Sunday 24 December 2017

कल  गुरुद्वारा गई पूरे दिन श्रद्धा औऱ भक्ति से
सरोबार सिर्फ मैं ही नहीं गुरुद्वारा में सभी सिख और गैर सिख दोनों ।अगर गुरुद्वारा में सर ढकने की परंपरा है तो सभी भक्ति की भावना से अक्षरशः पालन करते हुए ।आज नहीं बल्कि कल अर्धरात्रि से  ही Merry Christmas  से सभी सोशल मीडिया भरे पड़े ।जिस जिस घरों में छोटे बच्चे हैं बच्चों के साथ मम्मी पापा क्रिसमस ट्री और सांता के कपड़े को सजाने में तत्पर ।ये बात मुझे काफी प्रभावित करती है क्योंकि चंद वर्ष पहले  ऐसा मेरी बच्चियों ने भी किया है और हर वर्ष  एक अटूट विश्वास के साथ अपनी मनपसंद वस्तु की फरमाइश सांता से की है और प्रति वर्ष यथा संभव शायद उनके सांता  ने भी उन्हें निराश नहीं किया ।अब तो बेटियां बड़ी हो गई कल गुरुद्वारा और आज के क्रिसमस के हर धर्म के लोगों की भावना देखकर मेरी बेटी का सवाल यह है कि अगर हम हर धर्म के नियमों का पालन इतनी इज्जत से करते हैं तो वैसी ही भावना हमारे अंदर देशभक्ति और सामाजिक  नियमों के प्रति क्यों नहीं? क्यों हम अपनों के बीच बिहारी, बंगाली या मराठी जैसी भावना के कारण वैमनस्यता को पालते हैं  ? क्या हम  मात्र धर्म के इशू पर   ही राज्य और देश की सीमा को लांघ सकते हैं  गैरतलब है कि वहाँ कई सिख परिवार  सभी राज्य और पूरी दुनिया से आए थे ।

Sunday 17 December 2017

'प्रतिपन' ,"स्वाछन",मैंने अकसर अपने घर के विशेष पूजा के अंत में दान देने के समय दान देने वाले औऱ दान लेने वाले को इन दो मंत्रों का उच्चारण करते हुए सुना है इन  मंत्रों के शाब्दिक अर्थ  की गूढ़ता के बारे में मैं नहीं जानती लेकिन मेरी सोच के अनुसार वो दान करने और उसके ग्रहण करने की एक औपचारिकता को व्यक्त करती है । वैसे कुछ भी हो ये  प्रथा सदियों से चली आ रही एक
