हमारे बचपन में रांची से गाँव तक का सफर काफी रोमांचक लगता था। स्टेट ट्रांसपोर्ट की धुँआ छोडती बसें किसी राजधानी ट्रेन से काम नहीं थी। काठ पर ठोकी रक्सीनवाली सीटों पर तीनो भाई बहन तीन तीन घाटियों वाले रास्ते को बहुत ही आनंद से बिताते थे।चूँकि रास्ता रांची से दरभंगा का होता था तो आते जाते एकाध मानसिक रोगी तो होते ही थे। उम्र काम थी इसलिए हम उनकी बेतुकी बातो से खूब मज़ा लेते थे। उस समय के बच्चों के लिए गर्मी और जाड़ों की छुट्टियों में केवल नानीघर और दादीघर जाना ही किसी शिमला ,कश्मीर और नैनीताल से काम नहीं था. गांव पहुँचने पर हम माँ की फटकार से बच जाते थे। मेरे लिए गाव का एक बड़ा आकर्षण टुकली वाली (मनिहारिन) हुआ करती थी। उसकी छोटी सी टोकरी मेरे लिए अल्लादीन के चिराग से बढ़कर था। आँगन में उसके पहुंचते ही हम सभी बच्चे उसे घेर कर खड़े हो जाते। माँ की डॉट सुनते ही पलभर को दूर होते और फिर दुबारा हाज़िर। भाइयो को डाँट मिलती कि तुम लोग क्या चूड़ी पहनोगे ?लेकिन उसके lakme की जगह lookme या pounds का पाउडर हमें किसी भी शहर की नामी दूकान से ज्यादा प्रिय महसूस होता। क्या नहीं होता था उसकी टोकरी में ? एक दूसरा आकर्षण हमारे लिए गर्मी के मौसम में जोरदार हवा का चलना था।हवा चली नहीं कि लालपीसिया (बुआ ) के नेतृत्व में सभी दौड़े आम चुनने को। माँ या चाची तो बाहर आ नहीं सकती थी उनकी दुनिया बस आँगन तक ही थी। किसी को एक, किसी को दो ,कोई बस दौड़ ही लगाता रहता। कैसी दुनिया थी, कैसे हम सब थे. वो गाँव की बातें वो हमारे गांव का झरिया दुकान जो बचपन से बड़े होने तक वैसा ही रहा वो आटो वाली नागफ़नी बिस्कुट ..................
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