Thursday, 7 July 2016

टोकरी में कॉस्मेटिक

सालो पहले मैं सपरिवार दिल्ली  गयी थी वहां  लाल किला में घूमने के क्रम में गाइड ने मीना  बाज़ार नामक जगह का परिचय देते हुए कहा कि  इस जगह पर मुग़ल बेगमें खरीदारी किया करती थी और वहां   पुरुषों का प्रवेश निषेध था। पता नहीं इस बात  में कितनी सच्चाई है लेकिन जब मैं  मन में अपने गाँव  की टुकली वाली के  बारे में सोचती हूँ तो मेरे दिमाग में ये बात आती है कि  बाज़ार की दूरी और पर्दा प्रथा के कारण ही इनका प्रादुर्भाव हुआ होगा। आज से चालीस पचास साल   पहले हमारे गाँव  में औरतो की सीमा रसोई और आँगन तक ही सीमित  थी। प्राय  सभी गांवों  में सभी घरों के पिछवारे से एक रास्ता औरतो के आवागमन के लिए  होता था. मुझे उस समय पैदल के रास्तो में माँ चाची लोगो का पर्दा (जिसे हमारे यहाँ ओहार कहते थे )लगा कर टायरगाड़ी या रिक्शा पर  जाना बड़ा मज़ेदार  लगता था, हम बच्चे कभी ओहार में छिप  जाते और अगले ही पल सर बाहर कर लेते।                                                                                                                                   आज तक मैंने जो भी बाते साझा की वो मात्र मेरे दिमाग की कोरी  उपज थी। लेकिन श्री गिरिंद्रजी के सुझाव पर मैंने टुकली वाली (मनिहारिन) के विषय में और ज्यादा जानकारी पाने की कोशिश  की। इस बारे में मैंने  जिससे पूछा एक पल के लिए वो अपने बीते दिनों की याद में खो गया । उनकी की टोकरी में क्या होता था उसके जवाब में लगभग सभी का एक ही जवाब था क्या नहीं होता था ?क्रीम, पाउडर, कंघी, रंगीन  फीते ,  सिन्दूर आलता  से लेकर साबुन तेल और न जाने क्या क्या। हिमालय  और अफगान स्नो    की  ब्रांडिंग जबरदस्त थी। चूड़ी के बारे में कई  विविधतायें थी जैसे उपनयन की लहठी, शादी की लहठी, दुरागमन की लहठी इत्यादि इन चीज़ो में उनका एकाधिकार था मतलब ये चीज़े आपको मात्र उन्ही के पास मिलती थी। प्लास्टिक की लाल हरी चूड़ियों का लोभ आज भी मुझे उल्लासित कर देता है। बाद के  में उनके टोकरी में कई और सामान जुड़ गए।जैसे  सेफ्टीपिन, प्लास्टिक के डिब्बे ,महिलाओ के  अन्तर्वस्त्र आदि  . एक बात गौर करने की थी इनका इलाका अर्थात इनके गाँव आपस में  बांटे  होते थे और इनका ये खानदानी पेशा हुआ करता था। अपने  प्रतियोगी के प्रति कभी भी ये गद्दारी नहीं करती अर्थात किसी के क्षेत्र में कोई दूसरी नहीं बेचने नहीं आती थी फिर चाहे लोगो को उनके  लिए कितना भी इंतज़ार करना पड़े  . अपनी दादी को मैंने उन्हें बार बार बुलावा  भेजते हुए  देखा है। यादाश्त इतनी तेज की किसकी  बेटी का क्या नाम है कौन सी बहु कब आएगी और अगले लगन में किसकी शादी है ये तो उगली  पर  गिनती करने वाली बात है। मार्केटिंग इतनी अच्छी की हम शहर के लोग शहर के  दुकानों को भूल जाए। बाद में चाहे उनके नकली पायल को उतार फेंके लेकिन उस वक़्त तो वो सोने से भी बेशकीमती लगता  था। किसी भी शुभ कार्य में उनकी बुलाहट होती और मात्र एक आध घंटे में पूरी घर की औरतो और बच्चियों  का हाथ लाल गुलाबी चूड़ियों  से भर जाता। किस बहु को केवल लाल ही चूड़ियों  की चाहत  है कौन सी बहु  बिना सुनहली चूड़ियों  की  मजबूत किलाबंदी के बिना चूड़ियों को   नहीं पहनती , ये तो उनके लिए बाएं हाथ का खेल था। इन के साथ एक काम में ये बड़ी  दक्ष्य होती थी वो थी  शादी विवाह के बारे में इनकी रिपोर्टिंग और लोगो का इनके प्रति विश्वास   । चूँकि हमारे यहाँ की शादियों  का दायरा सीमित  था और इनका प्रवेश घर के अंदर तक था तो ये किसी भी लडके  लडकियाँ और गृह विशेष से पूर्ण परिचित होती थी। कभी बैठ कर सोचती हूँ तो एक पूरे  बांह  और पेट तक ढकी कुरता नुमा ब्लाउज पहने नीचे  घाघरा और एक मैले सूती कपड़े से सर ढके एक औरत गले में  चांदी की हसली पहने पान खा कर सर पर एक टोकरी लेकर आँगन में घुस रही है ,उसके पीछे अपने खेल को आधा छोड़  कर दौडते बच्चों में अपने आप को भी देखती हूँ जो अपनी पूरी ताकत से माँ को आवाज़ दे रही है "माँ टुकली वाली एलौ "

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