के व्यवहार के लिए मोबाइल भी एक कारण हो सकता है लेकिन  इसे भी शत प्रतिशत दोषी नहीं माना जा सकता है क्योंकि  होने वाले विकास का अच्छा और बुरा दोनों ही प्रभाव होता है और इसी के द्वारा हम संबंधों को खत्म करने की बजाय बढ़ा भी सकते हैं । अगर किसी को ये लगता है कि अगर हम किसी से बात न करें तो इससे हम होने वाले बहस या मतभेद से बच सकते हैं तो मुझे तो ये लगता है कि इस प्रकार की चुप्पी से मतभेद और बढेंगे ।एक ही घर में रहने के बाद भी एक दूसरे से औपचारिक तौर से मिलना या फिर कई बार महीनों  या सालों बाद मिलने पर भी रिश्तों में गंभीरता।निश्चित रूप से इस तरह की संवादहीनता अच्छी नहीं कही जा सकती है ।पश्चिमी देशों की अंधी दौड़ में अपने पारिवारिक संस्कार को छोड़ना हर एक मसले पर सही नहीं कह सकते । जब हम आपस में खुशियां ,तनाव और मुश्किलों को साझा नहीं करेंगे तो निश्चय ही कई मानसिक और शारीरिक व्यधियों का शिकार बनेंगे । आपस में कहकहे न लगा कर योगासन के रूप में झूठे ठहाकों का साथ हमें खुशी नहीं दे सकता । बात करें ,खूब हँसे और अगर  किसी तरह की शिकायत है तो उसे खत्म करें वो चाहे बहस करके हो या झगड़े से लेकिन किसी भी तरह से आपस की संवादहीनता को अपने बीच नहीं आने दे।

Tuesday 1 October 2019

अगर हम अपने आप को इतिहास में ले जाए तो जरा याद करें मुंशी प्रेमचंद की कहानी "शतरंज के खिलाड़ी " को। जिक्र है उसमें अवध के दो नवाबों  का और उस समय की सामाजिक स्थिति का। एक पंक्ति कि अगर भिखारी को दो पैसे मिलते थे तो वो रोटी न खा कर अफ़ीम खरीदना ज्यादा पसंद करता था। भले ही ये कहानी काल्पनिक थी पर कमोबेश यही स्थिति इस समय की अर्थव्यवस्था की कही जा सकती है उस समय सभी लघु और कुटीर उद्योगों को इंग्लैंड की कंपनी बर्बाद कर रही थी आज उनका स्थान मल्टी  नेशनल कंपनियों ने ले लिया है। देश में बेरोज़गारी अपने चरम सीमा पर पहुँच रही है पिछले दिनों लगतार ऑटो मोबाइल कंपनियां छटनी कर रही है। वही दूसरे नंबर पर इसका शिकार textile industry है इस सबंध में अगर nitma (north india textile mills association की माने तो २०१९ के अप्रैल जून में ३४% सूती यार्न की गिरावट आई और ३५० करोड़ अमरीकी डॉलर का नुक्सान हुआ। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इस उद्योग की अतिरिकत सहायता के बजाय २०१८ -१९  में बजट घटा कर ६९४३ करोड़  से घटाकर ५८३१ करोड़ कर दिया। गौर तलब है कि भारत में  खेती के बाद ये सबसे ज्यादा नौकरी देने वाला क्षेत्र है। पिछले दिनों एक  आंकड़े के मुताबिक २०१८-२०१९ में   INNERWEAR  का कारोबार अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुका  है UNDERGARMENTS बेचने वाली चार शीर्षस्थ कंपनियों का जून तिमाही का प्रदर्शन एक दशक के सबसे निचले दौर पर है। जॉकी जैसे मँहगे  ब्रांड से लेकर लोकल अंतर्वस्त्र बनाने वाले भी इससे अछूते नहीं है। सभी अर्थशास्त्री  और  बुध्धिवेटा देश की भोजन वस्त्र और आवास जैसे मूलभूत जरूरत पर अपनी चिंता जाहिर कर इसका समाधान के लिए मीटिंग और रिपोर्ट्स तैयार कर रहे होते है तभी AMAZON नाम की एक विदेशी कंपनी जो की लोगो को ऑनलाइन सेवा प्रदान करती है उसने अपनी AMAZON  GREAT INDIAN FESTIWAL SALE की घोषणा करती है उसमे और तो और मोबाइल के दामों में भारी  गिरावट का ऐलान  किया जाता है और इसके साथ उसी रोटी के बदले अफीम खरीदने पर फिर से भारतीय आमादा हो जाते हैं। मोबाइल को इंडिया लाने की बात पर स्वर्गीय धीरू भाई अम्बानी ने देश से पोस्ट कार्ड बंद करने की बात कही थी लेकिन शायद आज उनकी आत्मा धन्य हो गयी हो क्योंकि  आज भारतीयों ने अपने अंतर् वस्त्र का त्याग कर मोबाइल को चुनना ज्यादा पसंद किया है

