Wednesday, 18 November 2020
बात शुरू होती है आज से लगभग 28 साल पहले की ।जब मेरी शादी हुई थी । शादी के सिलसिले में हम रांची से पटना छठ पूजा के खरना के दिन पहुंचे थे । उस दिन पूरी पटना दुल्हन की तरह सजी थी । शादी के बाद जाना कि दादीमाँ(ददिया सास) छठ करती थी और उस छठ में हमारा पूरा परिवार इकट्ठा होता था ।साल भर में परिवार में कोई भी नया सदस्य आता था दादीमाँ उस सदस्य के लिए छठ का एक कोनिया कर देती थी ।फिर चाहे वो कोई नवजात शिशु हो या बहू इस तरह से बढ़ते बढ़ते कोनिया की संख्या 60 तक पहुंच गई थी चूंकि उस समय हम पापाजी (ससुर) को मिले R block के विस्तृत कंपाउंड वाले सरकारी क्वार्टर में रहते थे तो बाद के वर्षों में गंगा घाट के बजाय अपने कंपाउंड में ही पोखर बना कर छठ करने पर भी कोई दिक्कत महसूस नहीं होती थी ।दादीमाँ के साथ साथ बाद में सासुमां ने भी छठ शुरू कर दिया और बढ़ती उम्र के कारण दादीमाँ ने छठ का व्रत छोड़ दिया इस बीच एक उल्लेखनीय बात यह हुई कि पापाजी के रिटायरमेंट के कारण सरकारी मकान खाली कर हम अपने अपार्टमेंट में आ गए । शुरुआती वर्षों में R Block के विशाल क्वार्टर के मुकाबले अपार्टमेंट की छोटी सी जगह में छठ जैसे पर्व का समावेश पवित्रता से होना हमें काफी मुश्किल लगता था लेकिन अपने स्वभाव के अनुसार जल्दी ही सासुमां ने छोटी जगह को अपने लायक बना लिया और पूरे उत्साह के साथ हर साल छठ होने लगा ।छठ हमारे लिए एक पर्व ही नहीं बल्कि सालाना होने वाला फैमिली फंक्शन था ।सच कहा जाए तो उन दिनों हमें न तो दशहरा खास उत्साहित करता था न ही दीवाली ।साल भर हम छठ की राह देखते और उन चार पाँच दिनों में बनाए जाने वाले बिना प्याज लहसुन के व्यजंनों की सूची बनाते ।यहां एक बात उल्लेखनीय है कि इस अवसर पर हर वर्ष सासुमां की ओर से मुझे और मेरी ननद को एक जैसी साड़ी मिलती ।याद आता है सासुमां से मिलने वाली साड़ी के कारण किसी एक साल बच्चों ने मिलकर अपनी कपड़ों के लिए काफी हंगामा किया था । पहले अर्ग की रात परिवार के बच्चे बड़ो के द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था जिस तरह हम छठ में पहनने वाली साड़ियों की तैयारी करते ठीक उसी तरह बच्चों के द्वारा गीत और नाच की तैयारी होती वैसे इसे बच्चों तक सीमित करना गलत होगा क्योंकि इस शाम के कार्यक्रम में कई बार हमारे दादाजी से लेकर बुआजी तक भी शामिल होती थी मिला जुला कर वो पूरी रात जागते हुए ही बीतती थी ।बाद में धीरे धीरे बच्चे पढ़ाई के क्रम में बाहर गए और पीढ़ियों के हस्तांतरण के साथ हम अपार्टमेंट में आ गए ।बचपन से छठ के व्रत के प्रति एक भय था कि इस व्रत में कोई गलती नहीं होनी चाहिए लेकिन सासुमां के छठ के साथ हम इस पर्व की वर्जनाओं के इतने आदी हो गए कि मेरी छोटी बेटी जो घर की सबसे छोटी सदस्या है वो भी इसके एक एक नियमों को जानने लगी । इस व्रत के बारे में सासुमाँ का ये कहना बिल्कुल सही था कि इस व्रत करना किसी अकेले के वश की बात नहीं इसमें पूरे परिवार का सहयोग होता है चूंकि ये व्रत पटना के प्राय हर घर में होता है तो आप इस बात को मान कर चले कि इस चार दिन आपकी सहायता के लिए बाई से लेकर स्वीपर ,दूधवाला ,धोबी कोई भी मौजूद नहीं होगा ।पूजा के बहुत से कामों के साथ उन सहायकों के हिस्से का काम भी खुद आप को ही करना होगा। पर लोगों का व्रत के प्रति श्रद्धा कहें कि हर एक सदस्य अपने काम को पूरी खुशी और श्रद्धा के साथ करता है । धीरे धीरे बच्चों के बाहर जाने के साथ साथ सासुमां का स्वास्थ्य ने उन्हें व्रत छोड़ने के लिए लाचार कर दिया और तीन साल पहले उन्होंने छठ परमेश्वरी को प्रणाम कर लिया ।आज खरना है अगल बगल के घरों से छठ के गानों की आवाज आ रही है अचानक ऐसा लगता है कि अरे 1बज गए अभी तक अमुक काम बाकी है ,शाम की पूजा के लिए देर हो रही है....
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