Tuesday, 3 January 2023

     सुबह रेडियो पर सुना कि स्वर्गीय सावित्री बाई फुले जी की आज  जन्मतिथि है एक ऐसी विलक्षण नारी जिन्होंने  1848में  तमाम विरोधों के बावजूद समाज में नारी शिक्षा का अलख जगाया। न केवल नारी शिक्षा बल्कि बाल विवाह , छुआ छूत और समाज में शामिल कई कुरीतियों का उन्होंने डट कर विरोध किया। आज भले ही इस तरह की बातें सहज मालूम होती हैं लेकिन उस समय किसी महिला के लिए इस तरह के सुधार  करना असंभव नहीं तो कठिन जरूर था ।
 यहां जब बात स्त्री शिक्षा की आती हैं तो जेहन  में कुछ ऐसी महिलाओं का नाम आता  है जिन्होंने  तमाम मुश्किलों को दूर करते हुए समाज में अपना स्थान बनाया। इस पोस्ट को लिखने से पूर्व यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगी कि हमारा  मैथिल  समाज, स्त्रियों की शिक्षा के विषय में बरसों तक अनुदार ही रहा है। बाल विवाह के नाम पर हमसे एक पीढ़ी ऊपर  तक की महिलाओं की शिक्षा परंपरागत रूप से नाम गाम लिखने और विवाह के लिए खाना बनाने एवम अरिपन ,कोहबर  सीखने तक ही  सीमित थी । ऐसे में किसी परिवार में घर की बहु बेटियों  को उदार मायका या ससुराल पक्ष मिल जाए तो उनकी शिक्षा आगे बढ़ जाती थी। उदाहरण के तौर पर उस जमाने में हमारे दादाजी ने विवाह में  बहुओं के लिए  मैट्रिक पास होने को एक  आवश्यक प्रावधान बना दिया था । 
काबिलेतारीफ कह सकती हूं अपनी बुआ और सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती नीरजा रेणु को । जिन्होंने छोटी उम्र में विवाह और कई सामाजिक मुश्किलों का सामना करते अपने मुकाम को हासिल कर लिया ।भाइयों को पढ़ाने वाले शिक्षक को सुन कर शुरू की गई पढ़ाई ,जहां लोग हर छोटी बात में अपने नाम को लेकर बेहद सतर्क रहते हैं वहीं तत्कालीन सामाजिक स्थिति के कारण एक छदम नाम के जरिए साहित्य अकादमी पुरस्कार को हासिल करना निश्चय एक लंबी लड़ाई रही होगी । 
 यद्यपि वक्त के साथ हमारा समाज बदल गया है ।अब बेटियों को मात्र विवाह के लिए ही नहीं  मनचाहा कैरियर पाने के लिए पढ़ाया जाता है ।आज के माता पिता बेटियों को पढ़ाई के बीच में विवाह के लिए बाध्य नहीं करते हैं । अब हमारे समाज के लोग भी बेटियों की शिक्षा के खर्च को विवाह में किए गए खर्च की तरह आवश्यक समझते हैं । ये बदलाव न केवल  हमारे समाज में  बल्कि मेहनत करने वाले मजदूर वर्ग में भी  आ चुका है ।     स्त्रीशिक्षा के जरिए अपने जीवन स्तर को अच्छी बनाने की पहल शहर से लेकर गांव तक में शुरू हो चुकी है। 

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