Friday 14 April 2017

हमेशा की तरह 14 अप्रैल को सत्तू और बेसन के व्यंजनों के साथ मिथिला के लोग जूर शीतल मानते है ।  जो ,बिहार में सत्तूआइन ,बंगाल में नया साल ,पंजाब में वैशाखी ,असम में शायद बिहू  और केरल में  विशु कहलाता है ।सम्भवत एक ऐसा पर्व जो देश के अलग अलग हिस्सों  में  अलग अलग नाम से मनाया जाता है ।नाम चाहे जो हो वजह एक ,रबी की फसल काटे जाने का उत्साह ।भारत एक कृषिप्रधान देश है इसलिए सभी पर्व भी उस समय होने वाले फसलों पर आधारित होते हैं ।स्कूल के समय कौन सी फसल किस समय होती है इसे याद करना हम शहर में रहने वालों बच्चों के लिए बेहद कठिन होता था  ।लेकिन बाद में ये बात समझ में आ गई कि 13जनवरी को दही चूड़ा खाने की परंपरा इसलिए है कि उस समय नए धान की उपज होती है इसी प्रकार 14 अप्रैल को गेहूँ और दलहन के पैदावार का समय है तो हमारे पूर्वजो ने इस समय बेसन ,सत्तू और दालपुरी खाने की प्रथा बनाई ।इतने स्पष्ट करने पर भी हम रटने वाली विद्या को मानते हुए रबी और खरीफ को काटे जाने वाले समय को रटते जा रहे है तो किसी का क्या दोष ? एक बात और भले ही आज लिट्टी चोखा के कारण सत्तू को सब जानने लगे हैं   लेकिन सत्तू आज से 25 -30साल  पहले से ही बिहार से बाहर जाने वाले हर विद्यार्थी के बैग में एक अहम् भूमिका निभाता आ रहा है ।" बिहारी हॉर्लिक्स"  के नाम से प्रसिद्ध सत्तू,   दिल्ली में पढ़ने वाले मेरे भइया का साथ ठीक उसी प्रकार निभाता था जैसे बैंगलोर में पढ़ने वाली दीदी की बेटी का हो या  आज  मुम्बई में पढ़ने वाली मेरी  बेटी का ।इस सत्तू नाम की  छोटी सी चीज़ को देखकर  कभी एक दिन बंगलोर के क्राइस्ट  हॉस्टल में मेरी बेटी( दीदी की बेटी ) के सामने केरल की एक लड़की उसे चखने के लालच से खुद को रोक नहीं पाई ।क्या ऐसा नहीं लगता कि इस सत्तू ने उत्तर दक्षिण या देश विदेश की सीमा लांघ डाली !

Thursday 6 April 2017

पहले भी मैंने एक बार बच्चों से संबंधी विचार आपसे सांझा किया ।इस बार मेरा ध्यान बच्चों और उनके माता पिता की  बदलती भूमिका पर कई दिनों से खींचा जा रहा है ।अगर हम सब कुछ देर के लिए उस समय की कल्पना करें जब हमारे माता पिता अपने बचपन को जी रहे थे ,अमूमन हर घर में सात आठ भाई बहनों का बड़ा सा परिवार और साथ में कई दूर के रिश्तेदारों का साथ में रहना ।न बच्चे की माँ को उसके नहाने खाने की चिंता और न ही पिता उसकी पढाई के पीछे पागल ।सभी की परवरिश सामूहिक ।सभी लड़के अपनी योग्यता के अनुसार नौकरी करते और चाहे लड़की हो या लड़का  आज की तुलना में कम  उम्र में उनकी शादी हो जाती ।जब भी कोई बड़ा बेटा नौकरी शुरू करता ,उसके ऊपर अपने आप छोटे भाइयों बहनों की जिम्मेदारी आ जाती और वो उसे ख़ुशी से ताउम्र निभाता ।अब अगर हम आज के समय से तुलना करें तो उन  माँ बाप ने अपने बच्चों के लिए कुछ विशेष नहीं किया और उसके बदले में बच्चों ने ताउम्र उनकी जिम्मेदारियों को बाँटा और उनके प्रति श्रद्धा की भावना मरणोपरान्त भी बनी है ।उसके बाद बात आती है हमारे बचपन के समय की ।हम भले ही संख्या में  कम भाई बहन थे लेकिन पारिवारिक सदस्यों की संख्या हमारे यहाँ चाचा, बुआ और चचेरे फुफुरे भाई बहनों  का आने जाने के कारण बड़ी थी।  पहले की तुलना में माँ बाप का ध्यान अपने बच्चों की पढाई की ओर अधिक होने लगा  लेकिन किसी बच्चे के लिए अलग खाने और उसके लिए किसी अलग कमरे  आदि की व्यवस्था शायद ही रहती हो ।माँ पापा की सेवा जैसी बात तो हमारी पीढ़ी पिछली पीढ़ी की तुलना में कुछ समय अभाव आदि  के कारण नहीं करती ।लेकिन आपातकालीन सेवा के लिए तत्पर रहती है ।अब मैं अपने बच्चों के समय की बात करूँ ।सभी घरों में खाने से लेकर कमरों तक में बच्चों की अलग व्यवस्था ।स्कूल से लेकर होलीडे तक में उनकी परिमार्ज़ित रुचि ।घर का रूटीन उनके हिसाब से ।अगर उनकी परीक्षा चल रही हो तो घर में इमरजेंसी लागू ।मेरा उद्देश्य किसी एक बच्चे को इंगित करना नहीं लेकिन मेरे समय के माँ बाप से अगर पूछे कि आप बच्चे से भविष्य में कितनी उम्मीद करते हैं ! उम्मीद कैसी ?बस बच्चे खुश रहे !                 इन तीन पीढ़ियों के अवलोकन में मुझे ऐसा लगता है कि जैसे जैसे माँ बाप बच्चों के प्रति अधिक जिम्मेदार होते गए ,अर्थशास्त्र के सिद्धान्त की तरह बच्चों का जिम्मेदारी घटती गयी ।कारण चाहे जो हो नौकरी के कारण घर से दूरी ,परिवार का निजीकरण या पाश्चात्य सभ्यता का असर .........