Saturday 14 October 2023

 श्री तेजाकर झा द्वारा लिखित पुस्तक The Crisis of succession को पढ़ा ।आज  तक महाराजा,महारानी और साम्राज्य संबंधी बातें हमने इतिहास में ही पढ़ा है। लेकिन इस किताब के माध्यम से जाने पहचाने क्षेत्रों और उनके शासकों को  पढ़ना काफी रोचक है। जैसा कि इस किताब के नाम से ही स्पष्ट है एक भरे पूरे और प्रभुत्व संपन्न साम्राज्य में उत्तराधिकार के अंधी दौड़ में किस तरह की साजिशें रची जा सकती है और  इसका परिणाम संबंधों को किस हद तक ले जा सकता है,ये किताब इसे पेश करने में पूरी तरह सक्षम है।
 वैसे तो अपने को देवी कंकाली का सेवक मात्र मानने वाले तिरहुत /मिथिला/दरभंगा खंडावला वंशीय महाराजाओं का इस रियासत का आरंभ सन् 1573 से माना जाता है जिसे पहले मुगल बादशाह शाह आलम 2nd और बाद में बंगाल के नवाबों द्वारा घोषित किया गया। कुल अठारह राजाओं ने इस पर राज किया जिन्होंने अपनी अच्छी शिक्षा  और सुचारू रूप से चलने वाले शासन प्रबंध के द्वारा साम्राज्य की अच्छी पहचान बनाई लेकिन इस किताब में लेखक श्री झा ने महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह ,महाराज रामेश्वर सिंह और विशेष रूप से महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह जी का चरित्र चित्रण और उनकी महारानियो की जीवनी  लिखी है। साथ ही साथ  महाराजा के निकटस्थ संबंधी भी पुस्तक का  महत्वपूर्ण हिस्सा है।
 महाराज रामेश्वर सिंह जी की एक बेटी लक्ष्मी दाईजी और  दो पुत्र कामेश्वर सिंह एवम   विशेश्वर सिंह थे। लक्ष्मी दाईजी उम्र में अपने भाई कामेश्वर सिंह से पांच वर्ष बड़ी थी। भाइयों से बड़ी होने के कारण वो स्वभाव से ही काफी दबंग थी ।अपने गुणों और बड़े भाई होने के कारण कामेश्वर सिंह जी दरभंगा के महाराज बने और कालांतर में विशेश्वर सिंह को राजाबहादुर की उपाधि के साथ राजनगर सौंपा गया। 
 तत्कालीन समय के अनुरूप  सोलह वर्षीय कामेश्वर सिंह जी का ब्याह नौ वर्ष की कुलीन परिवार की छोटी सी कन्या से हुआ जो विवाह के बाद राजलक्ष्मी कहलाई ।राजलक्ष्मी बचपन से ही काफी धार्मिक प्रवृति और स्वभाव से सरल थी । शायद उनकी इसी  प्रवृति के कारण उनकी सास ,ननद और यहां तक की उनके मायके से साथ आई नौकरानी तक उनपर हावी रही जो महाराज से उनके अलगाव का कारण बनी । यहां महाराज और महारानी के बीच दूरी बढ़ाने का काम संभवत उत्तराधिकार से सबंधित एक सोची समझी रणनीति थी जिसके अनुसार महाराज के अपनी संतान नहीं होने की स्थिति में में यह अधिकार संभवत लक्ष्मी दाईजी के पुत्र कन्हैयाजी को मिलता ।लक्ष्मी दाईजी,उनकी मां और उनके पति ने अपने बेटे को इस गद्दी का अघोषित वारिस मान लिया था।
महाराज कामेश्वर सिंह और महारानी राजलक्ष्मी जी के वैमनस्य के कारण महाराज ने दूसरा विवाह किया जो विवाह के बाद कामेश्वरी प्रिया कहलाई । शिक्षित,संस्कारी और बुद्धिमती रानी अपने पहले ही  प्रसव के दौरान लक्ष्मी दाईजी की षडयंत्र का शिकार बन कर मृत्यु को प्राप्त हुई और  जिसका आरोप  बड़ी महारानी पर आया जिसके कारण क्रोधित होकर महाराज ने जिंदगी भर उनका मुंह न देखने की शपथ खा ली । इस बीच राजाबहादुर को तीन पुत्र हुए और महाराज ने उनके बड़े बेटे जीवेश्वर सिंह को बाकायदा उतराधिकारी बनाने के बारे में सोचना शुरू किया ।लेकिन  राजमाता ने महाराज को तीसरे विवाह के लिए विवश किया ।तीसरी रानी एक बड़े पंडित परिवार से आई और कामसुंदरी कहलाई । लेकिन वो भी महाराज को वारिस नहीं दे पाई। जीवेश्वर सिंह को हर तरह से एक शासक बनाने की कोशिश की गई लेकिन अंतत वो कई बुरी आदतों का शिकार होने की वजह से इससे वंचित रह गए ।उत्तराधिकार की लड़ाई अब संपत्ति की लड़ाई में बदल गई और पारिवारिक षड्यत्रो और साजिशों से तंग आकर महाराज ने लंदन में बसने का इरादा किया लेकिन उससे पहले ही संदेहास्पद मृत्यु को प्राप्त हुए ।
  दरभंगा राज, एक ऐसा राज्य जो इस क्षेत्र में अपने समय का सबसे विशाल और समृद्ध राज था । जिसकी सांस्कृतिक विरासत और प्रसिद्धि पूरे देश में दूर दूर तक फैली हुई थी। हर लिहाज से एक ऐसी  आदर्श रियासत , जो अपने आखिरी शासक की संदेहास्पद मृत्यु के मात्र 60 साल के भीतर ही क्यों छिन्न भिन्न हो गई !
इस तरह बातें संभवत किसी भी रियासत के लिए साधारण हो ।लेकिन यह किताब मात्र सुनी सुनाई बातों पर न होकर  महाराज ,महारानियो और कुमार जीवेश्वर सिंह जी के डायरियों पर आधारित है।इसके साथ साथ राज में कार्यरत कर्मचारियों के रिपोर्ट भी इसके साथ संलग्न है।
एक ऐसा राजवंश जिसके शासकों ने रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए क्षेत्र में कई उद्योगों और मिल्स की स्थापना करवाई । शिक्षा और आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने वाले ये शासक  अपने भाई भतीजे के साथ महारानियो की शिक्षा के लिए काफी प्रयासरत थे लेकिन उस समय की परंपरागत सोच और रूढ़िवादिता उन्हें पीछे धकेलने के लिए पर्याप्त थी । नारी अशिक्षा ,बाल और बेमेल विवाह के कारण अधिकांश राजाओं के दांपत्य जीवन में सामंजस्य  का अभाव रहता था जिसके कारण विवाहोत्तर संबंध और व्यभिचार आम बाते थी । 
अगर अधिक विस्तार में इस पुस्तक की बातों को लिखा जाए तो शायद ये चर्चा काफी लंबी हो जाएगी और  नए पाठकों के लिए जिज्ञासा खत्म  हो जाएगी । महाराज की मृत्यु के बाद की स्थिति का वर्णन भी किताब में बखूबी किया गया है।लेखक श्री झा का  महारानी कामसुंदरी के नजदीकी रिश्तेदार रहते हुए भी सभी महारानियो के प्रति तटस्थता का भाव रखना उनकी लेखनी की गहराई का परिचय देता है।
इस रियासत के संबंध में गालिब का  ये शेर कहना वाजिब है
हमें तो अपनों ने लूटा , गैरों में कहां दम था।
अपनी कश्ती वहां डूबी जहां पानी कम था ।।

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