Sunday 22 September 2019

पिछले कुछ सालों में हमारे देश की शिक्षा के मद में खर्च की बेहताशा वृद्धि हुई है । देश के शीर्ष कहे जाने वाली संस्थानों के फीस के बारे में कोई भी मध्यम वर्गीय  अभिभावक सोच भी नहीं सकता । लॉ के क्षेत्र में शीर्षस्थ clat  की फीस करीब करीब  10 से 12 लाख के अधिक हैं । ये आंकड़ा ऊपर के nlu के हैं ।निचले स्तर के nlu की फीस काफी अधिक हैं। nlu क्या हैं और इसकी स्थापना के पीछे सरकार के क्या उद्देश्य थे ? अगर 1940 से 50 तक देखा जाए तो लॉ या वकालत की पढ़ाई  हमारे समाज की मुख्य धारा में शामिल था और हमारे सभी मुख्य नेता इसकी पढ़ाई के लिए विदेश गए थे । बाद में लोगों ने इसकी पढ़ाई के लिए देश के कुछ चुनिंदा कॉलेज यथा ILS Pune,GLC mumbai  और   BHU Banaras आदि  को चुना ।बाद में लोकल यूनिवर्सिटीज में भी लॉ की पढ़ाई शुरू हो गई  लेकिन इन यूनिवर्सिटीज  के अच्छे पढ़ाई नहीं होने के कारण लॉ की पढ़ाई का स्तर बिल्कुल नीचे चला गया और इस तरह की पढ़ाई से  पढ़े हुए विद्यार्थियों के कारण हमारे कोर्ट  भी निम्नस्तरीय शिक्षाविदों से भरने लगा।इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर    1986 में Haward Law college  को आधार मान कर National law college    के रूप में NLS Banglore की  स्थापना की गई  ।
हालांकि इससे पहले दिल्ली लॉ कॉलेज में लॉ की पढ़ाई की जा रही थी ।इसके बाद 1998 में Nalsar Hyderabad दूसरे लॉ कॉलेज के रूप में स्थपित किया गया ।बाद के वर्षों में इसी के तर्ज पर देश के सभी क्षेत्रों में NLU  की स्थापना की गई । अब तक इन nlu की परीक्षा अलग अलग ली जाती थी ।2008 में इन सभी nlu को जोड़ कर CLAT की स्थापना  की गई । इनके पढ़ाई का स्तर तारीफेकबिल था लेकिन इन nlu के साथ बहुत अधिक फीस होने की समस्या आने लगी जिसका समाधान बैंको ने अपने education loan के द्वारा  किया ।अगर top  nlu की बात करें तो इनमें बच्चे अगर लोन लेकर भी पढ़ते हैं तो उनके लिए ये फायदे मंद ही साबित होते  हैं क्योंकि अंतिम सेमेस्टर के पहले ही देश के टॉप कॉरपोरेट उन्हें काफी हाई पैकेज पर नौकरी दे देती है या फिर बच्चे विदेश की कंपनी को join कर लेते हैं यहां चूँकि अधिकतर बच्चे लोन की रकम चुकाने को बेबस होते हैं तो उनके पास कोई चारा भी नहीं होता। Nalsar के वाईस  चांसलर shri  Faizan Mustafa ने पिछले दिनों इस बात पर चिंता जताई ।उनका कहना था कि बहुत अधिक फीस होने के कारण nlu अपने उद्देश्य से भटक गए हैं अर्थात शायद ही कोई बच्चा nlu से पढ़ाई करने के बाद कोर्ट join करता है ऐसे में सरकार ने जिस कारण से nlu की स्थापना की थी वो बिल्कुल गौण हो रहा है और इसका फायदा कॉरपोरेट ले रही है।इसका मुख्य कारण निः संदेह ऊँची फीस है । तो अगर सरकार के द्वारा अच्छी शिक्षा का लाभ वापस सरकार को न मिलकर देशी विदेशी कंपनी को मिले तो इससे अधिक घाटे का सौदा और किसे कहे ? दूसरी ओर अगर कोर्ट की ओर देखें तो कानून की लंबी  प्रक्रिया के कारण कोई भी कोर्ट जाने से डरता है कितने ही केस फैसले के कारण लंबित पड़े हुए हैं ।बहुत से कानून समय परिवर्तन के कारण बदलाव चाहते हैं ।इन जगहों पर नई पीढ़ी का आगमन निश्चय ही सब के लिए लाभदायक होगा जो देश में मौजूद श्रेष्ठ और काबिल कानूनविदों जोकि उत्कृष्ट संस्थान से पढ़े हुए हैं  मात्र   सरकार की गलत तरीके के कारण संभव नहीं दिखाई देता है।