ऐसी भावना को व्यक्त करने की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है जो शायद हमारे दैनिक जीवन के लिए बहुत ही जरूरी है । कभी मात्र संबंधो को निबाहने की खातिर ,कभी किसी विशेष के प्रति स्नेह के कारण और कभी किसी और विशेष कारण से दोस्तों और रिश्तेदारों को अकसर हम भेंट , खाने पीने की चीज़ें और न जाने क्या क्या उपहार स्वरूप देते हैं और भेजते हैं  ।जमाना आधुनिक तकनीक का है तो अब इस तरह की सुविधा का जिम्माonline booking औऱ courier  ने भी ले लिया है । किसी को भेज कर या उपहार देकर हम जितने खुश होते हैं उससे अधिक जिज्ञासा  हमें अमुक व्यक्ति की उस उपहार के प्रतिक्रिया जानने की होती है । अंग्रेजो की अन्य बातें चाहे जैसी भी हो लेकिन जिस तरह से वे किसी के प्रति  धन्यवाद जताने और व्यवहार निभाने में जिस वाकपटुता का परिचय देते हैं निश्चय ही लाजवाब है । याद आती है अपने कॉलेज के जमाने की एक निकटस्थ सखी जो अपने अपनी सुहृदयता की वजह से आज तक मेरी यादों में बनी हुई है अब तक मेरे साथ साथ जिस किसी ने उसे कुछ भी दिया उसके धन्यवाद देने के तरीके से अभिभूत हो उठा । दी हुई वस्तु कैसी तुच्छ क्यों न हो उसके व्यवहार से हमें ऐसा लगता था कि ये उसके लिए अत्यंत उपयोगी है और वो जल्द ही खरीदना या बनाना चाहती थी  ।वर्तमान में  किसी पार्टी या पारिवारिक आयोजनो के बाद कई लोगों को मैंने फोन या अन्य सोशल मीडिया के द्वारा धन्यवाद देते भी देखा है जो औपचारिक होते हुए भी संबंधो को प्रगाढ़ बनाने में अहम भूमिका निभाता है ।कई बार ऐसा होता है कि हम बड़े ही प्रेम से किसी को कुछ देते हैं और बदले में उसकी  ठंडी प्रतिक्रिया से खुद को अपमानित या यूं कहें कि ठगा हुआ सा महसूस करते हैं । मेरी व्यक्तिगत ये अवधारणा है कि  बचपन से ही बच्चे की शिक्षा ऐसी हो कि वो छोटी सी भेंट मिलने पर भी दी गई वस्तु का मूल्यांकन भौतिक रूप से नहीं वरन देने वाले की भावनाओं से जोड़कर करें  क्योंकि दी गई प्रत्येक भेंट अमूल्य है और ऐसा न होने पर  यही बच्चे कल शिक्षा या विवाह के कारण जब हमसे दूर होंगे तो निश्चय ही  हमारी भावनाओं को भी आहत ही करेंगे ।

