लगभग दो साल पूर्व पापा के देहांत के बाद माँ और तीन महीने पहले सासुमां के जाने के बाद पापाजी जिंदगी के सफर पर अकेले चलने को बच गए । मेरे ससुराल और मायके में दोनों ही में एक बात समान थीं पापा और पापाजी दोनों ही घर के बड़े थे अर्थात अपने माता पिता के साथ साथ छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी इनके ऊपर थी जिसे माँ और सासुमां की मदद से सुख दुख सहन करते हुए पूरी तरह निभाया । जीवन के सफर में अचानक साथी का साथ छूट जाने की वेदना को मैं पहले एक बेटी के रूप में और अब एक बहु के रूप में महसूस कर रही हूं ।
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