पितृ पक्ष में सभी पितरों को मेरा नमन । जब इन दिनों में अपने पूर्वजों को याद करती हूं तो याद आती है एक भोली भाली ,सीधी और स्निग्ध छवि ।मेरी दादी जिन्हें सभी बच्चे " बड़का माँ " कहते थे ।फिर वो चाहे मेरे बच्चे हो या खुद मैं ।सभी के लिए वो ममता की मूरत थीं । जब मेरे बाबा की अचानक मृत्यु हुई उस समय मैं बस दो बरस की थी इसलिए बड़का माँ को अपनी स्मृति  में मैंने वैधव्य रूप में ही पाया ।बाबा के मृत्यु के समय का बड़का माँ की तस्वीर जब  देखती हूं तो लगता है कि आज के समय में न जाने इस उम्र में  लड़कियां  अपने खुशहाल जीवन के शुरुआती चरण में ही होती  है और उस  आयु में  उनकी सारी खुशियां समाप्त हो गई ।   पहले हमारे मिथिला में विधवाओं के लिए बहुत सी वर्जनाएं थीं जिनका पालन ताउम्र उन्हें करना पड़ता था ।  पहनने से लेकर खाने पीने तक उन्हें काफी पाबंदियां थी फिर भी वो खुश रहा करती थीं । पहले जब बड़का माँ गांव
व में रहती  और हम गांव जाते तो  हमारी सारी फरमाइश यथासाध्य वो पूरा करने की चेष्टा करती  या यूं कहें कि वो किसी की कोई भी बात नहीं  काटती ।रात में वो हमें तरह तरह की कहानियां भी सुनाती जो मुझे आज भी कंठस्थ है । इन्हीं कहानियों  का लालच में हम सभी चचेरे फुफेरे भाई बहन रात में उन्हीं के पास सोना चाहते । स्वभाव से वो अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति की थीं । मैं जब फिल्मो या सीरियलों में सास बहू के टकराव की बात सुनती तो ये बातें बिल्कुल झूठ लगती क्योंकि मैंने अपने घर में इस तरह की बात ही नहीं देखी।लेकिन कुछ लोगों के नसीब में दुख की मात्रा अधिक होती है मुझे उनकी जिंदगी को देखकर कुछ वैसा ही लगा ।कम उम्र में उन्हें वैधव्य का दंड मिला ,प्राणों से प्रिय छोटे भाई का देहांत और अपनी जिंदगी में दो दो पुत्रों की अकाल मृत्यु । जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने  काफी संताप झेला । मैंने सुना है कि जब इस जीवन में कष्टों की अति हो जाती है तो वो आत्मा मोक्ष को प्राप्त कर लेती  है तो शायद उनके इस कष्टों ने उनके लिए मोक्ष का द्वार खोल दिया हो और वो जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो गई हो ।

