Thursday 23 June 2016

बचपन

हमारे बचपन में  रांची से गाँव तक का सफर काफी रोमांचक लगता था। स्टेट ट्रांसपोर्ट की धुँआ छोडती  बसें  किसी राजधानी  ट्रेन से काम नहीं थी।  काठ पर  ठोकी  रक्सीनवाली  सीटों पर तीनो भाई बहन तीन  तीन घाटियों वाले रास्ते को बहुत ही आनंद से बिताते  थे।चूँकि रास्ता रांची से दरभंगा का होता था तो आते जाते एकाध  मानसिक रोगी तो होते ही थे। उम्र काम थी इसलिए हम उनकी बेतुकी बातो से खूब मज़ा लेते थे। उस समय के बच्चों के लिए गर्मी और जाड़ों की छुट्टियों में केवल नानीघर और दादीघर जाना ही किसी शिमला ,कश्मीर और नैनीताल से काम नहीं था. गांव  पहुँचने पर हम माँ की फटकार से बच जाते थे। मेरे लिए गाव का एक बड़ा  आकर्षण टुकली वाली (मनिहारिन) हुआ करती  थी। उसकी छोटी सी टोकरी मेरे लिए अल्लादीन के चिराग  से बढ़कर था। आँगन में उसके पहुंचते ही हम सभी बच्चे उसे घेर कर खड़े  हो जाते। माँ  की डॉट सुनते ही पलभर को दूर होते और फिर दुबारा हाज़िर। भाइयो को डाँट मिलती कि तुम लोग क्या चूड़ी  पहनोगे ?लेकिन उसके lakme की जगह lookme या pounds का पाउडर हमें किसी भी शहर की नामी दूकान से ज्यादा प्रिय  महसूस होता। क्या नहीं होता था  उसकी टोकरी में ?                                                                                                                                                एक दूसरा आकर्षण हमारे लिए गर्मी के मौसम में जोरदार हवा का चलना था।हवा चली  नहीं कि लालपीसिया (बुआ ) के नेतृत्व में सभी दौड़े  आम चुनने को। माँ या चाची तो बाहर  नहीं सकती थी उनकी दुनिया बस आँगन तक ही थी। किसी को एक, किसी को दो ,कोई  बस दौड़ ही लगाता रहता। कैसी  दुनिया थी, कैसे हम सब थे. वो गाँव की  बातें  वो हमारे गांव का झरिया दुकान जो बचपन से बड़े  होने तक वैसा ही रहा वो आटो वाली  नागफ़नी बिस्कुट ..................


Friday 10 June 2016

EMI

The Never Never Nest यही नाम था उस कहानी का जो मैंने अपने इंटरमीडिएट में पढ़ा था। ये कहानी थी एक ऐसे नवविवाहित जोड़े के बारे में जो अपनी हर सामान को क़िस्त पर खरीदता है यहाँ तक की बच्चे की डिलीवरी की फीस भी। ऐसे में डॉक्टर उनके बच्चे को तब तक के लिए रख लेती है जब तक फीस कीआखिरी क़िस्त चूक न जाए। हर बात में विदेशी समाज हमसे आगे है फिर चाहे वो अच्छी बात हो या बुरी। जिस EMI ने बहुत तेजी से हमारे यहाँ प्रवेश पाया हैवहां वो आज से पच्चीस तीस साल पहले हीअपनी जयह बना ली थी। मैं इस EMI  को गलत या सही साबित करने की योगयता तो नहीं रखती लेकिन  इतना जरूर कह सकती हूँ कि जिस उधार को हमारे बुजुर्गो ने जानलेवा बताया था वही आज के EMI नाम से आसानी से हमारे यहाँ अपनी जगह बना ली है। हमारे बुजुर्ग ये कहते थे की पाँव उतनी ही फैलाए जितनी चादर हो लेकिन अब ये सोचना है की पाँव को फैलाते जाओ चादर खुदही वहां तक आ जाएगी। आज की पीढ़ी गाड़ी मकान जैसी चीज़ो के लिए लम्बा इंतज़ार नहीं कर सकती और करे भी क्यों जब एक से एक लुभावने प्रस्ताव बैंक के साथ कई कंपनियों के मद्धम से उनके दरवाज़े पैर मात्र एक हाँ के इंतज़ार में खड़े है।
महाभारत के एक सर्ग में जब यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है की कौन सा मनुष्य सुखी है तो युधिष्ठिर कहते जो मनुष्य उधार से मुक्त है वही असली सुखी है। आज के दौर में शायद वो दोनों ही असमंजस में पड़ जाते कि किसे सुखी माना जाए। मेरे स्वर्गीय दादाजी जिनके देहांत को करीब एकतालीस साल हो गए उनकी मृत्यु अचानक अपनी नौकरी के लिए जाते हुए ट्रेन में हो गयी थी, अत्यन्त अल्पायु में हुए मौत के बावजूद न उनका कोई उधार बाकी था और न किसी तरह की देनदारी। उलटे कुछ लोग उनसे लिए एडवांस लिए पैसे वापस करने को ही आ गए। नहीं जानती कि मैं ही पीछे हूँ या हमारी पीढ़ी या हमारी ही बहुत आगे निकल गयी है। 

