Friday 15 July 2016

बीमारी

जिस तत्परता से कोई भी अनुभवी माँ बाप अपनी सम्पत्ति का बंटवाराअपने बच्चों के बीच करता है ठीक उसी ईमानदारी से विधाता उस माँ बाप की बीमारियों का बंटवारा उनके बच्चों के बीच करता है ऐसा मैंने अपनी जिंदगी में अनुभव किया है। इसे मेरीअतिशयोक्ति भी कह सकते है कि मुझे पूरा विश्वास हैहृदय संबंधी बीमारियां हम भाई बहन भगवान के घर से अपने लिए लेकर आये है।कभी कभी मैं  इस सम्बन्ध में कुछ अधिक ही सशंकित हो उठती हूँ |पिछले महीने जब मैं अपनी रूटीन चेक के लिए डॉक्टर के पास गई और डॉक्टर के पूछने पर  कि आपको  कोई समस्या अभी है क्या ?मैंने अपनी छोटी छोटी परेशानियों को एक लम्बी लिस्ट के रूप में डॉक्टर के सामने पेश किया|अचानक मैंने ये महसूस किया की डॉक्टर की मुख मुद्रा बदल गई और झल्लाते हुए उन्होंने मुझसे कहा "कुछ नहीं हुआ है आपको ,अगर मैं आपको मॉर्निंग वॉक करने को कहूंगा तो आप करेगी नहीं "सब नार्मल है।मैं बिलकुल आश्चर्य में पर गई क्योंकि मैंने उस डॉक्टर को कभी जोर से बोलते भी नहीं सुना था। तभी मेरा ध्यान उस फूल सी बच्ची पर गया जो मुझ से पहले अपनी माँ के साथ डॉक्टर के चेम्बर में गयी थी और जब वो बाहर आई तो मैंने बस उस सुन्दर सी बच्ची से पूछा कि मम्मी को दिखाने आई  हो ?नहीं नहीं मम्मी मुझे दिखाने आई है।अरे,एक कार्डियोलॉजिस्ट के पास बच्चों का क्या काम? मैंने इसे  उसकी नादानी समझ कर कहा, क्या बुखार हैनहीं ,मेरे हार्ट में छेद है. तभी उसकी माँ उसके तमाम रिपोर्ट्स लेकर बाहर आई और कम्पाउण्डर को फीस देने लगी। नहीं, डॉक्टर ने आपसे फीस लेने से मना किया है। वह लडकी इतनी ही मासूम थी कि वो अपनी माँ से सिर्फ इस बात के लिए झगड़ रही थी कि जब ये मेरी रिपोर्ट है तो इसे मैं खुद क्यों नहीं पकड़ सकती हूँ
मैं अपने बर्ताव पर खुद शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। मुझे उस डॉक्टर में फिल्म आनंद के एंग्रीयंग मैंन की छवि वाले अमिताभ बच्चन की याद  गयी जो एक मरीज की बेकार की तकलीफों से झल्ला उठता है। क्यों कभी कभी हम इतने स्वार्थी हो उठते है की हमें दुनिया में अपने सिवा किसी की तकलीफ नज़र ही नहीं आती है और हम खुद को सबसे ज्यादा दुखी महसूस करते है। क्या उम्र थी बच्ची की कि वो इस दुख को झेल रही थी? उस डॉक्टर ने तो अपनी छोटी सी मदद से शायद कुछ आत्मसंतोष पा लिया लेकिन हमारा औरआपका क्या?            

