Sunday 24 May 2020

वैसे तो कोरोना ने पूरे देश को अपने चपेट में ले लिया है पर 

Wednesday 20 May 2020

आज लॉकडौन के लगभग दो महीने हो  रहे हैं। पिछले संदेश में प्रधानमंत्री श्री मोदी जी ने लोगों से आत्मनिर्भर बनने की बात कही ।इस शब्द का तमाम सोशल साइट्स पर काफ़ी मजाक भी बनाया गया ।लेकिन आत्मनिर्भरता किसी के लिए भी जरूरी है कोई देश हो,राज्य हो या फिर चाहे वो छोटा सा बच्चा ही क्यों न हो धरती पर पड़ने वाला उसका वो पहला कदम जो बिना किसी मदद के वो उठाता है भविष्य में  उसके दौड़ने के रास्ते में अहम साबित होता है । किसी भी राज्य के आत्मनिर्भर होने के लिए बहुत से तथ्य होते हैं ।उद्योगऔर कृषि  संबंधी ,शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी आत्मनिर्भरता ।यहां उल्लेखनीय है कि कुछ दशक पूर्व बिहार इनमें से कुछ मामलों में बिल्कुल स्वालम्बित था । घरेलू खपत के साथ साथ चावल, मकई ,दाल जैसे अनाजों और आम,लीची जैसे फल सरकारी आय का बड़ा हिस्सा थीं ।  इसके साथ यहां के अच्छे शिक्षण संस्थान के कारण कभी विद्यार्थियों को बिहार से बाहर जाने की जरूरत  ही नहीं पड़ती थीं बल्कि कई बाहरी बच्चे भी यहां के कॉलेजों में पढ़ाई करने आते थे।लेकिन धीरे धीरे हम पिछड़ने लगे और कृषि से लेकर शिक्षा तक हमारा पायदान नीचे की ओर खिसकता गया ।एकाध  तकनीकी और मेडिकल कॉलेजों के अलावा यहां के कॉलेज राजनीति का अड्डा बन गए  बिहार की स्थिति इसलिए भी दयनीय है क्योंकि आज किसी भी मामले में ये राज्य आत्मनिर्भर नहीं रह गया है जबकि विधाता ने कृषि योग्य अत्यंत उपजाऊ मिट्टी के साथ साथ नदियों और पोखरों का वरदान दिया है जिसके कारण  इसने कभी देश के बाहर के देशों पर भी राज किया था। इसे  बिहार के लिए दुखद ही कहेगें  कि नदी और पोखरों से  भरा होने के बाद भी हमारा बिहार मछली के लिए आज भी आंध्र प्रदेश पर ही निर्भर है जिसके कारण आय का एक बड़ा हिस्सा राज्य से बाहर चला जाता है जो थोड़े से प्रयत्न से बचाया जा सकता है ।अगर  लोकल मछली मिलती भी है तो लोगों को इसकी प्राय दुगुनी कीमत अदा करनी पड़ती है। जबकि पड़ोस का  पठारी प्रदेश झारखंड इस मामले में पूर्ण रूप से न केवल आत्मनिर्भर बन चुका है  बल्कि विगत दो तीन  वर्षों से झारखंड  के प्रमुख शहरों में आंध्र प्रदेश से आने वाली मछली की बिक्री न के बराबर है और तो और झारखंड इस मामले में अपने क्षेत्र का प्रमुख निर्यातक बन चुका है यहां ध्यान देने वाली बात यह कि झारखंड के कुछ शहरों को छोड़कर बाकी सभी पानी की कमी से जूझ रहे हैं और जहां तक मैं समझती हूं वहां के तालाब अधिकतर पानी के लिए वर्षा जल पर ही निर्भर हैं । अभी की स्थिति में  लाखों मजदूरों की  वापसी के बाद मत्स्य पालन बिहार को  रोजगार बढ़ाने के साथ साथ राजस्व बढ़ाने में काफी मदद कर सकता है हालांकि इस दिशा में पूर्णिया के कुछ क्षेत्रों में पहल की गई है लेकिन ये उत्पादन बिहार के लिए नगणय कहा जाएगा है क्योंकि इन  क्षेत्रों में लोगों के मुख्य भोजन में मछली की प्रधानता होती है अर्थात यहां का ये उत्पादन बस रोजमर्रा के खाने तक ही सीमित है जबकि यहां मत्स्य पालन बड़े पैमाने पर किए जाने पर जहां इसे मैथिल बहुल क्षेत्रों का स्थानीय सहयोग मिलेगा वहीं बंगाल,आसाम से सटे होने के कारण  बड़ा बाजार भी सहज प्राप्य है ।आने वाले समय में सरकार को जरूरत है कुछ ऐसे ही रोजगार के साधनों का, जो राज्य सरकार की आय को दूसरे राज्य में जाने से बचाने के साथ साथ कोरोना के कारण  बेरोजगारी की मार झेल रहे मजदूरों को एक नई दिशा प्रदान करें  ।