Friday 1 December 2017

कामाख्या की पूजा और शिलांग घूमने के बाद वापस लौट रही हूं ।टिकट कल सुबह की है लेकिन फोन से घर बात हुई तो पटना में एक जरूरी काम आन पड़ी ,सोचा कि चलो नेट चेक कर लूं अगर किसी ट्रेन में टिकट मिल जाए तो आज ही निकल लूं ।पहली बार में देखा ब्रह्मपुत्र मेल दो घंटे लेट है और AC 2 में चार टिकट उपलब्ध है ।बस अंधा क्या चाहे दो आंखे आपाधापी में टैक्सी में बैठे और चले गुवाहाटी रेलवे स्टेशन ।टैक्सी में बैठे बैठे टिकट बुक करने लगी ,अचानक देखा ट्रेन के राइट टाइम खुलने की सूचना के साथ टिकट अवेलेबल की संभावना खत्म ।जब स्टेशन पहुंच ही गए तो सोचा कि  हो सकता है कि कोई और ट्रेन मिल जाए ।पर देखा कि सूचना पट्ट पर ब्रह्मपुत्र मेल को दो घंटे लेट बता रहे हैं ।दौड़ कर काउंटर पर गई कि AC 2 में जगह खाली है हमारा टिकट बना दो । नहीं ,टिकट तो नहीं बन सकता क्योंकि कंप्यूटर पर शो कर रहे हैं कि ट्रेन जा चुकी है उन्होंने बताया। लेकिन यही बड़े से बोर्ड पर उसे लेट दिखा रहे हैं ।हाँ पर उससे नहीं होता ? रेलवे की लचर हालत पर क्या कहे और सोचे ।ट्रेने  खाली और अववैलिटी निल ।  खैर  दिक्कतो के बाद जब टिकट मिली तो ट्रेन चलने के बाद पता चला कि ट्रेन का रूट डाइवर्ट कर दिया गया है अब  लोगों की हालत बुरी।मेरे हिसाब से इसकी सूचना पैसेंजर्स को किसी भी तरह होनी चाहिए कोई  जवाबदेही लेने वाला नहीं । ये तो बात हुई किसी दूसरे राज्य  की।अब अगर  पटना जंक्शन की बात करूं तो व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं । नेट या बोर्ड पर शो करेंगे अमुक ट्रेन 5 न प्लेटफार्म पर आएगी और कुली या वेंडर कहेंगे 7 पर आएगी औऱ होगा वही जो कुली बताएंगे और स्थिति तो तब हद हो जाती है जब इस प्लेटफॉर्म  बदलाव  की सूचना ट्रेन आने से कुछ मिनट पहले दी जाती है । दूसरी  बदतर  स्थिति है कि हज़ारों किलोमीटर से सही टाइम ट्रेन बक्सर या आरा पहुंचने के बाद लोगों को रुला देती है न कोई announcement न ही रुकने की निर्धारित जगह ,घंटों तक गाड़ी किसी outer signal या खेत मे खड़ी ।न कोई बताने वाला और न ही कोई अन्य सूचना ।कभी कभी सड़ी हुई गर्मी में AC बंद और पानी तक बेचने वाले नदारद ।लोगों का रेलवे मंत्रालय का कोसना जारी वहीं जब अखबार हाथ में लेते हैं  तो  मालूम होता हैं अब तो हमारे यहाँ बुलेट ट्रेन चलने वाले हैं शायद इसी को कहते हैं "कौआ चला हंस की चाल .....😢😢😢