Thursday 19 September 2019

किसी ज़माने में कोटा अपनी साड़ियों के लिए विश्वविख्यात था। लेकिन आज कोटा की वो पहचान बदल गयी अब उसकी पहचान बदल कर कोचिंग हब के रूप में हो गयी है कोटा में पढ़कर कितने बच्चे कितनी सफलता पाते है ये अनुपात मैं  नहीं जानती पर वहां जाने वाले बच्चो की संगखया दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। लगभग उसी तर्ज हमारा शहर अब कोचिंगों  का शहर बनता जा रहा है। आए दिन अखबार ,लोकल चैनल और मोहल्ले के मकानों की बाहरी दीवाले किसी न किसी कोचिंग या टीचर के नाम के इश्तेहार से भरे हुए हैं /आशुतोष सर. वर्मा सर, झा सर और न जाने क्या क्या। आज अगर   शाम को आप महेन्द्रू ,नया टोला से ले कर एस  पी वर्मा रोड या बोरिंग रोड जैसे इलाकों की ओर जाना चाह  रहे हैं तो घंटे दो घंटे ज्यादा लेकर चले   क्योकि  शाम के समय ये सभी सडके  कोचिंग जाने वाले हजारों की संख्या वाले बच्चो से भरा  रहता है। निःसंदेह इन  बच्चो में बड़ी संख्या में  आस पास के गांव देहात से आने वाले बच्चो की रहती है। ऐसा नहीं है इस तरह के क्लासों  की संख्या मात्र इंजीनियरिंग ,मेडिकल या किसी टेक्निकल पढाई तक सिमित है बल्कि छोटे छोटे बच्चो के  ट्यूशन  की प्रवृति भी दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है। अगर उच्च शिक्षा की बात करे तो एक ज़माने में पटना के लगभग सभी कॉलेज  ( साइंस कॉलेज ,पटना कॉलेज या वुमन्स कॉलेज )जैसे कॉलेजों की तूती पूरे देश में बोलती थीं और इन कॉलेजोँ में दाखिला पाना किसी भी विद्यार्थी  का सपना होता था। वही आज सारे कॉलेज गुंडागर्दी और राजनीतिक अखाड़े के रूप में तब्दील हो रहे हैं। हर तीसरे महीने  प्रोफेसर्स की हड़ताल जिसका मुख्य आधार केंद्रीय वेतनमान की मांग। किसी ज़माने में निरीह कहे जाने वाले गरीब प्रोफेसर्स की तनखा  शायद रिटायरमेंट तक भी उतनी नहीं थी जितनी आज किसी नए की सैलरी है और तारीफ की बात ये की जैसे जैसे  यू जी  सी छठा ,सातवां और न जाने कितने वेतनमान लागू होते गए और सी सॉ के खेल की तरह पढाई का स्तर गिरता गया। ऐसे में कोचिंग वालो का वर्चस्व बढ़ता गया और गर्जियन पीसते  गए पहले भी बच्चे मेडिकल , इंजीनियरिंग या कॉम्पिटेटिव परीक्षाए पास करते थे लेकिन उस वक़्त कॉलेज की अच्छी पढाई ही इसकी भरपाई कर देता था। पहले की तुलना में प्रतियोगिता बढ़ी है लेकिन हर साल खुलने वाले कितने ही सरकारी कॉलेजो की संख्या  भी तो  लगातार  बढ़ता ही जा रहा है।  किसी भी साधारण कोचिंग की फीस लाखों में है। प्रतियोगिता की दौड़ में लाचार माता पिता किसी भी तरह बच्चों के लिए फीस जुटा  रहे हैं।  

