Thursday 4 May 2023

इन दिनों मेरे पति के इंटीरियर वर्क्स के काम के सिलसिले में एक नए बढ़ई को देख रही हूं। अपने काम में निपुण उस बढ़ई की भाषा  सहज में समझ नहीं आती है जिसके कारण उसके साथी बढ़ई उसके बोलने की नकल करके उसका मजाक उड़ाया करते हैं। चूंकि अभी कुछ दिन पहले ही उसने आना शुरू किया है तो उसके और उसके परिवार से मैं अपरिचित हूं। 
जहां दिनभर वो अपना काम पूरी लगन से करता शाम के चार बजे से ही अपने औजार समेटने लगता जबकि दूसरे, सात से पहले जाने का नाम नहीं लेते ।इस विषय पर कितनी ही बार बोलने पर उसपर कोई असर नहीं होता।  कल फिर जब वो साढ़े चार के लगभग घर जाने के लिए बिल्कुल तैयार हो था तो मैंने उससे पूछा कि "आप कहीं दूसरी जगह भी काम करते हैं क्या ? 
नहीं ! सिर हिला कहा ।
फिर ?
शादी के पंद्रह साल के बाद बेटी हुई है, अभी अभी उसने बोलना शुरू किया है और शाम होते ही सो जाती है। शरमाते हुए उसने बताया।
अच्छा ! मैंने रुचि दिखाते हुए कहा।
क्या बोलती है ?
पापा ! और बिल्कुल साफ बोलती है मेरी तरह नहीं !
 छोटी सी बेटी की साफ बोली ने उसके जिंदगी भर के हीन भाव पर एक मलहम का काम किया । 
जेहन में याद आ गई फिल्म कोशिश का  वह दृश्य जब संजीव कुमार और जया भादुड़ी एक मूक वधिर माता पिता की भूमिका में थे और बच्चे के न सुनने से परेशान हो गए थे। 
फिर बेटी के  पिता का "पापा जल्दी आ जाना" की डोर पर खींचा जाना मेरे चेहरे पर मुकुराहट लाने के लिए काफ़ी था।



 

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