Friday 31 May 2019

शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मचर्य जीवन जीवन का एक अहम हिस्सा है और इस दौरान उपनयन, विवाह आदि  को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।  अगर हम उपनयन की बात करे तो  एक वैदिक रीति है और इसके बाद ही कोई बालक ब्राह्मण कहलाता है ।जैसा कि हमारे सभी पूजा पाठ में बांस ,मिट्टी और लकड़ी के सामानों की अहमियत होती है ठीक वैसे ही इस संस्कार में  इन सबके साथ जुलाहे तक की अहमियत को भुलाया नहीं जा सकता ।जैसा कि मैंने पिछले दिनों हुए अपने भतीजे के जनेऊ में ऐसा महसूस किया कि संभवत प्राचीन काल में लड़कों को इस संस्कार के बाद मातृ भिक्षा के बाद अपनी पोटली लेकर लकड़ी के खराम(चप्पल) और हथकरघा के बुने वस्त्र पहन कर रथ की सवारी करते हुए गुरुकुल जाना पड़ता था । आज के समय में ये सारी चीजें प्रतीकात्मक रूप में बची हैं ।   मेरे अनुमान के अनुसार आज के दौर में कुछ ही  बालक जनेऊ में कराए गए नियमों का पालन अपने पिता या पितामह की तरह जीवन पर्यन्त करते हैं  अथवा खाने पीने संबंधी निषेधाज्ञा को मानते हैं  ।अगर हम इस संस्कार के द्वारा किसी लड़के के विवाह के लिए योग्य होने की समाज में आधिकारिक घोषणा माने तो यह कारण भी बढ़ते हुए अंतरजातीय विवाह को देखते हुए बेकार ही कहे जाएंगे। अगर पिछले दस बीस साल पहले के जनेऊ के खर्च से इसकी तुलना की जाए तो इसमें बेहताशा वृद्धि हुई है जबकि अगर इसमें होने वाले नियमों की बात करें तो वे धीरे धीरे रस्मी तौर ही निभाए जा रहे हैं ।जहां पहले के दिनों में ये आयोजन लगभग दस दिनों का हुआ करता था अब ये सिमट कर एक से दो दिनों का रह गया है ।  समय सीमा कम होना या नियमों के विषय में उदारवादी होने के बावजूद ये नई  पीढ़ी इसके लिए अच्छा खासा उत्साहित दिखाई देने लगा है । हर दंपती को ये मालूम है कि  अपने बेटे को भविष्य में इन नियमों की आवश्यकता कभी कभार ही पड़ेगी और इस मद में पैसा या समय की काफी जरूरत है लेकिन फिर भी महानगर ही नहीं विदेशों से भी  जनेऊ करवाने के लिए आने वालों की काफी संख्या है ।इस आयोजन या संस्कार का रूप धीरे धीरे बदलता जा रहा है ।पहले इसे एक यज्ञ के रूप में देखा जाता था वही अब इसने एक इवेंट या फैमिली गेट टू गेदर का रूप ले लिया है ।पहले  विवाह ,मुंडन या जनेऊ आदि में  जाने  की  सीमा  अपने गाँवो तक सीमित थी लेकिन अब लोग दोस्तों और रिश्तेदारों के पारिवारिक उत्सव को लोग दूर शहर तक अटेंड करना चाहते हैं। इस बदलाव के कारणों पर अगर
गौर किया जाए तो पहला कारण पारिवारिक सदस्यों का अपने घरों से दूरी कहा जा सकता है ।अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से मिलने के लिए हमें किसी बहाने की जरूरत पड़ती है क्योंकि पहले की तरह लोगों का छुट्टियों में रिश्तेदारों के घर जाने का प्रचलन लगभग नहीं के बराबर है ।दूसरी ओर लोगों में पहले के मुकाबले आर्थिक संपन्नता बढ़ने के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्ति है ।पहले अगर परिवार की परिभाषा दी जाए तो उसमें किसी कमाने वाली की जिम्मेदारी उसके माँ बाप के साथ साथ सभी भाई बहन और उनके बच्चे हुआ करते थे जिनकी पढ़ाई और विवाह आदि से वो ताउम्र घिरा रहता था अब परिवार की प्राथमिकता में व्यक्ति खुद और उसके बच्चे  मात्र हैं ,अन्य कारणों की ओर सोचे तो लोग पहले से ज्यादा शौकीन हो गए हैं अब मात्र उनकी जरूरत रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं है तो इस तरह के उत्सवों में सबका ध्यान जाने लगा है ।सौभाग्य से मैं उस समाज से संबंध रखती हूं जहाँ बेटी की शादी तक में दहेज तो दूर की बात माँ बाप के लेन देन संबंधी टीका टिप्पणी को भी हेय दृष्टि से देखा जाता था वहीं हर जगह लेने देने का स्तर काफी बढ़ गया है ।विवाह के साथ संगीत और मेहंदी जैसी बातें जो हमारे समाज के लिए अनदेखी थीं वो जुड़ गई हैं। तो सौ बात की एक बात की यह भी एक सामाजिक परिवर्तन है क्योंकि इस तरह का आयोजन मात्र उपनयन तक ही सीमित नहीं है बल्कि मुंडन ,गृहप्रवेश या अगर कुछ और नहीं तो सालगिरह,शादी की सालगिरह या पूरे साल आने वाले विभिन्न प्रकार के" डे" तक को लोग आयोजित करना चाहते हैं और किसी भी बदलाव के अच्छे और बुरे दोनों ही असर होते हैं जिसे हमें स्वीकार करना  ही पड़ता है ।