Wednesday 18 September 2019

लगभग तीन चार साल पहले मेरी एक स्कूल की सहेली से अचानक रांची में मुलाकात हो गई ।उसने बातों ही बातों में बताया कि गार्गी ने हमारे बैच का एक वाटसऐप ग्रुप बनाया है जिसमें अगर तुम्हारी इच्छा हो तो तुम जुड़ जाओ । उस समय हमें स्कूल  छोड़े हुए लगभग 24-25 साल से ज्यादा हो गया था। मैंने सहर्ष अपनी रज़ामंदी दे दी और उस ग्रुप से जुड़ गई । आज   हमारे ग्रुप में 45 सहेलियां हैं जो देश और विदेश में रहती हैं  । मैं अक्सर अपनी बेटियों से अपनी इन सहेलियों के बारे में चर्चा करती हूं । तारीफ की बात ये है कि हमारी जिस दोस्ती का आधार किसी भी सोशल मीडिया के जरिए नहीं हुआ था उसे सोशल मीडिया ने ही एक सूत्र में बांध दिया  ।आज हम सभी सहेलियों के बीच स्कूली जीवन के समय चलने वाली दुराव ,छिपाव और  घमंड जैसी भावना खत्म हो गई है । अगर किसी को डॉक्टर की जरूरत है हम निसंकोच अपने ग्रुप की डॉक्टर मित्रों को याद करते हैं । आज लगभग हम सभी की  समस्याएं एक तरह की हैं  जैसे बच्चों की पढ़ाई ,टीन एजर बच्चे और   अपनी युवावस्था को पीछे छोड़ती उम्र ।न अब किसी को उसके पति के बड़े पद  से मतलब है न ही उसके विदेश प्रवास से कोई ईर्ष्या । अक्सर हम अपनी स्कूली बातों को याद कर घंटों हँसते हैं ।किसी भी नए शहर में किसी को जरूरत पड़े ग्रुप में संदेश छोड़ दो  मदद के लिए दो तीन हाथ उठ ही जाएंगे  ।जब बेटी के पढ़ाई के दौरान  exhibition में हौसला अफजाई की बात आई तो मेरी सखी मौजूद । अब तो ये समूह मेरे लिए परिवार की तरह है जिससे मैं हर बात शेयर कर सकती हूं और  जब पिछले 12 को मुंबई से बेटी को लेकर पटना लौट रही थी तो गणेश विसर्जन ,मुंबई की झमाझम बरसात और अपनी सुबह 5 बजे से चलने वाली व्यस्त दिनचर्या के बावजूद रात के 10:30 बजे मेरी सहेली  उपहार के साथ स्टेशन पर आई । लगभग 50 मिनट की मुलाकात में कई बार आँखे गीली हुई ।जब हिसाब लगाया तो समझ में आया कि लगभग 27 सालों के बाद हम मिले थे लेकिनऔर  ये बात जेहन से उतर गई कि जब हम मिले  थे और आज के मिलने के बीच हमने एक लंबे अरसे को पार कर लिया। लेकिन आज तक सोशल मीडिया की खराबियों पर ही मेरी नज़र थी पर धन्य ये टेक्नोलॉजी जिसकी बदौलत मैं अपनी प्रिय सखी से मिली जो मेरे लिए निश्चित रूप से एक ठंडी हवा का झोंका थी जिसने मेरे सभी तरह के तनाव को अपनी अल्प अवधि के भेंट  से कम कर दिया।

Thursday 18 July 2019

आज कल जब भी मैं छोटे छोटे बच्चों को स्कूल जाते देखती हूँ अनायास ही सोचने लग जाती हूँ कि जब तक मेरी दोनों बेटियां कुछ इसी तरह से स्कूल जाती थीं मैं कितनी निश्चिंत थी काश मेरा वो समय फिर से लौट कर आ जाए ।शायद मेरी इस सोच के पीछे मेरी वर्तमान समय की परेशानी हो ।अभी मैं छोटी बेटी के कॉलेज के डोलड्रम वाली स्थिति से क्षुब्ध हूँ ।बड़ी बेटी ने अपनी पढ़ाई पूरी कर मुंबई में एक अच्छी कंपनी में नौकरी शुरू कर ली लेकिन आए दिन कभी मुंबई की बरसात या फिर उसकी बाई की अनुपस्थिति उसकी ओर से परेशानी का कारण बन जाता है और मैं प्राय ये सोचती हूं कि काश मेरे बच्चे छोटे ही होते तो कम से कम ऐसी परेशानियां तो न होती ।गौर करने की बात यह है कि शायद मैं उस वक़्त ये सोचकर परेशान थी कि न जाने इनका स्कूल कब खत्म होगा । उसके साथ ही एक और समय का सोच कर मैं खुशी का अनुभव करती हूं जब मेरी दोनों बेटियों ने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली और हमने अपनी उनका विवाह करा दिया हो ।कुल मिला कर मुझे या तो भूतकाल आनंद दे रहा है या आने वाला समय ।कुछ इसी तरह की भावना अपने आस पास के बहुत से लोगों में देखा है जो अपने वर्तमान में नहीं बल्कि भूत या भविष्य में जीना चाहते हैं ।आपने अक्सर बुजुर्गों को अपनी बीमारियों से परेशान होकर अतीत में जीते हुए देखा होगा। याद आती है छुटपन में कवि बालकृष्ण राव द्वारा लिखित कविता "फिर क्या होगा उसके बाद" लोग हमेशा ऐसा सोचते हैं कि ऐसा होगा फिर हम सुखी होगें लेकिन शायद इस चक्कर वर्तमान भी हाथ से निकल जाता है ।इस वर्ष जब बच्चों ने फादर्स डे के दिन मुझे पापा के साथ एक फोटो लगाने को कहा तो हे प्रभु डॉक्टर के कहने के साल भर तक पापा के रहने पर भी हमने पापा के साथ की एक अच्छी तस्वीर तक नहीं ली ।
अभी लिखने के वक्त फिर इस बात के लिए दुखी हुई तो सहसा मन में ये बात कौंध गई कि मैं मूर्खा फिर से वही गलती कर रही हूं ।वर्तमान को जी भर जी लो ,भविष्य की योजना करो क्योंकि उसी से जिंदगी है अन्यथा शून्य हो जाएगा  और जीवन लक्ष्यहीन  । तो बीते दिनों को याद कर खुश हो जाऊं उसकी गलतियों से सबक लू   लेकिन वर्तमान की कीमत पर नहीं ।