Monday 6 June 2016

नौकरी

प्राचीन काल में हमारा समाज चार श्रेणियों में था। ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र।और जैसा की सर्वविदित है उनके कार्य भी बांटे हुए थे। समय बदला सभी, सभी कामों को करने लगे। फलस्वरूप पढ़ाई न किसी की बपौत्ती रहीऔर न ऐसा कि मात्र क्षत्रिय ही सेना में जाएंगे। लेकिन इन चीज़ो के साथ एक जबरदस्त भावना ने समाज में जन्म ले लिया कि   सभी लोग नौकरी को ही प्राथमिकता देने लगे वो भी सरकारी। चूंकि मैं एक छोटे शहर में रहती हूँ तो यहाँ इस तरह की भावना और अधिक है. और तो और आप चाहे कितने भी उच्चे पद है अगर नौकरी सरकारी नहीं है, आपकी काबिलियत बेकार है। मेरा जनमानस से ये प्रश्न आखिर सरकारी नौकरी क्यों? अगर आप काबिल है तो आपके लिए ये भावना क्या मतलब रखती है? कही इसके पीछे कामचोरी की भावना तो नहीं। मेरा आशय किसी को आहत करना नहीं है। इस तरह की प्रवृति मैंने कभी एक गुजराती या मारवाड़ी समाज में नहीं देखी ये प्रवृति मात्र अपने यहाँ की ही है। एक दूसरी समस्या है कि मैं यह मानती हूँ हममेँ से कोई भी अगरअपने कार्य में योग्य है तो उसे तारीफे काबिल माने।आप सोच कर देखे कि अगर हमारे समाज में सिर्फ नौकरीपेशा ही बच जाए तो सामाजिक रूप कैसा होगा।अगर किसी की डिग्री में हमेशा नंबर एक का तगमा नहीं है और वो आगे चलकर जिस कार्य को कर रहा है उसमें योग्य है तो उससे क्या कहेंगे? हमारे यहाँ हज़ारो की संख्या में लोग बेकार है क्योंकि यहाँ सोचना यह है कि अगर मैंने इस काम किया तो लोग क्या कहेंगे। जब हमारे समाज में अंग्रेज़ो से पहले लघु और कुटीर उद्योग चलाए जाते थे तो शायद लोग काफी सुखी थे। आज अगर चोरी लूट पाट और कई सामाजिक अपराध बढ़ रहे है तो उसके ज़िम्मेदार हम खुद तो नहीं है। बस एक बार सोच कर देखें।   

Wednesday 1 June 2016

तोल मोल

घर तो थोड़ा गली कूची का हीअच्छा होता है। यही सोच कर हमने फ्लैट तो बिलकुल मेन रोड का न ले कर एक गली में लिया. लेकिन पाँव पसारती हुए शहरी आबादी ने इससे कमोबेश मुख्य सड़क का ही रूप दे दिया. रोज की दिनचर्या में अमूमन एक जैसी कबाड़ी वाले की बेसुरी आवाज़, सब्जी और फलवाले की आवाज़ से मेरे कान प्राय: अभ्यस्त हो गए है। उसके साथ एक और चीज़ को मैं सालो से देखती और सुनती आई हूँ। वो है इन कबाड़ी वाले फलवाले और इसी तरह किसी तरह जीविकोपार्जन करने वालो के साथ लोगों की तोल मोल करने की आदत।हो सकता है कि ये काम कभी मैंने भी किया हो। पता नहीं हम लोगो की ये आदत सी बन गई है कि हम मरे को ही मारते है।जिस मोची या सब्जी वाले की दिनभर की आमदनी ही १००- २०० से अधिक नहीं है उसके १० या २० से हमारा क्या बन जाएगा? आपने कभी किसी को मॉल या ब्रांडेड शो रूम में बारगेन करते देखा है। बिलकुल नहीं बल्कि कई  बार हम उन दुकानों पैर २ -४ रु छोड़ कर ही निकल जाते है क्योंकि वो हमारी इज़्ज़त को नीचे दिखाने के बराबर होता है। जिस १०० रु को हम होटल में टिप्स के तौर पर दे देते है वही पैसा एक मज़दूर के पास से  निकलवा कर हममें एक किला फतह करने जैसी भावना आ जाती है। मेरी समझ में ये नहीं आता है वही पैसा बारे शोरूम या रेस्तरॉ में जा कर कैसे अपने महत्व को खो देता है और फिर किसी गरीब के हाथ आते ही हमारे लिए जीवन मरण का प्रश्न बन जाता है.अपने इस तरह के बर्ताव से हम समाज में मेहनत करने वाले एक तबके को कही बुराइयों की ओर तो नहीं धकेल रहे हैं?