Tuesday 19 May 2020

पिछले सीजन वाले कौन बनेगा करोड़पति में हफ्ते में एक दिन में समाज के कुछ ऐसे लोगों से मिलाया जाता था जिन्होंने अपनी सुख सुविधाओं को छोड़कर समाज के सामने एक मिसाल कायम की ।पिछले दो महीनों से हम कोरोना वायरस से प्रभावित अपने शहर गांव से दूर गए मजदूरों को भूख और बदहाली से तिल तिल कर मरते हुए देख रहे हैं ।आज मैं अपने बिहार के कुछ ऐसे ही लोगों के बारे में विवेचना करना चाहती हूं जो भले ही बहुत अधिक नज़रों में नहीं आए हैं लेकिन  उनके मन में आत्मसंतुष्टि की भावना ही उन्हें आगे की ओर बढ़ने में मददगार होती है ।इस विषय पर सा 

Sunday 17 May 2020

पिछले कुछ दिनों से news और सोशल मीडिया को  देखना कोरोना वायरस के कारण पलायन करने वाले मजदूरों की मार्मिक स्थिति के मद्देनजर बहुत कठिन हो गया है । भूख और आने वाले समय की विकटता को देखते हुए हजारों किलोमीटर की अकल्पनीय दूरी ये मजदूर बाल बच्चों के साथ तय करने की कोशिश कर रहे हैं और भूख और थकान से रास्ते में ही दम तोड़ रहे हैं । जहां तक मेरी जानकारी है 28 लाख मजदूर  बिहार आ रहे हैं और संभवत जो किसी तरह यहां पहुंच जाएंगे वो अभी के हिसाब से तो वापस कभी नहीं जाएंगे ।यहां मेरे मन में ये सवाल आता है कि आखिर इतने लोग अगर यहां से पलायन करके महानगरों में गए थे तो क्या हमारे बिहार में कुछ सरकारी योजना के अलावा उनके लिए कोई रोजगार मौजूद नहीं था  ? इस बीच मैंने कई जगहों पर बिहार में  चलने वाली कई तरह के मिलों के बारे में पढ़ा है ।मेरे स्वर्गीय बाबा जहां निर्मली के मुरोना ब्लॉक  में कार्यरत थे वहीं हमारे स्वर्गीय दादा(ददिया ससुर) कटिहार के जूट मिल में कार्यरत थे ।जाहिर है अपने ही परिवार के दो लोगों के कार्यरत इन मिलों में बड़ी संख्या में मजदूर भी रहे होंगे। इन दोनों जैसे अनेक लोगों  के अपने गांव से नज़दीक नौकरी करने के अनेकों फायदे थे जहां एक ओर नौकरी के द्वारा नकद आमदनी होती होगी वहीं गांव में रहने के कारण  कृषि कार्यों का भी संरक्षण भी होता था इसी तरह के न जाने कितने ही उद्योग रहे होंगे कहने का मतलब यह है कि किसी भी छोटे उद्योग के कारण कितने ही लोगों को रोजगार मिला हुआ था और इसके साथ साथ खेती भी की जाती थी ।मुझे नहीं मालूम कि क्यों और किन परिस्थितियों में इन मिलों को बंद कर दिया और धीरे धीरे गांव या बिहार से लोगों का पलायन होने लगा ।