Friday 31 May 2019

शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मचर्य जीवन जीवन का एक अहम हिस्सा है और इस दौरान उपनयन, विवाह आदि  को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।  अगर हम उपनयन की बात करे तो  एक वैदिक रीति है और इसके बाद ही कोई बालक ब्राह्मण कहलाता है ।जैसा कि हमारे सभी पूजा पाठ में बांस ,मिट्टी और लकड़ी के सामानों की अहमियत होती है ठीक वैसे ही इस संस्कार में  इन सबके साथ जुलाहे तक की अहमियत को भुलाया नहीं जा सकता ।जैसा कि मैंने पिछले दिनों हुए अपने भतीजे के जनेऊ में ऐसा महसूस किया कि संभवत प्राचीन काल में लड़कों को इस संस्कार के बाद मातृ भिक्षा के बाद अपनी पोटली लेकर लकड़ी के खराम(चप्पल) और हथकरघा के बुने वस्त्र पहन कर रथ की सवारी करते हुए गुरुकुल जाना पड़ता था । आज के समय में ये सारी चीजें प्रतीकात्मक रूप में बची हैं ।   मेरे अनुमान के अनुसार आज के दौर में कुछ ही  बालक जनेऊ में कराए गए नियमों का पालन अपने पिता या पितामह की तरह जीवन पर्यन्त करते हैं  अथवा खाने पीने संबंधी निषेधाज्ञा को मानते हैं  ।अगर हम इस संस्कार के द्वारा किसी लड़के के विवाह के लिए योग्य होने की समाज में आधिकारिक घोषणा माने तो यह कारण भी बढ़ते हुए अंतरजातीय विवाह को देखते हुए बेकार ही कहे जाएंगे। अगर पिछले दस बीस साल पहले के जनेऊ के खर्च से इसकी तुलना की जाए तो इसमें बेहताशा वृद्धि हुई है जबकि अगर इसमें होने वाले नियमों की बात करें तो वे धीरे धीरे रस्मी तौर ही निभाए जा रहे हैं ।जहां पहले के दिनों में ये आयोजन लगभग दस दिनों का हुआ करता था अब ये सिमट कर एक से दो दिनों का रह गया है ।  समय सीमा कम होना या नियमों के विषय में उदारवादी होने के बावजूद ये नई  पीढ़ी इसके लिए अच्छा खासा उत्साहित दिखाई देने लगा है । हर दंपती को ये मालूम है कि  अपने बेटे को भविष्य में इन नियमों की आवश्यकता कभी कभार ही पड़ेगी और इस मद में पैसा या समय की काफी जरूरत है लेकिन फिर भी महानगर ही नहीं विदेशों से भी  जनेऊ करवाने के लिए आने वालों की काफी संख्या है ।इस आयोजन या संस्कार का रूप धीरे धीरे बदलता जा रहा है ।पहले इसे एक यज्ञ के रूप में देखा जाता था वही अब इसने एक इवेंट या फैमिली गेट टू गेदर का रूप ले लिया है ।पहले  विवाह ,मुंडन या जनेऊ आदि में  जाने  की  सीमा  अपने गाँवो तक सीमित थी लेकिन अब लोग दोस्तों और रिश्तेदारों के पारिवारिक उत्सव को लोग दूर शहर तक अटेंड करना चाहते हैं। इस बदलाव के कारणों पर अगर
गौर किया जाए तो पहला कारण पारिवारिक सदस्यों का अपने घरों से दूरी कहा जा सकता है ।अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से मिलने के लिए हमें किसी बहाने की जरूरत पड़ती है क्योंकि पहले की तरह लोगों का छुट्टियों में रिश्तेदारों के घर जाने का प्रचलन लगभग नहीं के बराबर है ।दूसरी ओर लोगों में पहले के मुकाबले आर्थिक संपन्नता बढ़ने के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्ति है ।पहले अगर परिवार की परिभाषा दी जाए तो उसमें किसी कमाने वाली की जिम्मेदारी उसके माँ बाप के साथ साथ सभी भाई बहन और उनके बच्चे हुआ करते थे जिनकी पढ़ाई और विवाह आदि से वो ताउम्र घिरा रहता था अब परिवार की प्राथमिकता में व्यक्ति खुद और उसके बच्चे  मात्र हैं ,अन्य कारणों की ओर सोचे तो लोग पहले से ज्यादा शौकीन हो गए हैं अब मात्र उनकी जरूरत रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं है तो इस तरह के उत्सवों में सबका ध्यान जाने लगा है ।सौभाग्य से मैं उस समाज से संबंध रखती हूं जहाँ बेटी की शादी तक में दहेज तो दूर की बात माँ बाप के लेन देन संबंधी टीका टिप्पणी को भी हेय दृष्टि से देखा जाता था वहीं हर जगह लेने देने का स्तर काफी बढ़ गया है ।विवाह के साथ संगीत और मेहंदी जैसी बातें जो हमारे समाज के लिए अनदेखी थीं वो जुड़ गई हैं। तो सौ बात की एक बात की यह भी एक सामाजिक परिवर्तन है क्योंकि इस तरह का आयोजन मात्र उपनयन तक ही सीमित नहीं है बल्कि मुंडन ,गृहप्रवेश या अगर कुछ और नहीं तो सालगिरह,शादी की सालगिरह या पूरे साल आने वाले विभिन्न प्रकार के" डे" तक को लोग आयोजित करना चाहते हैं और किसी भी बदलाव के अच्छे और बुरे दोनों ही असर होते हैं जिसे हमें स्वीकार करना  ही पड़ता है ।

