घर तो थोड़ा गली कूची का हीअच्छा होता है। यही सोच कर हमने फ्लैट तो बिलकुल मेन रोड का न ले कर एक गली में लिया. लेकिन पाँव पसारती हुए शहरी आबादी ने इससे कमोबेश मुख्य सड़क का ही रूप दे दिया. रोज की दिनचर्या में अमूमन एक जैसी कबाड़ी वाले की बेसुरी आवाज़, सब्जी और फलवाले की आवाज़ से मेरे कान प्राय: अभ्यस्त हो गए है। उसके साथ एक और चीज़ को मैं सालो से देखती और सुनती आई हूँ। वो है इन कबाड़ी वाले फलवाले और इसी तरह किसी तरह जीविकोपार्जन करने वालो के साथ लोगों की तोल मोल करने की आदत।हो सकता है कि ये काम कभी मैंने भी किया हो। पता नहीं हम लोगो की ये आदत सी बन गई है कि हम मरे को ही मारते है।जिस मोची या सब्जी वाले की दिनभर की आमदनी ही १००- २०० से अधिक नहीं है उसके १० या २० से हमारा क्या बन जाएगा? आपने कभी किसी को मॉल या ब्रांडेड शो रूम में बारगेन करते देखा है। बिलकुल नहीं बल्कि कई बार हम उन दुकानों पैर २ -४ रु छोड़ कर ही निकल जाते है क्योंकि वो हमारी इज़्ज़त को नीचे दिखाने के बराबर होता है। जिस १०० रु को हम होटल में टिप्स के तौर पर दे देते है वही पैसा एक मज़दूर के पास से निकलवा कर हममें एक किला फतह करने जैसी भावना आ जाती है। मेरी समझ में ये नहीं आता है वही पैसा बारे शोरूम या रेस्तरॉ में जा कर कैसे अपने महत्व को खो देता है और फिर किसी गरीब के हाथ आते ही हमारे लिए जीवन मरण का प्रश्न बन जाता है.अपने इस तरह के बर्ताव से हम समाज में मेहनत करने वाले एक तबके को कही बुराइयों की ओर तो नहीं धकेल रहे हैं?
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