Saturday 27 August 2022

पिछले महीने की 30 तारीख को रांची पटना जनशताब्दी से पटना लौट रही थी। रांची से लौटते  समय मन हमेशा की तरह उदास था साथ ही साथ रांची में मानसून का यह समय बेहद सुहाना होता है जबकि पटना का मौसम  उमस से भरा होता है। खैर,ट्रेन अपने निधार्रित समय से खुल चुकी थी और कई स्टेशनों को पार करती हुई कोडरमा स्टेशन पर खड़ी थी तभी ट्रेन में लड़कों के बड़े से झुंड ने प्रवेश किया ।सब के सब 18 से 20 वर्ष के। प्रायः सभी के पैरों में हवाई चप्पल और शरीर पर बिल्कुल साधारण कपड़े ।कहते हैं कि "सु करमे नाम की कु करमे नाम " रांची से पटना के बीच गया और  जहानाबाद का ये इलाका अपने दबंगई और उठाईगिरी के लिए बेहद बदनाम है ।अपनी रौ में इस इलाके के लोग पुलिस प्रशासन तक से भिड़ जाते हैं। कुछ प्रकार के अंदेशों के कारण हम उन लड़कों की भीड़ से भयभीत हो उठे ।लेकिन हम ये देख कर हैरान थे कि कोडरमा से लेकर गया तक का रास्ता उन्होंने मैथ्स और फिजिक्स के सवालों से जुड़ी बातों में ही गुजारा ।जहां एक IIT और दूसरी परीक्षाओं  के लिए भयभीत था वहीं दो उसे टिप्स दे रहे थे ।इस तरह पूरी की पूरी टोली अपने आप में  खोई हुई बिना किसी विशेष घटना के गया स्टेशन पर उतर गई ।मैं अपने आप से  शर्मिंदा थी  क्योंकि मैं उन बच्चों से मैं डरी सहमी थी जो उस उम्र के बाकी बच्चों से अलग थे।स्मार्टफोन के इस युग में ये शायद  Nokia1100 में ही सिमटे हुए थे ।न किसी सहयात्री के लिए अनावश्यक व्यंग्य  न कोई राजनीतिक बहस ।कभी गया के पटवा टोली नाम के किसी गाँव के बारे में सुना था  जहाँ से हर साल  लगभग 20  बच्चे तमाम असुविधओं के बाद IIT की परीक्षा पास करते हैं। भले ही ये बच्चे उस गाँव के न रहे हो ।पर कुछ ही समय के साथ के बावजूद इन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींच लिया।
   ये तो एक बार की घटना है लेकिन रोजाना जिंदगी में हम  अक्सर किसी के बारे में  तुरंत बुरी धारणा बना लेते हैं वो चाहे उसके किसी कारणवश फोन नहीं उठाने पर या आज के दौर में wp पर msg देख कर जवाब नहीं देने पर । किसी विशेष परिस्थिति में हमारे मनोकूल व्यवहार न करने पर जो बाद में कई बार हमारे लिए पछतावे का कारण बनता है।तो बस ,"इतनी शक्ति हमें देना दाता भूल से भी कोई भूल हो न".

