प्राचीन काल में हमारा समाज चार श्रेणियों में था। ब्राम्हण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र।और जैसा की सर्वविदित है उनके कार्य भी बांटे हुए थे। समय बदला सभी, सभी कामों को करने लगे। फलस्वरूप पढ़ाई न किसी की बपौत्ती रहीऔर न ऐसा कि मात्र क्षत्रिय ही सेना में जाएंगे। लेकिन इन चीज़ो के साथ एक जबरदस्त भावना ने समाज में जन्म ले लिया कि सभी लोग नौकरी को ही प्राथमिकता देने लगे वो भी सरकारी। चूंकि मैं एक छोटे शहर में रहती हूँ तो यहाँ इस तरह की भावना और अधिक है. और तो और आप चाहे कितने भी उच्चे पद है अगर नौकरी सरकारी नहीं है, आपकी काबिलियत बेकार है। मेरा जनमानस से ये प्रश्न आखिर सरकारी नौकरी क्यों? अगर आप काबिल है तो आपके लिए ये भावना क्या मतलब रखती है? कही इसके पीछे कामचोरी की भावना तो नहीं। मेरा आशय किसी को आहत करना नहीं है। इस तरह की प्रवृति मैंने कभी एक गुजराती या मारवाड़ी समाज में नहीं देखी ये प्रवृति मात्र अपने यहाँ की ही है। एक दूसरी समस्या है कि मैं यह मानती हूँ हममेँ से कोई भी अगरअपने कार्य में योग्य है तो उसे तारीफे काबिल माने।आप सोच कर देखे कि अगर हमारे समाज में सिर्फ नौकरीपेशा ही बच जाए तो सामाजिक रूप कैसा होगा।अगर किसी की डिग्री में हमेशा नंबर एक का तगमा नहीं है और वो आगे चलकर जिस कार्य को कर रहा है उसमें योग्य है तो उससे क्या कहेंगे? हमारे यहाँ हज़ारो की संख्या में लोग बेकार है क्योंकि यहाँ सोचना यह है कि अगर मैंने इस काम किया तो लोग क्या कहेंगे। जब हमारे समाज में अंग्रेज़ो से पहले लघु और कुटीर उद्योग चलाए जाते थे तो शायद लोग काफी सुखी थे। आज अगर चोरी लूट पाट और कई सामाजिक अपराध बढ़ रहे है तो उसके ज़िम्मेदार हम खुद तो नहीं है। बस एक बार सोच कर देखें।
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