Wednesday 15 May 2019

छोटी बेटी को Exam दिलवाने बनारस जा रही हूं ।  अभी चार दिन पहले सासुमां हॉस्पिटल से घर आई हैं । ऐसे में बेटी को लेकर जाना मुझे चिड़चिड़ा बना  रहा है ।तंग आकर मैंने कहा इन यूनिवर्सिटीज वालों ने पता नहीं ऐसा क्यूं किया ।फॉर्म भरने के समय पटना को पहला विकल्प दिया था ।तो at least लड़कियों को तो अपने शहर का केंद्र देना था ।                              क्यों ? हर जगह तो तुम्हें बराबर का हक चाहिए ,हम लड़कियां लड़कों से कहीं भी कम नहीं तो यहां क्यूं ?                            पति ने चुटकी ली ।   न चाहते हुए भी होठों  पर मुस्कुराहट आ गई ।                                   हां ,बात में तो दम हैं ।वैसे स्वीकार करती हूं कि हम औरतें इतनी अवसरवादी होती हैं कि जहां अपने फायदे की बात होती है चट से इसे ढाल बना लेती हैं ।फिर चाहे वो बैंक की लाइन हो ,भीड़ से भरी बस या ट्रेन में सीट पाने की बात हो।

छोटी बेटी को Exam दिलवाने बनारस जा रही हूं ।  अभी चार दिन पहले सासुमां हॉस्पिटल से घर आई हैं उन्हें सेवा शुश्रुषा की जरूरत है ऐसे में बेटी को लेकर जाना मुझे चिड़चिड़ा बना  रहा है ।तंग आकर मैंने कहा इन यूनिवर्सिटीज वालों ने पता नहीं ऐसा क्यूं किया ।फॉर्म भरने के समय पटना को पहला विकल्प दिया था ।तो at least लड़कियों को तो अपने शहर का केंद्र देना था ।                              क्यों ? हर जगह तो तुम्हें बराबर का हक चाहिए ,हम लड़कियां लड़कों से कहीं भी कम नहीं तो यहां क्यूं ?                            पति ने चुटकी ली ।   न चाहते हुए भी होठों  पर मुस्कुराहट आ गई ।                                   हां ,बात में तो दम हैं ।वैसे स्वीकार करती हूं कि हम औरतें इतनी अवसरवादी होती हैं कि जहां अपने फायदे की बात होती है चट से इसे ढाल बना लेती हैं ।फिर चाहे वो बैंक की लाइन हो ,भीड़ से भरी बस या ट्रेन में सीट पाने की बात हो।