Wednesday 8 November 2017

जब दिल्ली की जहरीली आबो हवा के बारे में सुनती हूँ तो कॉलेज में पढ़ी हुई माल्थस की पॉपुलेशन थ्योरी याद आ जाती है कि अगर मनुष्य अपनी जनसंख्या पर कंट्रोल न करे तो ये काम प्रकृति करेगी जो काफी कष्टदायक होगी फिर चाहे वो उत्तराखंड का विनाशकारी जल तांडव हो या लाखों को लील लेने वाला भूकंप ।
हम और आप कुछ नहीं कर पाएंगे 😢😢😢😢

Monday 16 October 2017

आज मेरे मन में अपने जैसी महिलाओं के लिए थोड़े विचार आए हैं ।मेरे जैसी महिलाएं से मेरा मतलब उन महिलाओं से है जो नौकरी नहीं करती और खुद को होममेकर कहलाना पसंद करती हैं ।  इस उम्र में,कमोबेश सभी के बच्चे या तो कैरियर के कारण या तो दूर चले गए हैं या फिर अपनी खुद की जिंदगी में व्यस्त हैं ।पति अपने ऑफिस में अत्यधिक व्यस्त और लगभग एक या दो प्रतिशत के साथ ही सास ससुर  साथ होते हैं ।हैसियत के अनुसार घर में खाना बनाने से लेकर हर काम के लिए सहायक मौजूद ।अगर हमारी तरह छोटे शहर में हैं तो मेहमानों की आवाजाही होती है वरना महानगरों में सालों तक कोई मेहमान नहीं ।ऐसे में उन महिलाओं का समय सोशल मीडिया के साथ साथ शॉपिंग और किटी पार्टियों में बीतता है। मैं उन महिलाओं को दोष नहीं देना चाहती हूँ लेकिन ये इस तरह की जिंदगी की इतनी अभ्यस्त हो जाती हैं कि दिनों की बात छोड़ दें  इनके घर  में एक शाम भी  किसी निकटस्थ का आना काफी भारी साबित होता है । अगर हम कुछ समय के लिए अपनी मां या सास के कार्यशैली के विषय में सोचे तो निश्चय ही आधुनिक सुविधा से हीन जिंदगी हमारे जेहन में आएगी ।लकड़ी या कोयले से बने चूल्हे जिन पर खाना बनाने की प्लानिंग घंटे भर पहले करनी होती थी।सील बट्टे पर पिसा जाने वाला मसाला ,घंटों तक मेहनत करके की जाने वाली घर और कपड़े की सफाई और भी बहुत कुछ।हमारे मिथिला के गाँव में भले ही पूरा घर लालटेन और कभी कभी पेट्रोमैक्स से जगमगा जाए औरतों के हिस्से में अर्थात रसोई में एक ढिबरी ही होती थी जिसे लकड़ी के स्टैण्ड जिसे दियेट कहते थे ,आता था ।औऱ इतनी असुविधाओं के बाद  हर घर महीनों रहने वाले मेहमानों से पटा और तारीफ की बात ये किसी एक के मुंह पर शिकन तक नहीं।अब अगर अपने आज को देखे तो हर एक घर वाशिंग मशीन ,माइक्रोवेव ,मिक्सी के साथ साथ सभी आधुनिक सुविधाओं से लैस है लेकिन फिर भी महिलाएं डिप्रेशन में जा रही हैं ।पहले की  औरतें जहां घर के नियमित काम के साथ साथ घंटे भर की मेहनत से पकवान तैयार करना, सिलना ,बुनना और अचार ,बड़ी जैसी हर मौसमी चीज़ों को तैयार रखती थीं अब वो हर चीज़ बाजार में सहज उपलब्ध है ।अगर निहायत ही व्यक्तिगत बात हो तो सैनेट्री नैपकिन जैसी सुविधा से भी हमारी पिछली पीढ़ी वंचित थी । यहां मेरा इन बातों को कहने का अभिप्राय ये बिल्कुल नहीं ये सुविधाए गलत हैं गलत तो हमारी जीवन शैली हो गई है जो हमें कामचोरी की ओर बढ़ा रही है ।इस गलत तरीके के जीवन शैली के कारण हम असमय ही मानसिक तनाव और शारीरिक बीमारियों का शिकार बन रहे हैं।रोज़ाना हम उपाय की तलाश में डॉक्टरों की सलाह ले रहे हैं। खुद को बिजी रखने की चाह में जरूरत के बिना शॉपिंग और पार्टियों की राह खोजते हैं जो एक हद तक ही संभव है ।तो हम विज्ञान को अपनी पीढ़ी के लिए वरदान के रूप में ही ले न कि अभिशाप के रूप में ।हर सिक्के के दो पहलू हैं जिसमें से हमें सकारात्मक को ही अपने लिए चुनना होगा ।

