Monday, 5 September 2016

गुरु की महिमा

डॉ राधाकृष्णन के जन्म दिवस को हम सभी शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। ये तो सर्वविदित है  कि बच्चे की पहली गुरु उसकी माँ होती है। लेकिन ये बात सिर्फ  छुटपन की नहीं है मेरे अनुसार  माँ तो पूरी जिंदगी ही किसी के व्यक्त्वि निर्माण में अहम् भूमिका निभाती हैं। ससुराल जाने के पहले माँ की छोटी सी सीख किसी लड़की की वैवाहिक जिंदगी में काफी  महत्व रखता है। अगर मैं  अपनी बात करूँ तो स्कूली जीवन से लेकर कॉलेज तक मैं अपनी टीचरो से काफी प्रभावित रही। सातवीं क्लास से लेकर दसवी तक सिस्टर गुलाब ने स और श के अंतर को कुछ  इस तरह हमारे अंदर कूट कूट कर भर दिया कि वो गलती तो मैं ही नहीं उनकी पढाई शायद ही कोई लड़की करें। वो इस तरह से ब्लैक बोर्ड के दोनों सिरो पर स और श की लिखावट तो नींद में भी नहीं भूल सकती। कॉलेज का अनुशासन स्कूल के मुकाबले थोड़ा ढ़ीला था लेकिन पढ़ाई के साथ हमने काफी मस्ती भी की। ये बात तो मात्र  हमारे पढाई से जुड़ी है।जब  छोटी थी तो अपने मिश्रा चाचा के मुँह से न सिर्फ  पंचतंत्र जैसी मनोरंजक कहानियों को सुना बल्कि उसने कहा था जैसी मार्मिक कहानियो की भी सीख ली है. लेकिन मेरे मन में एक बात बार बार आती है की क्या गुरु का महत्व मात्र पढ़ने लिखने तक ही सीमित है? हमारे जीवन में उनका क्या जिन्होंने हम व्यवहारिक ज्ञान दिया है. मेरी नज़र में तो मेरे ससुराल के वो रसोइया के भी उतने ही पूजनीय है जिन्होंने न जाने कितनी बार मेरी गलतियों सुधारा। मैं उस ड्राइवर को भी गुरु ही मानती हूँ जिसने मुझ अनाड़ी को गाड़ी सिखाने की हिम्मत दिखाई, कैसे भूल जाऊ अपनी काम वाली अनपढ़ बाई संजू को जो उम्र में मुझ से काफी छोटी होने के बाद मुझे रोज़ एक नई बात सीखा देती है. आज कल तो  मेरी सबसे बड़ी टीचर मेरी बेटियां है जो कंप्यूटर और मोबाइल की रोज़ होने वाली परेशानियों से मुझे उबारती हैं। गुरु तो गुरु है फिर चाहे वो पढ़ा हो या न हो। रसोई से लेकर व्यापार तक में गुरु का महत्व अतुलनीय है। तो गुरु को सिर्फ पढाई तक ही क्यों सीमित करें।

 इस बात की चर्चा में एक व्यक्ति को नहीं भूल सकती मेरे स्वर्गीय कका। कका मेरी ही नहीं हम तीनो भाई बहन  का एक अविस्मरणीय आद्याय है जिसे हम अपनी जिंदगी में कभी नहीं भूल सकते। मेरे चाचा जिन्हें हम कका कहते थे अत्यंत मेधावी छात्र और CCL में उच्च पदस्थ इंजीनियर थे। मेरी बालपन की याद में वो BIT SINDRI  में पढ़ते थे। छुट्टियों में जब भी घर आते हमारी पढाई देखते। मुझे याद है मैं जब पढ़ते पढ़ते गुस्सा हो जाती तो मनुहार करते। न जाने कितनी बार उन्होंने हमे माँ की डॉट और फटकार से बचाया है। जब कका ने नौकरी की शरुवात की तो हम प्रायः उनके पास जाते। उनके अधीनस्थ कर्मचारियों को आराम की जिंदगी जीते हुए देखती वही काकी जरूरत पड़ने पर भी एक जीप को तरसती। वो ऑफिस की गाड़ी है और उसका इस्तेमाल मैं अपने काम के लिए नहीं कर सकता ये हमारे घर का एक अलिखित नियम था । चूँकि वो हमारे लिए एक आदर्श थे तो ये ईमानदारी की बात बालपन से ही हमारे मन में घर कर गयी। कहते हैं अत्यंत मेधावी लोगो की आयु कम  होती हैं तो कका काफी काम उम्र में चले गए लेकिन अपनी छोटी सी जिंदगी काफी कुछ सीखा गए। आज के इस खास दिन पर अपने समस्त गुरुजनों को मेरा शत शत नमन।                                                                         

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