Saturday 23 February 2019

मेरे घर से कुछ दूर पर एक पार्क है जहां अकसर हमारा  आना जाना रहता है फिर कारण कुछ भी हो। चाहे आलस के कारण  सिर्फ कभी कभार की जाने वाली  मोर्निंग वॉक  हो या बेटी के कारण खरीदने जाने वाले  पार्क के बाहर बिकने वाले वे गोलगप्पे हो ।वहां हमें बहुतायत से स्वास्थ्य के प्रति सजग लोगों की भीड़ दिख जाती हैं ।इन्हीं लोगों के साथ कई ऐसे लोग भी दिखाई देते हैं जो अपने साथ छोटे छोटे बच्चों को घूमाते भी रहते हैं उन लोगों की उम्र देखकर सहज ही ये अंदाज हो जाता है कि ये बच्चे उनके नाती नतनी  या पोते पोती हैं ।कई बार उन्हें बच्चों की मम्मी मम्मी  की लगातार रट के सामने बेबस भी देखा है । लेकिन इसके साथ ही लोगों की फब्तियां  भी गाहे बिगाहे  सुनाई दे देती है कि  इस उम्र में बच्चों की चरवाही करना क्या जरूरी है ? लेकिन जहां तक मैं इस बात की ओर ध्यान देती हूं तो लगता है कि आज इस तरह की परिस्थिति हर उस परिवार की है या भविष्य में होने वाली है जो बेटियों को अपने कैरियर बनाने की ओर प्रेरित कर रहे हैं । अगर हम अपने और अपने आस पास के परिवार की ओर ध्यान दें कमोबेश हमारे बाद की पीढ़ी में शायद ही कोई ऐसी लड़की है जो मात्र शादी करके घर और बच्चों की देखभाल करने को मानसिक रूप से तैयार हो ।बचपन से ही उन सबने  अपने कैरियर को गंभीरता से लिया है और उसके लिए कड़ी मेहनत भी की है ।आज के दौर में लड़कियों की शादी अमूमन उनके पैर पर खड़े होने के बाद ही की जाती है ।शादी के बाद जब बच्चे की बात आती है तो हर नौकरीपेशा माँ परेशान हो जाती है क्योंकि अब संयुक्त परिवार की संख्या न के बराबर रह गई है और अकसर उन जोड़ों के माता पिता भी अपनी नौकरी या अन्य किसी लाचारी के कारण अपने शहर को छोड़ना नहीं चाहते हैं  ।ऐसे में बच्चों की परवरिश सही ढंग से करना एक अहम सवाल हो जाता है ।जहां तक मेरी जानकारी है मातृत्व अवकाश की अवधि किसी शिशु के पालन पोषण के लिए काफ़ी नहीं होती है ।महानगरों के विषय में मैं नहीं जानती लेकिन छोटे शहरों में अच्छे crèche की संख्या नगण्य होती है और नौकरों के भरोसे बच्चों को छोड़ना आज के दौर में बिल्कुल भी ,सुरक्षित नहीं है ।कुछ लोग बच्चों के स्कूल जाने की उम्र तक माँ के नौकरी छोड़ने की सिफारिश करते हैं लेकिन हर माँ के लिए ऐसा करना संभव नहीं क्योंकि हर नौकरी तो ऐसी नहीं होती जिसे दो तीन साल के लिए छोड़ दिया जाए, तो क्या किया जाए ?चाहे कुछ नहीं हो हम अपनी भावी पीढ़ी को इस तरह मझदार में नहीं छोड़ सकते क्योंकि हम अपने सपने को उनकी आँखों से ही  देखते हैं या यूँ कहे किअपने बच्चों की आंखों में जिन सपनों को हमने दिखाया है उन्हें साकार करने में हमें उनकी मदद करनी होगी ।कई बार बेटी या बहू के सहयोग के रूप में  मैंने दादी और नानी को बारी बारी से शिशु  की देख रेख करते हुए भी देखा है ।तो किसी की ओर व्यंग्यात्मक लहजे से देखने के बजाय हम उस नानी या दादी की प्रशंसा करें गोकि उसने अपने बच्चों की मदद करने की कोशिश की है और शायद कल यहीं कोशिश हम भी करें ।