Thursday 21 September 2017

पिछले साल एक शादी में गई थी लड़का किसी सरकारी विभाग में अच्छे पद पर आसीन था और लड़की पढ़ी लिखी घर के काम में दक्ष लेकिन ये आग्रह  लड़के की ओर से किया गया था कि लड़की नौकरीपेशा न हो जबकि आजकल हर योग्य लड़का नौकरीपेशा लड़की चाहता है या हर लड़की अपने कैरियर बनाने के बाद ही शादी करना चाहती है ।ऐसे में इस तरह की शर्त से सभी हैरान । उस शादी में प्रायः सभी मेहमान उस लड़के की पारंपरिक और पिछड़ी सोच का दबे स्वर में आलोचना कर रहे थे लेकिन मैं इस मामले में लड़के के पक्ष में हूँ ।यहां मैं ये स्पष्ट
करना चाहूंगी कि न तो मैं औरतों के नौकरी के खिलाफ हूँ और न उसे किसी भी तरह पुरूष से कमतर आंकती हूँ बल्कि इस लड़के की स्पष्टवादिता ने मुझे काफी प्रभावित किया ।आज हमारे यहां लड़के लड़कियों की शादी की उम्र प्रायः पच्चीस के बाद की होती है जो कि फैसले के लिए यथेष्ट है ।आज कोई  लड़की अपने मेहनत और अपने माता पिता के सहयोग के बाद ही अपने मनचाहे कैरियर को हासिल करती है औऱ उसके बाद ही उसकी शादी की बात सामने आती है तो प्राय लड़की की शादी में उसकी नौकरी को एक गुण के तौर पर देखा जाता है औऱ धूमधाम से शादी हो जाती है लेकिन इसके बाद वो नौकरी पेशा लड़की न तो आने वाले मेहमानों को समय दे पाती है और न ही घंटों की मेहनत से तैयार होने वाले परंपरागत पकवान बना सकती है ।साफ्ताहिक छुट्टियां उसके लिए भी उतनी ही महत्वपूर्ण होते हैं जितने किसी पुरूष के लिए ।ऑफिस की जिम्मेदारी मात्र शादीशुदा औरत होने पर  किसी पुरूष से कम नहीं होती हैं ।तो जब लोग ऊपरी तौर से नौकरी करने वाली लड़की की सिफारिश करते हैं और दोहरी मानसिकता में जीते हुए उस लड़की से वैसी सारी उम्मीद लगाए रहते हैं जो किसी के लिए संभव तो परेशानी शुरू हो जाती है।लेकिन इस मामले में केवल लड़का या उसके माता पिता ही दोषी नहीं होते हैं कई बार अच्छे वर मिलने के कारण लड़की के माता पिता लड़की की नौकरी के फैसले को शादी के बाद लड़के लड़की के ऊपर छोड़ कर शादी करवा देते हैं और फिर जब बाद में घर में कोई भी परेशानी  बढ़े लड़की को उसके पिता का हवाला दे कर नौकरी छोड़ने को कहा जाता हैं ।तो ऐसी स्थिति में आजकल कोई भी  लड़की जिसने  कड़ी प्रतियोगिता के दौर में अपनी नौकरी हासिल की हो उसके लिए घर गृहस्थी और नौकरी के बीच अपनी स्थिति संभालना असंभव हो जाता है ।आज अगर व्यक्तिगत तौर पर मेरी बेटियों की बात हो  तो मैं भी अपने बच्चों के अपने कैरियर के प्रति की मेहनत देखकर कभी भी उसकी इच्छा के विरुद्ध काम छोड़ने की सलाह नहीं दूँगी इस मामले में मैं न सिर्फ अपनी बेटियों बल्कि अपने घर की भाभी या बहू के प्रति मेरे परिवारवालों को एक उदारदृष्टिकोण की सिफारिश करती हूं। यहां प्रश्न उठता है कि इस समस्या का  समाधान क्या हो सकता है ? क्या लड़कियां नौकरी न करें या फिर शादी न करें ? लेकिन इन दोनों में से दोनों ही शायद असंभव है इसके समाधान के रूप में एकमात्र हल ये हो सकता है कि लड़का या लड़की शादी से पहले ही अपने आप को घरेलू काम काज या बाहर के काम की सीमा में न बाँधे अर्थात अगर कोई भी लड़का या उसके परिवारवाले किसी नौकरीपेशा लड़की को अपनी बहू बनाना चाहते हैं  तो उन्हें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा ।बहुत सी ऐसी परिस्थिति होती है जो एक नौकरीपेशा लड़की चाह कर भी नहीं कर सकती ।अपने  पढ़ाई और कैरियर के कारण ये नौकरीपेशा लड़कियां किसी भी घरेलू लड़की की तरह घर के कामों में  निपुण नहीं हो सकती ।इस समय उसे अपने पति और उसके ससुराल वालों के सहयोग की काफी जरूरत होती है क्योंकि कोई भी लड़की घर और बाहर दोनों में हीे  निपुण हो ऐसा सोचना हमारी मूर्खता  है ।                  इसी तरह लड़कियों को भी अपने व्यवहार के द्वारा अपने परिवार को समेटने की कोशिश करनी होगी क्योंकि अगर कोई औरत किसी मुकाम को पाने में सफल होती है तो उसका श्रेय उसके पूरे परिवार को जाता है और पति या पत्नी दोनों को आपसी तालमेल के। साथ आगे बढ़ना है

