Thursday 16 February 2017

जब मैं अपनी छोटी बेटी को रांची के st.mary's nursery school में नामांकन के लिए ले गई तो वहाँ के प्रिंसिपल ने मुझसे कहा कि स्कूल में दाखिले के बाद मैं अपनी बेटी से घर पर अंग्रेजी में बात करूं ।मैंने प्रिंसिपल की बात काटते हुए उनसे कहा कि ये बात तो संभव नहीं क्योंकि मेरे घर पर बात चीत का माध्यम मैथिली है और फ़िलहाल तो मेरी बेटी को हिंदी भी नहीं आती मैंने उन्हें अपनी बात समझाते हुए कहा कि अपनी भाषा का ज्ञान तो अपने बच्चे को केवल मैं ही सीखा सकती हूँ । घर पहुँच कर हमने इस बात पर से फिर से विचार किया कि क्या स्कूल के प्रवेश के नज़रिए से हम बच्चे से हिंदी अंग्रेजी में बात करें या अपनी सैकड़ो वर्ष पुरानी मैथिली सिखाए।अंततः किसी भाषा का अतिरिक्त ज्ञान बच्ची के हित में ही  होगा ये सोचकर हमने अपनी पुरानी शैली बरक़रार रखी ।मेरी स्पष्टवादिता कही मेरी बेटी के एडमिशन में बाधक न हो जाए इस बात से हम दोनों पति पत्नी संशकित थे लेकिन शायद प्रिंसिपल को मेरी बात जम गई और बेटी को  एडमिशन मिल गया ।आज मेरी दोनों बच्चियां  हिंदी और अंग्रेजी के साथ साथ मैथिली भी अच्छे से बोलती है और बहुत बार उन बच्चों को देखकर आनंदित भी होती है जो मात्र अपने अभिवावकों की गलती से एक भाषा के ज्ञान वंचित रह गए ।हर बार की तरह मुझे लिखने के समय अपने बचपन की याद आ जाती है जब हम  भाई बहन लंबी स्कूली छुट्टी के बाद गाँव से रांची पहुँचते तो हिंदी भूल जाते और किसी हिंदी भाषी को देख कर कई दिनों तक झेंपते।ऐसा नहीं है कि मैथिली हमारी बपौती है मेरे मायके और ससुराल में कई अंतर्जातीय विवाह कर आई लड़कियों ने अपने प्रयास के द्वारा इस भाषा को सीख लिया और हम शायद शहरीकरण के चपेट में आकर अपने बच्चे को एक भाषा की जानकारी से वंचित कर रहे हैं ।आज ज्यादातर परिवार में छोटे बच्चों को मैथिली नहीं बोलना मुझे जितना खलता है उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि आज ज्यादातर छोटे बच्चे कार्टून देखकर उसी लय में बोलने लगे हैं क्योंकि उन बच्चों ने शायद उन्हीं कार्टून किरदारों को अपना आदर्श मान लिया है । किसी भी जगह पर कोई भाषा अजनबियों को किस तरह एक सूत्र में बांध लेता है इसका उदाहरण मेरी दीदी को अपने विदेश भ्रमण के दौरान दो जगहों पर मिला केवल दीदी के परिवार के मैथिली बोलने पर  अजनबियों ने आकर उनसे बात चीत कर उनकी  सहायता भी करनी चाही उनका कहना था कि आज वर्षों बाद इस भाषा ने हमें अपने घर की याद दिला दी।आज हमारे बच्चे मछली नहीं खाना चाहते ,मैं मांसाहार की हिमायत नहीं करती लेकिन हमारे मिथिला के महाराजा ने  तोअपनी पहचान चिन्ह(लोगो) ही मछली से बनाई । कई ऐसे रिवाज और पर्व आज हम भूल रहे है  ,लेकिन कभी उन्हीं रिवाजों ने बारात में  बिना नमक के भोजन खिलाने की परंपरा ने  ,स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन को इस प्रसंग को अपनी आत्म कथा में शामिल करने पर विवश किया था ।

Sunday 5 February 2017

जब सुबह उठकर बालकनी में जाती हूँ तो रोज़ ही ये  दो तीन दृश्य मुझे काफी आकर्षित करते है ।एक तो बालकनी में टंगे प्लास्टिक की टोकरी में से  चावलों के दानों को चुगने के लिए गौरैयों का बार बार आने जाने का कभी न टूटने वाला क्रम जो मुझे बार बार अपने बचपन की गर्मियों के दोपहर की याद दिला देता है जब पूरी दोपहर गौरैये की ताका झाँकी  के बीच गुजरती और उन नन्ही जान के बचाव के लिए न जाने कितनी ही बार माँ झुंझला कर पंखे को बंद करती थी । उसी बालकनी से  जब  छोटे छोटे बच्चों को टेम्पो और वैन में जानवरों की तरह भर कर जाते देखती हूँ तो उन बच्चों के लिए एक अजीब सी भावना आती है ।जब घर के आगे से  चंद स्कूल बस ,कई टेम्पो और वैन की आवाज़ सुबह सवेरे आने लगती है तो लगता है कि शहर जाग गया ।बहुत छोटे बच्चो को बॉक्स वाले रिक्शावाले के साथ बक झक करते देखना और कई बार उन्हीं नौनिहालों को गर्मी के दिनों में अपने बैग पर सर रखकर सोते हुए देखना मुझे अपने स्कूली दिनों में लौटा देती है जब शायद इसी उम्र में कभी मेरी एक मौसी ने मुझे स्कूल से लौटते  वक़्त टाउन बस की सीट पर किसी सब्जीवाली की गोद में बेखबर सोते हुए देखा था ।उन दिनों  हमारे स्कूल से बस की सुविधा शुरू नहीं हुई थी और हमारे कॉलोनी के सारे बच्चे टाउन बस से ही स्कूल जाते थे और हम उस छोटे से सफर को "बम शंकर और पुष्पक"जैसी धुँआ छोड़ती खटारा बसों में  बहुत आनंद के साथ बिताते थे ।                            आज कल के दौर में मैं छोटे बच्चों को   टेम्पो और वैनों में क्षमता से अधिक भरे जाने पर भाव विह्वल हो ही रही होती हूँ कि मेरे सामने से सर्र से एक बड़ी सी सरकारी या निजी वातानुकूलित गाड़ी निकलती है जिसकी पिछली सीट पर मात्र एक छोटी सी बच्ची  स्कूल के लिए जाती दिखती  है ।इसे क्या कहेंगे पैसे की बर्बादी ,बच्चों को दी जाने वाली सुविधा या नुमाइश ? क्या कोई ऐसा प्रावधान नहीं हो सकता जिससे स्कूल ड्रेस की तरह सभी बच्चे को स्कूल की ओर से किसी सवारी की अनिवार्यता हो ? हो सकता है कि ऐसा सोचना मेरी मूर्खता है  लेकिन क्या इसे पर्यावरण की रक्षा की ओर से  और अमीरी गरीबी की भावना को कम महसूस किए जाने की ओर से एक पहल नहीं कह सकते  ?

