और सभी बातों में हम चाहे कितने भी अलग हो लेकिन बहुत सी ऐसी परम्पराएँ होती है जो किसी भी देश या धर्म को नहीं मानती फिर चाहे उसे व्यक्त करने का तरीका अलग हो ।उदाहारण के लिए अपने से बड़ो और छोटों के अभिवादन करने के तरीका .फिर चाहे अंग्रेजों का हेलो ,हाय हो ,सिखों का सतश्री अकाल हो या मुसलमानो का सलाम वालेकुम या आदाब हो ।हमने अपने बुजुर्गों को प्रणाम और नमस्कार करते हुए देखा है लिहाजन हम वही करते हैं । मेरे बाबा कहते थे कि अगर कोई हमें नमस्कार करे तो इसके जवाब में हमें दो बार नमस्कार करना चाहिए लेकिन अब , दो बार तो दूर की बात है लोगों ने बड़े छोटे का अभिवादन करना ही बंद कर दिया है ।पैरों को छू कर दोनों हाथों को जोड़ कर प्रणाम करना हमारी परंपरा रही है जिसे हमने दशकों पहले घुटने छूने तक ही सीमित कर दिया था । जब हम आज की बात करे तो आस पास के बच्चों की जहाँ तक बात है दस में से शायद दो चार बच्चे ही इस अभिवादन के संस्कार को निभाता है ।इस संबंध में याद आती है हमारी एक आंटी की ,जिनका बेटा जब स्कूल से आने पर बैठक में बैठी माँ की सहेलियों का जब अभिवादन भूल गया तो उन्होंने बेटे को शर्मिंदा करने के लिए अपनी सारी सहेलियों को उल्टा अपने बेटे को ही प्रणाम करने की सलाह दी ।इतने लोगों के सामने की लज्जा उस बच्चे के लिए माँ के द्वारा दी गई दवा की वो कड़वी घूंट उसके लिए आजीवन की आदत बन गई ।एक माँ के द्वारा अपने बेटे को अपने से बड़ों के अभिवादन भूलने पर दिया गया कड़वा पाठ क्या हम अपने बच्चों को दे रहे हैं ताकि हमारे बच्चे इस मामले में कोई कोताही न बरतें !
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