Thursday 14 September 2017

काफी दिनों से मुझे एक बात बार बार अपील कर रही है कि क्या मानवीय संवेदना और अपने संबंधियों के इतर मानव मात्र के लिए दया का भाव अब सिर्फ गरीबों के हिस्से में है। मैंने अपने दैनिक जीवन में इस बात का अनुभव नजदीक से किया है अगर आप कहीं जा रहे हैं और  आपकी दुपहिया या चारपहिया खराब हो गई या आप दुर्घटनाग्रस्त होकर गिर पड़े तो शर्तिया आपकी गाड़ी या दुपहिया को धकेलने के लिए कोई गरीब ही सामने आएगा ।किसी सुनसान जगह पर अपनी गाड़ी के खराब होने पर  आप लाख हाथ हिला ले कोई गाड़ीवाला शायद ही रुके ।ये अलग बात है कि अक्सर हॉरर  फिल्मों में भूतों का शिकार भी गाड़ीवाले ही होते हैं न कि कोई साइकल सवार 😀😂😀

Sunday 3 September 2017

शायद नौंवी या दसवीं क्लास में हमने एक चैप्टर पढ़ा था On saying pleaseलेखक कौन था मुझे स्मरण  नहीं लेकिन जिस समय उसे पढ़ा वो बिना समझे ही पढ़ा लेकिन उसके संदेश को अब महसूस करती हूँ । कल सुबह सुबह मेरी अपनी काम वाली बाई से बहस हो गई और उसी दौरान मेरी बड़ी बेटी जो होस्टल में रहती है उसका फोन आ गया मैंने बिना किसी गलती के उसे  झिड़क दिया ।शाम में जब मैंने उससे फिर बात की तो उसने बताया कि मुझसे बात करने के बाद उसका अपनी रूममेट से  किसी छोटी सी बात पर अच्छी खासी बहस हो गईऔऱ जब बाई आज मुझसे अपनी गलती के लिए खेद जताते हुए कहने लगी कि मेरी कल अपनी बस्ती में बगलगीर से झपड़ हो गई तो मैंने आपको उल्टा सीधा कह दिया ।जब मैंने इस पूरी घटना पर गौर किया तो मुझे लगा कि  हमारे जीवन में इस तरह के गुस्से या तनाव का एक  चेन चलता है जो एक के बाद दूसरे पर चला जाता हैऔर सम्भवत  वही उस लेखक ने कहना चाहा था ।कई बार हम इसी के कारण  किसी व्यक्ति से ऐसा व्यवहार कर बैठते हैं जो हम सामान्य रूप से सोच भी नहीं सकते हैं या शायद इसी तनाव के कारण हम भी किसी के द्वारा उम्मीद से परे दुर्व्यवहार का शिकार हो जाते हैं और  कहते हैं कि कमान से निकला हुआ तीर और मुँह से निकले शब्द कभी वापस नहीं होते  तो क्या करें मात्र एक बार के भेंट या किसी के उम्मीद से अलग किए व्यवहार को अंतिम सत्य न माने औऱ दुबारा एक मौका जरूर दे।औऱ जहाँ तक अपने व्यवहार को सुधारने की बात तो मेरे अनुसार शायद इसमें आत्ममंथन और वाणी पर नियंत्रण  हमारी सहायता करें ।

Wednesday 30 August 2017

जब किसी बाबा का पर्दाफाश होते देखती हूँ तो मन में ये उम्मीद जगती है कि ये शायद बाबा 
देश के अंतिम बाबा हो जो जनता को बेवकूफ बना रहे हो ।दस दिन नहीं बीतते हैं कि फिर एक बाबा हाज़िर ।शायद लोगो में  अपनी समस्याओं का निदान जल्द   करवाने  की होड़  ही इन रक्तबीज बाबा को जन्म देती  है । लेकिन यहां मुझे ऐसा भी लगता है कि इन बाबा को भी मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जाता है और इनकी काली करतूतों के पीछे एक रैकेट होता है जो इतने बड़े स्तर पर धन ,वासना और भक्ति का जाल बिछाकर रखता है ।सोचने वाली बात यह है कि क्या  सिर्फ एक व्यक्ति इतना बड़ा साम्राज्य स्थापित कर सकता है ?