Wednesday 15 May 2019

छोटी बेटी को Exam दिलवाने बनारस जा रही हूं ।  अभी चार दिन पहले सासुमां हॉस्पिटल से घर आई हैं । ऐसे में बेटी को लेकर जाना मुझे चिड़चिड़ा बना  रहा है ।तंग आकर मैंने कहा इन यूनिवर्सिटीज वालों ने पता नहीं ऐसा क्यूं किया ।फॉर्म भरने के समय पटना को पहला विकल्प दिया था ।तो at least लड़कियों को तो अपने शहर का केंद्र देना था ।                              क्यों ? हर जगह तो तुम्हें बराबर का हक चाहिए ,हम लड़कियां लड़कों से कहीं भी कम नहीं तो यहां क्यूं ?                            पति ने चुटकी ली ।   न चाहते हुए भी होठों  पर मुस्कुराहट आ गई ।                                   हां ,बात में तो दम हैं ।वैसे स्वीकार करती हूं कि हम औरतें इतनी अवसरवादी होती हैं कि जहां अपने फायदे की बात होती है चट से इसे ढाल बना लेती हैं ।फिर चाहे वो बैंक की लाइन हो ,भीड़ से भरी बस या ट्रेन में सीट पाने की बात हो।

छोटी बेटी को Exam दिलवाने बनारस जा रही हूं ।  अभी चार दिन पहले सासुमां हॉस्पिटल से घर आई हैं उन्हें सेवा शुश्रुषा की जरूरत है ऐसे में बेटी को लेकर जाना मुझे चिड़चिड़ा बना  रहा है ।तंग आकर मैंने कहा इन यूनिवर्सिटीज वालों ने पता नहीं ऐसा क्यूं किया ।फॉर्म भरने के समय पटना को पहला विकल्प दिया था ।तो at least लड़कियों को तो अपने शहर का केंद्र देना था ।                              क्यों ? हर जगह तो तुम्हें बराबर का हक चाहिए ,हम लड़कियां लड़कों से कहीं भी कम नहीं तो यहां क्यूं ?                            पति ने चुटकी ली ।   न चाहते हुए भी होठों  पर मुस्कुराहट आ गई ।                                   हां ,बात में तो दम हैं ।वैसे स्वीकार करती हूं कि हम औरतें इतनी अवसरवादी होती हैं कि जहां अपने फायदे की बात होती है चट से इसे ढाल बना लेती हैं ।फिर चाहे वो बैंक की लाइन हो ,भीड़ से भरी बस या ट्रेन में सीट पाने की बात हो।

