जैसा कि मैंने बताया बचपन से पहले स्कूल और फिर कॉलेज में अपने सहेलियों के मुंह से लड़की दिखाने के बारे में हमेशा सुनती थी और शायद अपनी अल्पबुद्धि के कारण अपने समुदाय में प्रथा नहीं होने के कारण समुदाय के प्रति आक्रोशित भी होती थी ये तो एक उम्र के बाद ही इस प्रथा की बुराइयों का पता चला। तो उस दिन तयशुदा समय पर लड़की अपने माता पिता और एक रिश्ते की बहन जो इस रिश्ते में बिचोलिये की भूमिका में थी उसके साथ पहुंची । मेरी बेटियों की हमउम्र लड़की ने धीरे धीरे तैयार होना शुरू किया और उसकी माँ और बहन ने भारी भरकम नाश्ते (जो वो अपने साथ लाए थे) उसकी व्यवस्था शुरू कर दी । नियत समय से लगभग दो घंटे विलंब से लड़के वाले पूरे लाव लश्कर के साथ आए ।आते ही किसी चीफ गेस्ट की तरह ठंडा गरम और नाश्ते का दौर शुरू हुआ ।लड़की को पहले सूट में फिर साड़ी पहना कर चला कर ,बैठा कर अमूमन हर एंगल से देखा गया ।इसके साथ लड़के के बहिनोई के आग्रह पर गाने से लेकर हिंदी अंग्रेजी में लिखवा कर देखा गया। वर पक्ष की ओर से लगातार पूछे गए सवालों से मैं बिल्कुल झुंझला गई और मुँह से किसी अप्रिय निकले जाने का सोच कर वहां से हट गई । ये सारा तमाशा लगभग चार घंटे तक चला और उसके बाद लड़के वाले लड़की तो पसंद है लेकिन हम बताते हैं कहते हुए चले गए ।
उनके जाने के बाद मैंने लड़की के पिता जो उन चार घंटे तक एक कोने में सिर झुका कर निःशब्द बैठे रहे उन्हें बेटी के विवाह के पूर्व बधाई दी तो वो ठठा कर हँस पड़े ।हँसते हुए उन्होंने बताया कि अभी तो इन्होंने हामी भी नहीं भरी है इस लड़के से भी शादी तय होने की स्थिति में सगाई से पहले तीन चार राउंड की देखने की प्रक्रिया बाकी है और इतने पर भी कई बार बात लेन देन पर टूट जाती है । और फिर दूसरे किसी लड़के के लिए एक नए सिरे से बातचीत शुरू होती है। छूटते ही मैंने पूछा ,तो फिर उतनी ही बार इतना खर्च और मानसिक तनाव ! हाँ ,वो तो करना ही पड़ेगा उनका सहज जवाब था और लड़की इस बार बार खुद के प्रदर्शन के लिए तैयार हो जाएगी ?उसका आत्मसम्मान ,उसे बुरा नहीं लगेगा? नहीं ,बुरा क्यों लगेगा ! अरे ,सब के साथ ही ऐसा होता है तो बुरा लगने की कौन सी बात है ? कन्या के पिता ने सहज उत्तर दिया ।
थोड़ी देर के बाद वो लोग भी चले गए बहुत देर तक मैं बैठी सोचती रही कि अच्छी भली पढ़ी लिखी लड़की को लेकिन परंपरा के नाम पर जानवरों की तरह देख परख कर खरीदा जा रहा है जहां अपनी बेटी देने वाला ही खुशी खुशी पैसे भी दे रहा है ।आज भी लोग नोट की मोटी गड्डी के साथ लड़कियों गोरी रंगत और ऊंचे कद को तरजीह देते हैं नारी मुक्ति और नारी शिक्षा मात्र किताबों में ही अच्छी लगती हैं । आज़ादी के पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर भी न तो दहेज में कोई कमी आई है और न इस प्रकार की परंपरा में जो कि किसी लड़की के मानसिक यंत्रणा देने के साथ साथ उसके पिता के आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए जिम्मेदार है। मिला जुला कर बेटी के बाप की स्थिति पहले से भी खराब है क्योंकि अब लड़कियों की पढ़ाई पर होने वाले खर्च में अत्यधिक वृद्धि हुई है और उसके बाद भी दहेज और देखने दिखाने में इजाफा ही हुआ है।
Very touching!
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