Tuesday 16 August 2022

मेरी दोनों बेटियों को पालतू जानवरों से बहुत लगाव है ।फिर चाहे वो कुत्ता हो,बिल्ली हो या खरगोश हो । आश्चर्य की बात यह है कि मुझे या मेरे पति को इस तरह का कोई शौक नहीं बल्कि मैं इस बात से अचंभित होती हूं कि ये लगाव उनमें कहां से आ गया ।इसी जुनून के कारण कुछ साल पहले बेटियों ने  एक खरगोश के बच्चे को लाकर पालना चाहा जिसे बस चार महीने में ही  तंग आकर मैंने बाहर का रास्ता दिखा दिया।  वैसे इस बात  मेरी माँ का कहना है कि मेरे नानाजी को हर तरह के पालतुओं का बेहद शौक था और  अपनी जमींदारी के समय उन्होंने अन्य पशु पंछियों के साथ साथ बाघ तक को पालतू बना कर रखा था । जमाने के साथ  मेरे दोनों मामाओं  के घर आज तक  कुत्ते का पालन होता चला आया है।
  धीरे धीरे समय बीतता गया बेटियां बड़ी हो गई और बाहर चली गईं। इसी बीच के दो सालों में सासु मां और पापाजी (ससुर) का देहांत हो गया और घर में रह गए  हम दो प्राणी ।अकसर मैं सुबह सुबह अपनी बालकॉनी से देख कर नीचे रोड पर जाने वाली गायों को रात को बासी रोटी फेंक दिया करती थी। जब इस बात का पता मेरी बड़ी बेटी को चला तो उसने कहा "गाय को तो उसके मालिक के द्वारा भी भोजन दिया जाता है और बहुत से लोग धार्मिक भाव से भी गायों को खिलाते हैं पर इन आवारा कुत्तों पर तो लोग सिर्फ पत्थर और ईंट ही फेंकते हैं इस दुनिया में जीने का हक तो इनका भी है । इसके साथ ही छोटी बेटी ने कहा कि अगर रोटी फेंकने की जगह  इन कुत्तों के लिए  एक निश्चित जगह पर रखा जाए तो क्या अच्छा हो !
बच्चियों की बात मुझे अच्छी लगी और मैं रोज एक ही जगह पर रोटी रखने लगी लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि जब भी  मैं उन कुत्तों को रोटी रखकर बुलाती तो पत्थर खाने के अभ्यस्त कुत्ते मुझे भोजन देता देखकर ही दूर भागने लगते थे और मुझे फिल्म दबंग का यह डायलॉग अक्सर याद आ जाता कि थप्पड़ से डर नहीं लगता डर तो प्यार से लगता है ।😐😐 
लेकिन ये बात रोटियों को रखने की शुरुआत के समय की है अब धीरे धीरे कुत्तों ने भी रोटियों के आने का इंतजार करना शुरू कर दिया ।

