Sunday, 21 August 2016

मंदिर

मेरे घर में एक नियम है हम कही जाने या कही से आने पर अपने पूजा घर में भगवान् को १०- २० रुपये चढ़ाते है जिसे प्रणामी कहते है। आने जाने के अलावा किसी खास अवसर पर भी ये रकम चढ़ाई जाती है। मात्रा १०-२० रूपये की रकम चार पाँच महीने में ६०० से ७०० हो जाती है। जिससे पूजा की कोई सामग्री खरीद ली जाती है। ये एक छोटी सी बात है और हो सकता है ऐसा बहुत सारे घर में होता हो। यहाँ ध्यान देने की ये बात है कि  मात्र एक घर के ६ -७ लोगो के द्वारा जमा की गयी रकम इतनी हो सकती है तो आप जरा अपने के आस पास के मंदिरों के बारे में सोचें। ये बात मैं शहर या अपने राज्य के बारे में कह सकती हूँ. किसी भी तरह से नास्तिक नहीं हूँ लेकिन मेरा कहने का अभिप्राय है की न जाने कितने लाचारों और गरीबो की आमदनी भगवान् के नाम पर पंडितों के हाथ में चली जाती है। देश के बड़े मंदिरो के बारे में कई बार समाचार में भी निकाले जाते है और इसकी चर्चा आम लोगों  के बीच होती है। लेकिन इन छोटे मन्दिरों की ओर तो किसी की नज़र भी नहीं उठती है. मैंने अपने इर्द गिर्द जितने मंदिरों को देखा है वहाँ जैसे जैसे मंदिर का परिसर संकीर्ण होता जाता है उसी अनुपात में पंडितो का घर फैलता  जाता है। तारीफ़ की बात ये है की घर भगवान् का हो या पंडितो का दोनों ही सरकारी जमीं पर बने होते है। आज की तारीख में किसी मंदिर की स्थापना एक मुनाफे का सौदा है। अगर आप किसी मंदिर को उसके प्रारंभिक दौर से बनते हुए देखे तो आप पाएंगे कि ये लंबी प्रक्रिया है। पहले किसी पेड़ के नीचे किसी भी भगवान् की मूर्ति, एकाध त्रिशूल आदि रख दिया जाता है और समय के अनुसार (सावन या नवरात्रि के) धार्मिक गीत बज कर सजावट की जाती है. धीरे धीरे वहाँ  लोगो का ध्यान जाता है और लोग वहाँ  पैसे चढ़ाने लगते है जनमानस के मांग पर वहाँ कोई पंडित भी रहता है। इस प्रकार किसी भी जमीन पर  आसानी से मंदिर की स्थापना हो जाती है। एक बार मंदिर या कोई अन्य धार्मिक इमारत के बनने के बाद उसे हटना प्राय असंभव हो जाता है क्योंकि यहाँ के लोग अन्य बातो में चाहे कितने भी उदारवादी बन जाए धार्मिक तौर पर बड़े कट्टर होते है।  

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