Monday 15 May 2023

कल का दिन माताओं के नाम था । मां तो मां होती है फिर चाहे वो इंसान के रूप में हो या संसार के किसी भी प्राणी के रूप में।
पिछले कुछ दिनों से मेरी बड़ी बेटी जो बैंगलोर में नौकरी के सिलसिले में पिछले डेढ़ सालों से रह रही है बेहद खुश और व्यस्त रहती थी ।वैसे आज कल के बच्चे अपने काम में इतने तल्लीन रहते हैं कि उन्हें  मशीनी जिंदगी जीने की आदत हो जाती है। खैर,बेटी की खुशी का राज यह था कि उसके फ्लैट के बालकनी के हैंगिंग  इनडोर प्लांट में दो  बुलबुलों ने घोंसला बनाना शुरू किया था।धीरे धीरे जैसे जैसे उन पखेरुओ का गृह निर्माण का काम आगे बढ़ता गया  बेटी के साथ साथ हमारी उत्सुकता बढ़ती गई । सफ्ताहांत में दिन में कई कई बार हम वीडियो कॉल के जरिए पहले घोंसले और बाद में उन दो अंडो को देखते। स्कूली कक्षा में पढ़ी कहानी "रक्षा में हत्या" के कारण मैंउसे यथासंभव घोंसले से दूर रहने की सलाह देती । धीरे धीरे उसका घर नन्हें खेचरों की चहचहाहट से भर गया।उसकी दिनचर्या में उनकी उपस्थिति अनिवार्य हो गई और कभी नजदीक जाने पर उनकी छोटी सी मां उसे अपनी चहचहाट से दूर करने का प्रयास भी करती ।अक्सर मेरे  दोनों बच्चे मुझसे पूछते कि एक बार घोंसले से निकलने के बाद क्या फिर वो अपनी मां को पहचान पाएंगे ? और इसी तरह की कई बातें हमारे टेलीफोनिक वार्ता का हिस्सा बन चुकी थी।
इस कहानी का अंत शायद अत्यंत सुखद होता अगर परसों बहुत सुबह बेटी का जोर जोर से रोता हुआ फोन मेरे पास नहीं आता । कुछ देर रोने के बाद जब उसने बताया कि कौवे ने घोंसले में मौजूद दोनो बच्चों को मार दिया और उनकी मां उन्हें बचा नही पाई। अपनी सुबह की नींद को कोसती बेटी लगातार रोती जा रही थी ।
    शायद यही प्रकृति का नियम है जिसके अनुसार हर क्षेत्र में कमजोर ,ताकतवर के द्वारा शोषित होता है ,मेरे पास इन शब्दों में उसे दिलासा देने के अलावा दूसरा कोई वि
वैसे अगर सच कहूं तो मुझे बेटी को समझाने के लिए कहे गए अपने  ही शब्द बेहद खोखले लगते हैं  क्योंकि कमजोरों और निरीहों को दबाने की प्रवृत्ति क्या प्रकृति तक ही सीमित है ?
 

Thursday 4 May 2023

इन दिनों मेरे पति के इंटीरियर वर्क्स के काम के सिलसिले में एक नए बढ़ई को देख रही हूं। अपने काम में निपुण उस बढ़ई की भाषा  सहज में समझ नहीं आती है जिसके कारण उसके साथी बढ़ई उसके बोलने की नकल करके उसका मजाक उड़ाया करते हैं। चूंकि अभी कुछ दिन पहले ही उसने आना शुरू किया है तो उसके और उसके परिवार से मैं अपरिचित हूं। 
जहां दिनभर वो अपना काम पूरी लगन से करता शाम के चार बजे से ही अपने औजार समेटने लगता जबकि दूसरे, सात से पहले जाने का नाम नहीं लेते ।इस विषय पर कितनी ही बार बोलने पर उसपर कोई असर नहीं होता।  कल फिर जब वो साढ़े चार के लगभग घर जाने के लिए बिल्कुल तैयार हो था तो मैंने उससे पूछा कि "आप कहीं दूसरी जगह भी काम करते हैं क्या ? 
नहीं ! सिर हिला कहा ।
फिर ?
शादी के पंद्रह साल के बाद बेटी हुई है, अभी अभी उसने बोलना शुरू किया है और शाम होते ही सो जाती है। शरमाते हुए उसने बताया।
अच्छा ! मैंने रुचि दिखाते हुए कहा।
क्या बोलती है ?
पापा ! और बिल्कुल साफ बोलती है मेरी तरह नहीं !
 छोटी सी बेटी की साफ बोली ने उसके जिंदगी भर के हीन भाव पर एक मलहम का काम किया । 
जेहन में याद आ गई फिल्म कोशिश का  वह दृश्य जब संजीव कुमार और जया भादुड़ी एक मूक वधिर माता पिता की भूमिका में थे और बच्चे के न सुनने से परेशान हो गए थे। 
फिर बेटी के  पिता का "पापा जल्दी आ जाना" की डोर पर खींचा जाना मेरे चेहरे पर मुकुराहट लाने के लिए काफ़ी था।