हाल के वर्षों में गाँवो की स्थिति कुछ ऐसी हो गई कि वहाँ प्राय घरों में मात्र या तो बूढ़े और अशक्त लोग बचे या फिर महिलाएं ,धीरे धीरे शहरी चकाचौंध ने इन्हें अपने जाल में कुछ इस तरह लपेटा कि ये परिवार के साथ वहां चले गए और आज से दो महीने पहले तक के हिसाब से छोटे बड़े फ़ैक्टरियों के अलावा वहां के तमाम टैक्सी चालक, गार्ड ,सब्जी बेचने ,बढ़ाई और प्लम्बर जैसे सभी श्रम प्रधान कार्य  अधिकतर बिहार और यूपी के लोग ही करते थे।यहां मैं सिर्फ सरकार को ही दोष नहीं दूंगी यहां लोगों को दिल्ली मुंबई की नौकरी इस कदर भाने लगी कि मजदूरों के साथ साथ किसी भी मामूली संस्थान से पढ़े हुए इंजीनियर ,मैनेजमेंट और अन्य प्रोफेशन कोर्स वाले 12 से 15 हजार की नौकरी के लिए अपने शहर या गांव को छोड़ कर दिल्ली या मुंबई जाने लगे इस जगह अगर कोई ऐसा रोजगार या नौकरी लोगों यहां मिल जाए तो शायद ये पलायन रुक जाता।नतीजतन बिहार खाली होता गया । इसके कारण धीरे धीरे खेती भी चौपट होने लगी । इस बारे में यहां मैं चर्चा करना चाहूंगी श्रीमती ऋतू जायसवाल जो खुद एक उच्च अधिकारी की पत्नी है और अपने ससुराल सोनबरसा सीतामढ़ी में मुखिया पद पर आसीन है ,उनका कहना है कि किसी भी राज्य से मजदूरों का बाहर जाना गलत नहीं है बशर्ते वो दोनों ओर से हो अर्थात हमने कभी नहीं सुना कि महाराष्ट्र या गुजरात के मजदूर  काम के सिलसिले में बिहार या यूपी आते हैं । मुझे लगता है कि जिस प्रकार अंग्रेजी शासन में भारत के कच्चे माल के द्वारा विदेशी कंपनियां लहलहाने लगी ठीक उसी प्रकार बिहार के मजदूरों के कारण महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली के तमाम उद्योग की उन्नति होती गई और बिहार खाली होता गया रही सही कसर झारखंड विभाजन ने पूरी कर दी । उसपर दुखद पहलू यह है कि इतनी भारी श्रमयोगदान के बावजूद हर जगह बिहारियों के हिस्से भत्सर्ना ही आई वहां होने वाले सभी फसादों की जड़ में बिहारियों को ही माना गया और कभी उन्हें भइया कभी लल्लू जैसे नामों से बुलाया गया ।आज जबकि 80%मजदूर भूखमरी की हालत में वापस नहीं लौटने के लिए घर लौट रहे हैं तो उनके हिस्से तो घर लौटने के बाद भी भूखमरी ही आएगी पर मेरा प्रश्न यह है कि क्या महाराष्ट्र ,गुजरात या अन्य जगहों की अर्थव्यवस्था बिना बिहार या यूपी के मजदूरों के चल पाएगी ? क्या इस दिशा में सरकार के साथ साथ उन उद्योगपतियों का ये फर्ज नहीं बनता था कि वे अपने मजदूरों को इस मुसीबत के समय उन्हें रोटी मुहैया कराए जो वर्षों से उनके लाभ का बड़ा हिस्सा बनाने में अपना सहयोग दे रहे थे । अभी की  स्थिति में भूख से मर रहे मजदूरों की हालत शटल काक की तरह हो गई जिनके बारे में केंद्र सरकार राज्य, सरकार की जिम्मेदारी बता कर उन्हें उनके पाले में फेंक रहा है और राज्य सरकार केंद्र सरकार की और नतीजे के रूप में मजदूर मर रहे हैं ।