Saturday 4 February 2017

और सभी बातों में हम चाहे कितने भी अलग हो लेकिन बहुत सी ऐसी परम्पराएँ होती है जो किसी भी देश या धर्म को नहीं मानती फिर चाहे उसे व्यक्त करने का तरीका अलग हो ।उदाहारण के लिए अपने से बड़ो और छोटों के अभिवादन करने के तरीका  .फिर चाहे अंग्रेजों का हेलो ,हाय  हो ,सिखों का सतश्री अकाल हो या मुसलमानो का सलाम वालेकुम या आदाब हो ।हमने अपने  बुजुर्गों को प्रणाम और नमस्कार करते हुए देखा है लिहाजन हम वही करते हैं । मेरे बाबा कहते थे कि अगर कोई हमें नमस्कार करे तो इसके जवाब में हमें दो बार नमस्कार करना चाहिए लेकिन अब , दो बार तो दूर की बात है लोगों ने बड़े छोटे का अभिवादन करना ही  बंद कर  दिया है ।पैरों को छू कर दोनों हाथों को जोड़ कर प्रणाम करना हमारी परंपरा रही है जिसे हमने दशकों पहले घुटने छूने  तक ही  सीमित कर दिया था ।  जब हम आज की बात करे तो आस पास के बच्चों की जहाँ तक बात है दस में से शायद दो चार बच्चे ही  इस अभिवादन के संस्कार को निभाता है ।इस  संबंध में याद आती है हमारी एक आंटी की ,जिनका बेटा जब  स्कूल से आने पर बैठक में बैठी माँ की सहेलियों का जब अभिवादन भूल गया तो उन्होंने बेटे को शर्मिंदा करने के लिए अपनी सारी सहेलियों को उल्टा  अपने बेटे को ही प्रणाम करने की सलाह दी ।इतने लोगों के सामने की लज्जा उस बच्चे के लिए माँ के द्वारा दी गई दवा की वो कड़वी घूंट उसके लिए आजीवन की आदत बन गई ।एक माँ के द्वारा अपने बेटे को  अपने से बड़ों के अभिवादन भूलने पर दिया गया कड़वा पाठ क्या हम अपने बच्चों को दे रहे हैं ताकि हमारे बच्चे इस मामले में कोई कोताही न बरतें  !

Wednesday 1 February 2017

कुछ दिन पहले  सुबह कामवाली बाई अपने निर्धारित समय पर आई ,काम शुरू ही किया कि उसकी बेटी घबराई हुई सी आई ,"मम्मी चलो फिर से घर तोड़ने आया है ।तुरंत हाथ का काम छोड़ कर बाई चली गई ।मैं खड़ी खड़ी उसके जाने और उसके आगामी 4-5दिनों तक काम से अनुपस्थित होने का पूर्वानुमान लगाने लगी ।मन ही मन हिसाब लगाने पर याद गया कि कुल 5 महीने पहले ही कोर्ट के आदेश से बाई का घर  तोड़ा था ।कुल चार दिनों के छुट्टी करने के बाद बाई काम पर आई थी।आते ही मैंने अपनी मुफ्त सलाह दी ,एक छोटा सा घर किराया पर ले लो और आराम से रहो,मेरी बात को नज़र अंदाज़ करते हुए उसने कहा ,भाभी 2000 रुपए एडवांस देना ,घर बनाना है ।मैंने भविष्य को ध्यान में रखते हुए चुपचाप पैसे निकाल कर दे दिए ।दूसरे दिन काम पर आते ही उसने बताना शुरू कर दिया ,अबकी बार दो रूम बनवाया है,सामान रखने की भी काफी जगह है और न जाने क्या क्या !"लेकिन जमीन तो सरकारी है न" मेरी बात पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। अब फिर वही बात ,मैं दिन भर परेशान ,पता नहीं इस ठण्ड में क्या हाल होगा बाई और उसके बच्चों का ! शाम में बाज़ार जा रही थी ,उसकी बस्ती के बगल से जा रही थी देखा पूरा घर टूटा हुआ ,सारा सामान रोड पर ,वही मेरी बाई स्टोव पर शायद अंडा करी बना  रही है ,मोबाइल पर पूरी तेजी से गाना बज रहा है ,पूरा परिवार हँसी मजाक में लगा हुआ और मैं   सुबह से उसके लिए परेशान .....