Sunday 13 August 2017

जब बचपन में किसी सहेली या भाई बहन से जोरदार लड़ाई हो जाती तो हमारे बड़े उस बात को खत्म करने के लिए कहते कि जिससे प्यार होता है  उसी से तो लड़ाई होती है ।सौभाग्यवश उस समय हमारे भाई बहनों में मात्र सहोदर की ही गिनती नहीं होती थी ।अर्थात भाई  बहनों की संख्या काफी होती थी ।एक बार फिर याद आती है जब गर्मी ,जाड़े या किसी के शादी विवाह के अवसर पर हम अपने ददिहाल जाते तो साधारणत माँ और चाची लोगों की परिधि रसोई तक होती और  बाहर के बरामदे पर पापा सभी भाई बहन आपस में बातचीत करते ।ये  बात चीत ,अकसर पॉलिटिक्स पर टिकी होती और कब ये तीखी बहस में बदल जाती उसका कोई  ठिकाना नहीं और एक अंततः पैर पटकता वहाँ से चला जाता लेकिन मुझे ये बात बिल्कुल ही समझ में नहीं आती थी कि कल जिन दो लोगों में इतनी बहस हुई या शायद उस क्षण उन्होंने एक दूसरे का मुंह जिंदगी भर नहीं देखने का फैसला किया वो दूसरे ही दिन इतने समीप कैसे हो गए कि साइकल उठाकर साथ साथ घूमने को  चले गए ! जहां तक रोजाना की बात है शादी होने के पहले तक हम तीनों(भाई बहन) के लड़ाई की भी कई बातें याद आती हैं । अब  उसी लड़ाई ने चिढ़ाने का रूप ले लिया है वो भी बस जरा सभ्यता से ।वो शायद इसलिए की तीनों की मुलाकात की अवधि काफी संक्षिप्त रहती है । शायद उसी चिढ़ाने या झगड़े के कारण हम आज भी  आपस में खुले हुए हैं ।ठीक यही स्थिति मैंने अपने ससुराल में भी पाया जहां काफी बड़ा परिवार , जब किसी भी विशेष पूजा या शादी विवाह के अवसर पर सभी जमा हुए घंटे दो घंटे में किसी एक या दो के बीच विवाद न हो ऐसा संभव नहीं और एक बार जब बात शुरू हो जाए तो फिर बात निकलेगी तो दूर चली जाएगी और परिणामस्वरूप घर वापस आने तक दोनों के मन में ढेर सारा गुस्सा ।लेकिन ये क्रोध दो चार दिनों में समाप्त और चाहे बात मेरे मायके की हो या ससुराल की जब तक अपनों के बीच तू तू मैं मैं होती रहीं आपसी बॉन्डिंग बनी रही अर्थात  छोटे मोटे झगड़ों के बाद भी हम एक दूसरे के दुख सुख से बंधे रहे ।आपसी दूरी तब बढ़ गई जब लोग औपचारिक हो गए और आपस मे बात चीत कुछेक अवसरो तक सिमट गया । तो अब  ये बात मुझे  हर कदम पर याद आती है कि जिससे प्यार होता है तकरार भी उसी से होता है ।तो मेरी ये सलाह है कि चाहे भाई बहन हो या पति पत्नी  आपस में बात करें झगड़े भी करें  औपचारिकता न बरतें ।बस यहां एक बात अत्यंत स्मरणीय हैं कि कोई भी चीज़ उस समय विष बन जाता है जब उसकी अति हो जाती फिर चाहे वो आपसी प्रेम हो झगड़ा ।

