Monday 23 January 2023

पूस बीतते ही फिर से शादी ब्याह शुरू हो गए हैं और कार्ड्स आने लगे हैं लेकिन अब इन कार्ड्स के साथ आने लगे हैं एकल परिवार से संबंधित एक परेशानी। वैसे बहुतों को ये बातें शायद ही पुरानी लगें।
   आज किसी भी  परिवार में पूरे लगन में अगर  चार औपचारिक कार्ड्स आते हैं तो उनमें से दो Mr. &Mrs. के नाम से रहते हैं। इस परिस्थिति में वैसे दंपति जिनके छोटे बच्चे हैं और वे अपने  बच्चों के साथ शहरों में रहते हैं,शादी और समारोह के इस तरह आमंत्रण के कारण तनाव में आ जाते हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे इस तरह की परेशानी से कभी रूबरू नहीं होना पड़ा क्योंकि मैं हमेशा सौभाग्यवश अपनों के साथ ही रही तो बच्चे हमेशा मेरी अपेक्षा अपने दादा दादी के साथ खुश ही  रहते थे।इस संबंध में मेरी एक सहेली, जिनकी सासु मां का देहांत हो चुका है और साथ में वृद्ध ससुरजी रहते हैं,का कहना है कि बच्चों से भी अधिक समस्या  बुजुर्गो की हो जाती हैं क्योंकि नौनिहालों को छोड़कर आज कल के बच्चे तो वैसे भी कहीं भी जाना नहीं चाहते हैं लेकिन बुजुर्गों के पल्ले ये बात नहीं आती कि जब एकाध के आने से रोजाना के भोजन में फर्क नहीं पड़ता तो भोज भात में तो पच्चीस पचास लोग से क्या फर्क पड़ेगा ।ये बात अलग है कि उस समय के समारोह में दस लोगों के बराबर का खाना बर्बाद होना भी मामूली बात थी ।
   दूसरी तरफ अगर दूसरे पक्ष की ओर से देखा जाए तो शादी ब्याह अब प्राय होटलों या मैरिज हाल में होने लगे हैं जो काफी खर्चीले होते हैं ।किसी भी शादी का खर्च अब  हजारों में  नहीं बल्कि लाखों में होता है । पहले परिवार के लोग प्राय: एक साथ, एक ही घर या आस पास के स्थानों में रहा करते थे ,किसी भी समारोह को मिल जुल कर निपटा लिया करते थे ।वो समय ही ऐसा था जब घर ही नहीं बल्कि अगल बगल की औरतें मिलकर रसोई संभाल लेती थी और पड़ोसियों के घरों में आने जाने वालों को ठहराया जाता था । जबकि आज के परिवेश में joint family के टूटने , शिक्षा और रोजी रोटी के  प्रसार के कारण लोग काफी दूर हो गए हैं और किसी भी शादी या समारोह का भार कुछेक लोगों पर आ गया है जिसमें भोजन से लेकर रहने की जिम्मेदारी और तमाम कार्य उन्हें ही करना है जो  मात्र पैसों के बल ही हो पाता है तो समारोह में मेहमानों की संख्या को सीमित संख्या  करना लोगों की लाचारी बनती जा रही  है नतीजन पहले मजबूरी और बाद में प्रचलन के कारण हम इस तरह के आयोजनों के आदी होते जा रहे हैं।
 किसी भी नई व्यवस्था के अच्छे बुरे दोनों ही पक्ष होते हैं ।तो अगर इन समारोहों के बफे सिस्टम को देखा जाए तो इसमें खाने की बरबादी कम होने की गुंजाइश होती है साथ ही श्रम  और समय दोनों की काफी बचत होती है । रोज़गार के क्षेत्र में भी इस दिशा में अपार गुंजाइश है जो शायद  Event Management कहला रहा है।
तो बस भूल जाना होगा पुराने समय के उन समारोहों को जिसमें बड़े बड़े विराट बर्तनों में भोज भात का आयोजन होता था और थालियों में ना ना करने के बाद भी भाभी या चाची पूड़ी डाल देती थी । 
"छोड़ो कल की बातें......

Tuesday 3 January 2023

     सुबह रेडियो पर सुना कि स्वर्गीय सावित्री बाई फुले जी की आज  जन्मतिथि है एक ऐसी विलक्षण नारी जिन्होंने  1848में  तमाम विरोधों के बावजूद समाज में नारी शिक्षा का अलख जगाया। न केवल नारी शिक्षा बल्कि बाल विवाह , छुआ छूत और समाज में शामिल कई कुरीतियों का उन्होंने डट कर विरोध किया। आज भले ही इस तरह की बातें सहज मालूम होती हैं लेकिन उस समय किसी महिला के लिए इस तरह के सुधार  करना असंभव नहीं तो कठिन जरूर था ।
 यहां जब बात स्त्री शिक्षा की आती हैं तो जेहन  में कुछ ऐसी महिलाओं का नाम आता  है जिन्होंने  तमाम मुश्किलों को दूर करते हुए समाज में अपना स्थान बनाया। इस पोस्ट को लिखने से पूर्व यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि हमारा  मैथिल  समाज, स्त्रियों की शिक्षा के विषय में बरसों तक अनुदार ही रहा है। बाल विवाह के नाम पर हमसे एक पीढ़ी ऊपर  तक की महिलाओं की शिक्षा परंपरागत रूप से नाम गाम लिखने और विवाह के लिए खाना बनाने एवम अरिपन ,कोहबर  सीखने तक ही  सीमित थी । ऐसे में किसी परिवार में घर की बहु बेटियों  को उदार मायका या ससुराल पक्ष मिल जाए तो उनकी शिक्षा आगे बढ़ जाती थी। उदाहरण के तौर पर उस जमाने में हमारे दादाजी ने विवाह में  बहुओं के लिए  मैट्रिक पास होने को एक  आवश्यक प्रावधान बना दिया था । 
काबिलेतारीफ कह सकती हूं अपनी बुआ और सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती नीरजा रेणु को । जिन्होंने छोटी उम्र में विवाह और कई सामाजिक मुश्किलों का सामना करते अपने मुकाम को हासिल कर लिया ।भाइयों को पढ़ाने वाले शिक्षक को सुन कर शुरू की गई पढ़ाई ,जहां लोग हर छोटी बात में अपने नाम को लेकर बेहद सतर्क रहते हैं वहीं तत्कालीन सामाजिक स्थिति के कारण एक छदम नाम के जरिए साहित्य अकादमी पुरस्कार को हासिल करना निश्चय एक लंबी लड़ाई रही होगी । 
 यद्यपि वक्त के साथ हमारा समाज बदल गया है ।अब बेटियों को मात्र विवाह के लिए ही नहीं  मनचाहा कैरियर पाने के लिए पढ़ाया जाता है ।आज के माता पिता बेटियों को पढ़ाई के बीच में विवाह के लिए बाध्य नहीं करते हैं । अब हमारे समाज के लोग भी बेटियों की शिक्षा के खर्च को विवाह में किए गए खर्च की तरह आवश्यक समझते हैं । ये बदलाव न केवल  हमारे समाज में  बल्कि मेहनत करने वाले मजदूर वर्ग में भी  आ चुका है ।     स्त्रीशिक्षा के जरिए अपने जीवन स्तर को अच्छी बनाने की पहल शहर से लेकर गांव तक में शुरू हो चुकी है।