Thursday 2 May 2019

एक सफ्ताह पूर्व  सुप्रसिद्ध दैनिक अखबार की ओर से मदर्स डे के लिए लेखों,संस्मरणों और कहानियों को आमंत्रित किया गया था । उस अखबार की ओर से पाठकों को उन कर्मठ माताओं के विषय में लिखने का आग्रह किया गया था जिन माताओं ने अपने घर और ऑफिस की ड्यूटी बखूबी निभाते हुए अपने बच्चों का अच्छा लालन पालन किया । मैंने आज  अखबार का वो कॉलम अभी नहीं देखा ।निश्चय ही उसमें एक से एक प्रशंसनीय लेख छपे होगें लेकिन इस जगह पर आकर  मेरा उस अखबार से  छोटा सा विरोध है ।कोई भी माँ जो अपने घर और ऑफिस को संभालते हुए अपने बच्चों का लालन पालन करती है वो अपने बच्चों के लिए एक मिसाल बनती है यहां कई माँ ऐसी होती हैं जो परिस्थितिवश अपने बच्चों को या तो पति के अकाल मृत्यु की वजह से या कई बार पति से आपसी तालमेल नहीं होने के कारण अपने बच्चे के लिए माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाती है ।निःसंदेह इस तरह की माताएं काबिलेतारीफ कही जा सकती हैं। मात्र  इस तरह की बातें ही हम  साधारणतया सार्वजनिक तौर पर देखते हैं । माँ तो हर तरह से महान है उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है। लेकिन जब भी इन बातों की चर्चा होती है तो  मेरा ध्यान हमेशा से फौज में अपने बेटों को भेजने वाली अनपढ़ ,बेबस और गरीब माँ पर जाता है जो इस बात को जानते हुए कि बेटे का मुंह शायद वो दुबारा देख न सके उसे विदा कर देती है । इनमें से कई माताएं ऐसी भी होती हैं जिन्होंने भरी जवानी में अपने पति को भी इसी देश की रक्षा में खोया था । न कोई पहचान न कोई   प्रशस्ति पत्र की चाह बस एक देश प्रेम के  जज्बे को लेकर ये माताएं अपने कर्तव्य का   निर्वाह करती हैं । यक्ष युधिष्ठिर वार्ता में जब यक्ष ने धर्मराज से पूछा कि किस बोझ को सहन करना असहनीय होता है तो धर्मराज का उत्तर था, अपने कंधे पर जवान बेटे की लाश से अधिक भारी बोझ कुछ नहीं होता वस्तुत मैंने अपनी निजी जिंदगी में अपनी धर्मभीरू दादी को अपने दो पुत्रों की अकाल मृत्यु पर बिन पानी मछली की तरह छटपटाते हुए देखा है । हम जिस देश में पन्ना धाय का इतिहास सुनते हैं वहाँ हम कैसे इस तरह की जननी को भुला दें ।दूसरी ओर वे माताएं  अथवा वे सेक्स वर्कर्स  जो अपनी संतान को अगर एक इज्जत की जिंदगी देने के लिए  हर रात नारकीय जीवन  का दर्द झेलती है वो मेरी नज़र में किसी भी माँ से महान है ।
कितना मुश्किल है अपनी ही नज़र में गिरना और समाज की अवहेलना सहन करना लेकिन अपने संतान के अच्छे भविष्य की चाह के कारण वह माँ को उस गलत काम के लिए भी नहीं झिझकती ।  आज जमाने ने संयुक्त परिवार को पीछे छोड़ दिया लेकिन याद करें उन माताओं को  जिन्होंने कभी अपने बच्चे या देवर ,ननद के बच्चों में फर्क नहीं किया जिन्होंने हमेशा अपने बच्चों को बांटना सिखाया और पूरी जिंदगी समदर्शी बनी रही क्या कहा जाए उन्हें ! अपने लिए जीये तो क्या जियें ,ऐ दिल तू जी ले औरों के लिए   😢