Wednesday 9 August 2017

शायद तीन चार दिन पहले पेपर में मुंबई के पॉश इलाके अंधेरी में रहने वालीआशा सहनी की लोमहर्षक मौत के बारे में पढ़ा ।उस दिन से आज तक ये घटना  सभी सोशल मीडिया पर छाई हुई है । कुल मिला कर देखा जाए तो दोषी कौन ? आशा सहनी का नालायक बेटा ।बेटों की नालायकता तो हम औरंगजेब और अजातशत्रु से लेकर कई घटनाओं में देखते आए हैं ।लेकिन क्या इस घटना के पीछे और कोई वजह नहीं ? ये जहां महानगर के खोखले चमक दमक के पीछे छुपी एक अंधकार की ओर इंगित करती है वहीं परिवार के अति संकुचित होने को भी दिखाता है ।ये बात तो सर्वविदित है कि हमारे समाज में सयुंक्त परिवार लगभग खत्म होने की कगार पर है और इसके ह्रास होने का सबसे अधिक खामियाजा बच्चे और बुजुर्ग ही भुगत रहे हैं ।परिवार का निजीकरण होना कोई गलत बात नहीं क्योंकि जब हम विकास की राह में पश्चिम को अपनाएंगे तो हमें अच्छा औऱ बुरा दोनों ही अपनाना होगा ।इसके साथ साथ परिवार के निजीकरण के और भी बहुत से कारण है ।बच्चों की कम संख्या ,शिक्षा का प्रसार और बहुत कुछ ।मैं इसे गलत भी नहीं मानती क्योंकि विकास और जन्म स्थान से बच्चों की दूर बस जाना कोई गलत नहीं ,गलत है लोगों के द्वारा समाज से बनाई गई दूरी ।हम में बहुत से लोग बच्चों की पढ़ाई , कैरियर और अपनी प्राइवेसी के कारण आत्मीय और समाज से एक अलिखित दूरी बना लेते हैं ।जब तक हम शारीरिक रूप से समर्थ हैं या पति पत्नी दोनों जीवित हैं हमें किसी तीसरे की उपस्थिति नागावर लगती है लेकिन दोनों में से किसी एक को पहले जाना है तो उसके बाद उस दूसरे की स्थिति दयनीय हो जाती है ऐसे में बेटा या बेटी अपने कैरियर में  सेट हो जाता है और जिसने बचपन से अपने माता पिता को मात्र अपने को अपने बच्चे तक ही सिमटा हुआ पाया था ,उसकी दुनिया भी अपने बच्चों तक ही रह जाती है और माता या पिता भी उसके लिए एक अवांछित सदस्य बन जाते हैं ।आप बस एक बार  सोच कर देखें कि क्या उक्त महिला का उस बेटा के अलावा मायके और ससुराल का  कोई आत्मीय नहीं था स्पष्टत उसकी दुनिया बस उसके बेटे तक ही सीमित थी हो सकता है कि शारीरिक और मानसिक  अस्वस्थता के कारण के वो अपने लोगों से दूर थी ।मैं नहीं जानती कि उस परिवार का  समाजिक दायरा कैसा था लेकिन आर्थिक रूप से  मजबूत होने के बाद भी बेटा भी अपनों से बहुत अलग था ।इस संदर्भ में मुझे कुछ साल पहले की एक घटना याद आती है जब मैं अपने पति के गॉलब्लेडर के स्टोन के ऑपरेशन के लिए एक निजी नर्सिंग होम गई थी ।वहां एक पेशेंट के ऑपरेशन की जमा की गई रकम इसलिए वापस कर दी गई क्योंकि उसके साथ कोई अटेंडेंट नहीं था जहां वो डॉक्टर और दूसरे स्टाफ़ को अपनी ओर से पूरी सफाई देने में लगा था कि मुझे किसी की जरूरत नहीं मैं अकेला काफी हूँ ! लेकिन ये बात तो लाखों वर्ष पुरानी है ," मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज के बिना रहने वाले मनुष्य की तुलना देवता या दानव से की जाती है "।इस घटना से डरने की नहीं सीखने की जरूरत है कि अपनी व्यस्त दिनचर्या , अपने परिवार और बच्चों के अलावा की दुनिया से भी जुड़ने की कोशिश करें ।