Thursday 7 July 2016

टोकरी में कॉस्मेटिक

सालो पहले मैं सपरिवार दिल्ली  गयी थी वहां  लाल किला में घूमने के क्रम में गाइड ने मीना  बाज़ार नामक जगह का परिचय देते हुए कहा कि  इस जगह पर मुग़ल बेगमें खरीदारी किया करती थी और वहां   पुरुषों का प्रवेश निषेध था। पता नहीं इस बात  में कितनी सच्चाई है लेकिन जब मैं  मन में अपने गाँव  की टुकली वाली के  बारे में सोचती हूँ तो मेरे दिमाग में ये बात आती है कि  बाज़ार की दूरी और पर्दा प्रथा के कारण ही इनका प्रादुर्भाव हुआ होगा। आज से चालीस पचास साल   पहले हमारे गाँव  में औरतो की सीमा रसोई और आँगन तक ही सीमित  थी। प्राय  सभी गांवों  में सभी घरों के पिछवारे से एक रास्ता औरतो के आवागमन के लिए  होता था. मुझे उस समय पैदल के रास्तो में माँ चाची लोगो का पर्दा (जिसे हमारे यहाँ ओहार कहते थे )लगा कर टायरगाड़ी या रिक्शा पर  जाना बड़ा मज़ेदार  लगता था, हम बच्चे कभी ओहार में छिप  जाते और अगले ही पल सर बाहर कर लेते।                                                                                                                                   आज तक मैंने जो भी बाते साझा की वो मात्र मेरे दिमाग की कोरी  उपज थी। लेकिन श्री गिरिंद्रजी के सुझाव पर मैंने टुकली वाली (मनिहारिन) के विषय में और ज्यादा जानकारी पाने की कोशिश  की। इस बारे में मैंने  जिससे पूछा एक पल के लिए वो अपने बीते दिनों की याद में खो गया । उनकी की टोकरी में क्या होता था उसके जवाब में लगभग सभी का एक ही जवाब था क्या नहीं होता था ?क्रीम, पाउडर, कंघी, रंगीन  फीते ,  सिन्दूर आलता  से लेकर साबुन तेल और न जाने क्या क्या। हिमालय  और अफगान स्नो    की  ब्रांडिंग जबरदस्त थी। चूड़ी के बारे में कई  विविधतायें थी जैसे उपनयन की लहठी, शादी की लहठी, दुरागमन की लहठी इत्यादि इन चीज़ो में उनका एकाधिकार था मतलब ये चीज़े आपको मात्र उन्ही के पास मिलती थी। प्लास्टिक की लाल हरी चूड़ियों का लोभ आज भी मुझे उल्लासित कर देता है। बाद के  में उनके टोकरी में कई और सामान जुड़ गए।जैसे  सेफ्टीपिन, प्लास्टिक के डिब्बे ,महिलाओ के  अन्तर्वस्त्र आदि  . एक बात गौर करने की थी इनका इलाका अर्थात इनके गाँव आपस में  बांटे  होते थे और इनका ये खानदानी पेशा हुआ करता था। अपने  प्रतियोगी के प्रति कभी भी ये गद्दारी नहीं करती अर्थात किसी के क्षेत्र में कोई दूसरी नहीं बेचने नहीं आती थी फिर चाहे लोगो को उनके  लिए कितना भी इंतज़ार करना पड़े  . अपनी दादी को मैंने उन्हें बार बार बुलावा  भेजते हुए  देखा है। यादाश्त इतनी तेज की किसकी  बेटी का क्या नाम है कौन सी बहु कब आएगी और अगले लगन में किसकी शादी है ये तो उगली  पर  गिनती करने वाली बात है। मार्केटिंग इतनी अच्छी की हम शहर के लोग शहर के  दुकानों को भूल जाए। बाद में चाहे उनके नकली पायल को उतार फेंके लेकिन उस वक़्त तो वो सोने से भी बेशकीमती लगता  था। किसी भी शुभ कार्य में उनकी बुलाहट होती और मात्र एक आध घंटे में पूरी घर की औरतो और बच्चियों  का हाथ लाल गुलाबी चूड़ियों  से भर जाता। किस बहु को केवल लाल ही चूड़ियों  की चाहत  है कौन सी बहु  बिना सुनहली चूड़ियों  की  मजबूत किलाबंदी के बिना चूड़ियों को   नहीं पहनती , ये तो उनके लिए बाएं हाथ का खेल था। इन के साथ एक काम में ये बड़ी  दक्ष्य होती थी वो थी  शादी विवाह के बारे में इनकी रिपोर्टिंग और लोगो का इनके प्रति विश्वास   । चूँकि हमारे यहाँ की शादियों  का दायरा सीमित  था और इनका प्रवेश घर के अंदर तक था तो ये किसी भी लडके  लडकियाँ और गृह विशेष से पूर्ण परिचित होती थी। कभी बैठ कर सोचती हूँ तो एक पूरे  बांह  और पेट तक ढकी कुरता नुमा ब्लाउज पहने नीचे  घाघरा और एक मैले सूती कपड़े से सर ढके एक औरत गले में  चांदी की हसली पहने पान खा कर सर पर एक टोकरी लेकर आँगन में घुस रही है ,उसके पीछे अपने खेल को आधा छोड़  कर दौडते बच्चों में अपने आप को भी देखती हूँ जो अपनी पूरी ताकत से माँ को आवाज़ दे रही है "माँ टुकली वाली एलौ "