Sunday 14 August 2022

लगभग सात आठ महीने पहले मेरे पति के जान पहचान वाले दुकान पर काम करने वाले एक कर्मचारी ने एक अलग तरह की  प्रार्थना की ।उसकी बहुत सी बातों का सार यह था कि उसकी विवाह योग्य बेटी के लिए एक वर पक्ष मेरे मुहल्ले का था जो उसके लगभग शहर से बाहर वाले आवास पर दूरी के कारण न जाकर अपने वर पक्ष होने का लाभ उठाते हुए उसे तीन चार घंटे के लिए किसी हॉल या होटल का इंतजाम करने पर जोर डाल रहा था ।कन्या के पिता ने मुझे उस अवधि के लिए मेरे घर में कुछेक घंटे के लिए थोड़ी जगह की  बात कही ।चूंकि इस व्यक्ति से हमारा संबंध घरेलू और लगभग 20 वर्ष पुराना हैं तो थोड़ी हिचकिचाहट के बाद मैं इसके लिए तैयार हो गई। वैसे अगर ईमानदारी से कहूं तो इसके पीछे मेरी मंशा  इस देखने दिखाने की प्रथा को नजदीक से देखने की भावना भी थी । यहां मैं स्पष्ट कर दूं कि मैं मिथिलांचल के श्रोत्रिय ब्राह्मण समुदाय से हूँ जहां न दहेज की विभीषिका ने आज तक अपना फन पसारा है और न ही किसी भी कन्या को वर पक्ष बाकायदा देखने की मांग कर सकता है। संभवत इसका कारण  हमारे समुदाय का कुछ सौएक परिवारों तक सीमित होना हो । आज भी हमारे समाज की  गरीब कन्याएं भी अपने भाग्य और गुणों की बदौलत अच्छे वरों को पाती हैं। 
  जैसा  कि मैंने बताया बचपन से पहले स्कूल और फिर कॉलेज में अपने सहेलियों के मुंह से लड़की दिखाने के बारे में हमेशा सुनती थी और शायद अपनी अल्पबुद्धि के कारण अपने समुदाय में प्रथा नहीं होने के कारण समुदाय के प्रति आक्रोशित भी होती थी ये तो एक उम्र के बाद ही इस प्रथा की बुराइयों का पता चला। तो उस दिन तयशुदा समय पर लड़की अपने माता पिता और एक रिश्ते की बहन जो इस रिश्ते में बिचोलिये की भूमिका में थी उसके साथ पहुंची । मेरी बेटियों की हमउम्र लड़की ने धीरे धीरे तैयार होना शुरू किया और उसकी माँ और बहन ने भारी भरकम नाश्ते (जो वो अपने साथ लाए थे) उसकी व्यवस्था शुरू कर दी । नियत समय से लगभग दो घंटे विलंब से लड़के वाले पूरे लाव लश्कर के साथ आए ।आते ही किसी चीफ गेस्ट की तरह ठंडा गरम और नाश्ते का दौर शुरू हुआ ।लड़की को पहले सूट में फिर साड़ी पहना कर चला कर ,बैठा कर अमूमन हर एंगल से देखा गया ।इसके साथ लड़के के बहिनोई के आग्रह पर गाने से लेकर हिंदी अंग्रेजी में लिखवा कर देखा गया। वर पक्ष की ओर से लगातार पूछे गए सवालों से मैं बिल्कुल झुंझला गई और मुँह से किसी अप्रिय निकले  जाने का सोच कर वहां से हट गई । ये सारा तमाशा  लगभग चार घंटे तक चला और उसके बाद लड़के वाले लड़की तो पसंद है लेकिन हम बताते हैं कहते हुए चले गए । 
उनके जाने के बाद मैंने लड़की के पिता जो उन चार घंटे तक एक कोने में सिर झुका कर निःशब्द बैठे रहे उन्हें बेटी के विवाह के पूर्व बधाई दी तो वो ठठा कर हँस पड़े ।हँसते हुए उन्होंने बताया कि अभी तो इन्होंने हामी भी नहीं भरी है इस लड़के से भी शादी तय होने की स्थिति में सगाई से पहले तीन चार राउंड की देखने की प्रक्रिया बाकी है और इतने पर भी कई बार बात लेन देन पर टूट जाती है । और फिर दूसरे किसी लड़के के लिए एक नए सिरे से बातचीत शुरू होती है। छूटते ही मैंने पूछा ,तो फिर  उतनी ही बार इतना खर्च और मानसिक तनाव ! हाँ ,वो तो करना ही पड़ेगा उनका सहज जवाब था और लड़की इस बार बार खुद के प्रदर्शन के लिए तैयार हो जाएगी ?उसका आत्मसम्मान ,उसे बुरा नहीं लगेगा? नहीं ,बुरा क्यों लगेगा ! अरे ,सब के साथ ही ऐसा होता है तो बुरा लगने की कौन सी बात है ? कन्या के पिता ने सहज उत्तर दिया ।
थोड़ी देर के बाद वो लोग भी चले गए बहुत देर तक मैं बैठी सोचती रही  कि अच्छी भली पढ़ी लिखी लड़की को  लेकिन परंपरा के नाम पर जानवरों की तरह देख परख कर खरीदा जा रहा है जहां अपनी बेटी देने वाला  ही खुशी खुशी पैसे भी  दे रहा है ।आज भी लोग नोट की मोटी गड्डी के साथ लड़कियों गोरी रंगत और ऊंचे कद को  तरजीह देते हैं  नारी मुक्ति और नारी  शिक्षा मात्र  किताबों में ही  अच्छी लगती हैं । आज़ादी के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर भी  न तो दहेज में  कोई कमी आई है और न इस प्रकार की परंपरा में जो कि किसी लड़की के मानसिक यंत्रणा देने के  साथ साथ उसके पिता के आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए जिम्मेदार है। मिला जुला कर बेटी के बाप की स्थिति पहले से भी खराब है क्योंकि अब लड़कियों की पढ़ाई पर होने वाले खर्च में अत्यधिक वृद्धि हुई है और उसके बाद भी दहेज और देखने दिखाने में इजाफा ही हुआ है।