Sunday, 17 May 2020

पिछले कुछ दिनों से news और सोशल मीडिया को  देखना कोरोना वायरस के कारण पलायन करने वाले मजदूरों की मार्मिक स्थिति के मद्देनजर बहुत कठिन हो गया है । भूख और आने वाले समय की विकटता को देखते हुए हजारों किलोमीटर की अकल्पनीय दूरी ये मजदूर बाल बच्चों के साथ तय करने की कोशिश कर रहे हैं और भूख और थकान से रास्ते में ही दम तोड़ रहे हैं । जहां तक मेरी जानकारी है 28 लाख मजदूर  बिहार आ रहे हैं और संभवत जो किसी तरह यहां पहुंच जाएंगे वो अभी के हिसाब से तो वापस कभी नहीं जाएंगे ।यहां मेरे मन में ये सवाल आता है कि आखिर इतने लोग अगर यहां से पलायन करके महानगरों में गए थे तो क्या हमारे बिहार में कुछ सरकारी योजना के अलावा उनके लिए कोई रोजगार मौजूद नहीं था  ? इस बीच मैंने कई जगहों पर बिहार में  चलने वाली कई तरह के मिलों के बारे में पढ़ा है ।मेरे स्वर्गीय बाबा जहां निर्मली के मुरोना ब्लॉक  में कार्यरत थे वहीं हमारे स्वर्गीय दादा(ददिया ससुर) कटिहार के जूट मिल में कार्यरत थे ।जाहिर है अपने ही परिवार के दो लोगों के कार्यरत इन मिलों में बड़ी संख्या में मजदूर भी रहे होंगे। इन दोनों जैसे अनेक लोगों  के अपने गांव से नज़दीक नौकरी करने के अनेकों फायदे थे जहां एक ओर नौकरी के द्वारा नकद आमदनी होती होगी वहीं गांव में रहने के कारण  कृषि कार्यों का भी संरक्षण भी होता था इसी तरह के न जाने कितने ही उद्योग रहे होंगे कहने का मतलब यह है कि किसी भी छोटे उद्योग के कारण कितने ही लोगों को रोजगार मिला हुआ था और इसके साथ साथ खेती भी की जाती थी ।मुझे नहीं मालूम कि क्यों और किन परिस्थितियों में इन मिलों को बंद कर दिया और धीरे धीरे गांव या बिहार से लोगों का पलायन होने लगा ।हाल के वर्षों में गाँवो की स्थिति कुछ ऐसी हो गई कि वहाँ प्राय घरों में मात्र या तो बूढ़े और अशक्त लोग बचे या फिर महिलाएं ,धीरे धीरे शहरी चकाचौंध ने इन्हें अपने जाल में कुछ इस तरह लपेटा कि ये परिवार के साथ वहां चले गए और आज से दो महीने पहले तक के हिसाब से छोटे बड़े फ़ैक्टरियों के अलावा वहां के तमाम टैक्सी चालक, गार्ड ,सब्जी बेचने ,बढ़ाई और प्लम्बर जैसे सभी श्रम प्रधान कार्य  अधिकतर बिहार और यूपी के लोग ही करते थे।यहां मैं सिर्फ सरकार को ही दोष नहीं दूंगी यहां लोगों को दिल्ली मुंबई की नौकरी इस कदर भाने लगी कि मजदूरों के साथ साथ किसी भी मामूली संस्थान से पढ़े हुए इंजीनियर ,मैनेजमेंट और अन्य प्रोफेशन कोर्स वाले 12 से 15 हजार की नौकरी के लिए अपने शहर या गांव को छोड़ कर दिल्ली या मुंबई जाने लगे इस जगह अगर कोई ऐसा रोजगार या नौकरी लोगों यहां मिल जाए तो शायद ये पलायन रुक जाता।नतीजतन बिहार खाली होता गया । इसके कारण धीरे धीरे खेती भी चौपट होने लगी । इस बारे में यहां मैं चर्चा करना चाहूंगी श्रीमती ऋतू जायसवाल जो खुद एक उच्च अधिकारी की पत्नी है और अपने ससुराल सोनबरसा सीतामढ़ी में मुखिया पद पर आसीन है ,उनका कहना है कि किसी भी राज्य से मजदूरों का बाहर जाना गलत नहीं है बशर्ते वो दोनों ओर से हो अर्थात हमने कभी नहीं सुना कि महाराष्ट्र या गुजरात के मजदूर  काम के सिलसिले में बिहार या यूपी आते हैं । मुझे लगता है कि जिस प्रकार अंग्रेजी शासन में भारत के कच्चे माल के द्वारा विदेशी कंपनियां लहलहाने लगी ठीक उसी प्रकार बिहार के मजदूरों के कारण महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली के तमाम उद्योग की उन्नति होती गई और बिहार खाली होता गया रही सही कसर झारखंड विभाजन ने पूरी कर दी । उसपर दुखद पहलू यह है कि इतनी भारी श्रमयोगदान के बावजूद हर जगह बिहारियों के हिस्से भत्सर्ना ही आई वहां होने वाले सभी फसादों की जड़ में बिहारियों को ही माना गया और कभी उन्हें भइया कभी लल्लू जैसे नामों से बुलाया गया ।आज जबकि 80%मजदूर भूखमरी की हालत में वापस नहीं लौटने के लिए घर लौट रहे हैं तो उनके हिस्से तो घर लौटने के बाद भी भूखमरी ही आएगी पर मेरा प्रश्न यह है कि क्या महाराष्ट्र ,गुजरात या अन्य जगहों की अर्थव्यवस्था बिना बिहार या यूपी के मजदूरों के चल पाएगी ? क्या इस दिशा में सरकार के साथ साथ उन उद्योगपतियों का ये फर्ज नहीं बनता था कि वे अपने मजदूरों को इस मुसीबत के समय उन्हें रोटी मुहैया कराए जो वर्षों से उनके लाभ का बड़ा हिस्सा बनाने में अपना सहयोग दे रहे थे । अभी की  स्थिति में भूख से मर रहे मजदूरों की हालत शटल काक की तरह हो गई जिनके बारे में केंद्र सरकार राज्य, सरकार की जिम्मेदारी बता कर उन्हें उनके पाले में फेंक रहा है और राज्य सरकार केंद्र सरकार की और नतीजे के रूप में मजदूर मर रहे हैं ।

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