Sunday 3 July 2016

हमनी के पटना

जिस दिन मैंने मुंबई के बारे में कुछ लिखा बस उसी दिन से मैं दो शहरों के बारे में सोच के अपराधबोध से भर उठती हूँ। पहली  रांची ,जो कि मेरी जन्मस्थली है और दूसरी पटना जो की मेरी कर्मभूमि है। बच्चे को अपनी माँ को हर हाल में ही पसंद होती है इसलिए रांची तो मुझे हर हाल में अच्छी ही लगती है तो अब पटना की बारी आती है। बचपन में मैंने मुंबई के बारे में दो बाते सुनी थी। पहली की वहां बेहद भीड़ होती है और दूसरी वहां कभी रात नहीं होती। जब मैं माँ पापा के साथ छुटपन में पटना आती तो पटना में इन  दोनों ही चीज़ो को पाती तो  दिनों तक मन में ये सोचती कि मुंबई भी कुछ ऐसा ही होगा। 
   
पटना के बारे में जब मैं पढ़ रही थी तो मुझे एक बात पता चली कि लंदन के पास एक पटना गाँव है जो हमारे पटना से बहुत छोटा है। हमारा पटना जो कभी अजीमाबाद ,कभी कुसुमपुर और पाटलिपुत्र होते हुए पटना पर आ कर ठहरा वो सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से बेहद समृद्ध है। चूंकि हमारे बहुत से रिश्तेदार यहाँ बहुत ही पहले से रहते थे तो यहाँ की काफी बाते मुझे ज्ञात है।वो सत्तर का दशक था जब दशहरे और दिवाली के बीच शायद ही कोई ऐसा क्लासिकल और फिल्मी गायक होगा जिसने अपनी एक शाम पटनावासिओ के नाम न की हो। बात अगर कॉलेज की हो पटना कॉलेज, पटना साइंस कॉलेज, पटना विमेंस कॉलेज का शायद ऐसा असर था कि लोग इस जगह की तुलना कभी ऑक्सफ़ोर्ड से करते थे। एक बात यहाँ की ख़ास है कि कृषिप्रधान क्षेत्र होने के कारण यहाँ के गाँव काफी समृद्ध थे। यहाँ के वो ढिबरी वाले रिक्शे मुझे बचपन में बड़े आकर्षित करते थे। 