Thursday 2 May 2019

एक सफ्ताह पूर्व  सुप्रसिद्ध दैनिक अखबार की ओर से मदर्स डे के लिए लेखों,संस्मरणों और कहानियों को आमंत्रित किया गया था । उस अखबार की ओर से पाठकों को उन कर्मठ माताओं के विषय में लिखने का आग्रह किया गया था जिन माताओं ने अपने घर और ऑफिस की ड्यूटी बखूबी निभाते हुए अपने बच्चों का अच्छा लालन पालन किया । मैंने आज  अखबार का वो कॉलम अभी नहीं देखा ।निश्चय ही उसमें एक से एक प्रशंसनीय लेख छपे होगें लेकिन इस जगह पर आकर  मेरा उस अखबार से  छोटा सा विरोध है ।कोई भी माँ जो अपने घर और ऑफिस को संभालते हुए अपने बच्चों का लालन पालन करती है वो अपने बच्चों के लिए एक मिसाल बनती है यहां कई माँ ऐसी होती हैं जो परिस्थितिवश अपने बच्चों को या तो पति के अकाल मृत्यु की वजह से या कई बार पति से आपसी तालमेल नहीं होने के कारण अपने बच्चे के लिए माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाती है ।निःसंदेह इस तरह की माताएं काबिलेतारीफ कही जा सकती हैं। मात्र  इस तरह की बातें ही हम  साधारणतया सार्वजनिक तौर पर देखते हैं । माँ तो हर तरह से महान है उसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है। लेकिन जब भी इन बातों की चर्चा होती है तो  मेरा ध्यान हमेशा से फौज में अपने बेटों को भेजने वाली अनपढ़ ,बेबस और गरीब माँ पर जाता है जो इस बात को जानते हुए कि बेटे का मुंह शायद वो दुबारा देख न सके उसे विदा कर देती है । इनमें से कई माताएं ऐसी भी होती हैं जिन्होंने भरी जवानी में अपने पति को भी इसी देश की रक्षा में खोया था । न कोई पहचान न कोई   प्रशस्ति पत्र की चाह बस एक देश प्रेम के  जज्बे को लेकर ये माताएं अपने कर्तव्य का   निर्वाह करती हैं । यक्ष युधिष्ठिर वार्ता में जब यक्ष ने धर्मराज से पूछा कि किस बोझ को सहन करना असहनीय होता है तो धर्मराज का उत्तर था, अपने कंधे पर जवान बेटे की लाश से अधिक भारी बोझ कुछ नहीं होता वस्तुत मैंने अपनी निजी जिंदगी में अपनी धर्मभीरू दादी को अपने दो पुत्रों की अकाल मृत्यु पर बिन पानी मछली की तरह छटपटाते हुए देखा है । हम जिस देश में पन्ना धाय का इतिहास सुनते हैं वहाँ हम कैसे इस तरह की जननी को भुला दें ।दूसरी ओर वे माताएं  अथवा वे सेक्स वर्कर्स  जो अपनी संतान को अगर एक इज्जत की जिंदगी देने के लिए  हर रात नारकीय जीवन  का दर्द झेलती है वो मेरी नज़र में किसी भी माँ से महान है ।
कितना मुश्किल है अपनी ही नज़र में गिरना और समाज की अवहेलना सहन करना लेकिन अपने संतान के अच्छे भविष्य की चाह के कारण वह माँ को उस गलत काम के लिए भी नहीं झिझकती ।  आज जमाने ने संयुक्त परिवार को पीछे छोड़ दिया लेकिन याद करें उन माताओं को  जिन्होंने कभी अपने बच्चे या देवर ,ननद के बच्चों में फर्क नहीं किया जिन्होंने हमेशा अपने बच्चों को बांटना सिखाया और पूरी जिंदगी समदर्शी बनी रही क्या कहा जाए उन्हें ! अपने लिए जीये तो क्या जियें ,ऐ दिल तू जी ले औरों के लिए   😢