आज पूरी दुनिया फ्रेंडशिप डे मना रहा है। जब बच्चे छोटे थे तो एकाध सफ्ताह पहले से ही दर्ज़नों फ्रेंडशिप बैंड खरीदते थे और आने वाले चार पांच दिनों तक किस दोस्त का बैंड ज्यादा अच्छा है उसकी चर्चा होती और दोस्ती के रेटिंग के हिसाब से वो कलाई पर उतने दिनों तक बंधा रहता था। उसके लिए बच्चों को काफी डांट भी पड़ती थी । मैं ये मानती हूँ कि हमारे जीवन में एक समय ऐसा होता है कि सभी रिश्तेदारों से बढ़कर हमे दोस्त प्रिय हो जाते हैऔर हम अपनी सभी समस्याएँ उनसे साझा करना चाहते हैं।
हमारे मिथिला में फ्रेंडशिप को हम बहुत दिन से मानते आये है। इसके लिए कोई खास दिन तो नहीं होता था लेकिन वह दोस्ती लगाई जाती थी। चूँकि प्रायः संयुक्त परिवार का चलन था और जो भी नौकरी के सिलसिले में जो बाहर रहते थे उनका हर छुट्टियों में गांव आना प्रायः तय होता तो एक उम्र के भाई और बहन आपस में कुछ दोस्ती लगा लेती थी। ये दोस्ती बाकायदा माँ ,चाची ,मामी के सहयोग से होता था। इसमें दो छोटे बच्चे एक दूसरे को किसी मीठी चीज़ का आदान प्रदान करते थे और एक दूसरे से वादा करते थे की भविष्य में वे एक दूसरे को उनके नाम से नहीं किसी कॉमन नाम से पुकारेंगे। लड़कियों में ये कॉमन नाम गुलाब ,प्रीत ,मिलन ,फूल,दिल ,रोज और न जाने क्या क्या होते थे। वही लड़को में दोस्त ,मीत ,मित्र ,यार और बहुत कुछ । बस इसी को दोस्ती लगाना कहते थे।ये दोस्ती मात्र भाईयों और बहनों तक ही सीमित नहीं था बल्कि ये ननद भावज ,जिठानी देवरानी में भी प्रचलित था। शायद दोस्ती लगाने का मतलब रिश्तों में मिठास और नज़दीकी लाना होता हो।हमने जो भी दोस्ती लगाई वो इतनी छोटी उम्र में लगाई कि वो घटना मुझे याद नहीं लेकिन दोस्ती लगाने के साथ साथ हम भाई बहनों में झगड़े भी खूब होते थे अब तो वो रिश्ते इतने औपचारिक हो गए है कि झगड़ो का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे विचार से बचपन के वही झगड़े भविष्य के लिए ठोस नीँव का काम करती थी। अब की बात कहे तो हम इतने व्यस्त हो गए है कि अपने सहोदरो से मिले अरसा हो जाता है तो चचेरों और फूफेरों की बात कौन कहे। आज अगर मैं अपनी किसी बहन को फूल कहती हूँ तो मेरी ही बेटी पूछती है कि तुम मौसी को फूल क्यों कहती हो उनका नाम तो कुछ और है ?
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