आज का पटना कई तरह से बदल चूका है। बदलाव तो प्रकृति का नियम है इसलिए बदलना तो निश्चित है और हमें हर हाल में इससे स्वीकारना ही होगा, कभी मैं यहाँ रात के दो तीन बजे भी ट्रेन से उतर कर बिना किसी भय के घर आ चुकी हूँ अब यहाँ की रोड निरापद नहीं हैं इसलिए रात के नौ बजे ही सशंकित हो उठती हूँ। राजनीति यहाँ की आबोहवा में इतनी पैठ बना चुकी है कि हर चौक चौराहे पर हरेक शख्स इतने विश्वास के साथ बाते करता है कि कोई बाहरी शायद यह सोच सकता है कि इसकी मुख्यमंत्री के साथ रोज़ की मुलाकात है। शायद  इसका कारण यहाँ का लम्बा राजनैतिक  इतिहास रहा हो।दूसरी बात जो मुझे सबसे अधिक चोटिल करती है वो यहाँ की जातिगत भावना। बचपन से जिस दिन तक मैंने रांची में पढ़ाई की मैंने कभी इस बात को ध्यान भी नहीं दिया कि मेरी कौन सी सहपाठी किस उपजाति से है /इस नाम पर हमें मात्र इतना मालूम था कि भारत में चार धर्म के लोग हैं। लेकिन यहाँ नेताओं के स्वार्थ पूर्ण नीति के कारण एक हिन्दूजाति ही कितनी उपजाति में बंटा है वो बेहिसाब है।                                                 
मेरे ससुराल का परिवार काफी बड़ा है.पहले तो प्राय सभी पटना ही रहते थे। अब नौकरी पढाई के कारण जो भी शहर से बाहर गए है छुट्टियों में कही दूसरी जगह घूमने के बजाय पटना ही आना चाहते हैं क्योंकि उनके अनुसार पटना तो पटना है फिर वजह चाहे यहाँ की छठ पूजा हो, चन्द्रकला मिठाई हो या पटनिया परवल।      

Saturday 2 July 2016

सम्बन्ध या अनुबंध

वो ३० जून की सुबह थी सामने वाले पड़ोसी  से आमना सामना हुआ तो जितनी गर्मजोशी से उसने पूछा क्या हाल है ? मेरी आँखे नम हो उठी हाँ बस ठीक ही है। मेरे एक मामा नहीं रहे। अरे,अरे कैसे मामा थे ? मैंने कहा बस बहुत ही नज़दीकी। मतलब कैसी रिश्तेदारी थी? मन रो उठा क्या खून का रिश्ता ही हमारे लिए सब कुछ है? कितने ही ऐसे रक्त संबधी जिन्हे हमने कभी देखा भी नहीं है और हम पहचानते भी नहीं. क्यों ऐसा होता है कि हम अपने मन की वेदना किसी भी ख़ास रिश्तेदार के पास खोल नहीं पाते और उस दोस्त को अपना हर दुःख कह देते है जो कभी कभी  हमारी बिरादरी का भी नहीं होता. स्वर्गीय धीरेंद्रनाथ झा हमारे अत्यन्त ही स्नेही मामा थे जिन्हे हमने हमेशा अपना मामा ही समझा। बचपन की एक तस्वीर जब मामा बंगलोर  से ट्रांसफर हो कर रांची आए थे और एक शाम हमारे घर आए थे साथ में मामी और मेरे और दीदी की हमउम्र दो बेटियां...माँ के कहने पर हमने प्रणाम किया और जाकर चुपचाप बैठ गयी। हँसते हुए मामा ने पास बुलाया सुनो तुम लोगो डोसा इडली पसंद है। हाँ बहुत, तुम्हारी मामी बनाती है। मेरी आँखे विस्मय से फैल गयी. आज से तीस पैतीस साल पहले डोसा इडली घर पर बनाना इतना आसान नहीं था। ये आज की बात नहीं है कि झट या तो मिक्सी में घोल तैयार किया और नॉन स्टिक तवा  पर डोसा बना लिया। अब तो घोल भी हर तीसरे दूकान में उपलब्ध है।जहां तक मुझे याद है हमारी रिश्तेदारी उसी दिन से शुरू हो गयी। उसके बाद तो हमने कितने दशहरे के मेले को एक साथ घूमा और कितनी ही होलियाँ साथ मनाया। बीच बीच में ट्रांसफर के कारण वो बाहर भी रहे लेकिन वो सम्बन्ध की डोर बनी रही। मामा के अत्यंत विनोदी स्वभाव ने उन्हें सबका प्रिये बनाया था। मेरी शादी के बाद जब भी मिलते कोई बात होती मुझे कहते कर दू तुम्हारी सास से शिकायत ?                              और जब ऐसे में जब कोई पूछता है कि किस तरह से सम्बन्ध....क्या कहूं ?