Sunday, 29 May 2016

वो एक रोटी

बात तब की है जब मैं छठी क्लास में पढती थी ।उस समय घर से कूङा उगाही की कोई ऐसी व्यवस्था नही थी काम वाली बाई ही कचङे को एक निश्चित स्थान पर फेंकती थी ।लेकिन जिस दिन बाई  नही  आती, हम तीनो भाई बहन  की इस काम के लिए पुकार  होती  कि कोई  एक इस काम को करें ।इसी  क्रम  मे ने मै कूङा फेकने गई ।जैसे ही मै कूङे  को  फेक  कर पीछे  हटी एक छोटी सी बच्ची ने उस कूङे से कुछ उठा लिया ।तुरंत मेरे  दिमाग  मे  ये बात आई कि लापरवाही वश  हमने  कूङे में कुछ कीमती सामान को फेंक दिया है और इस बच्ची  ने उठा लिया है  ।मैंने  लगभग धमकाते हुए  उस बच्ची के हाथ से उस छिपाई गई चीज को छीनना चाहा  लेकिन वो तो  एक  रोटी थी ।बरसों बाद जब  मैंने  मुंशी प्रेमचंद की कहानी "बूढी काकी "पढी तो जूठन चुनती काकी  और कूङे के ढेर से रोटी झपटती हुई बच्ची में मुझे एक अद्भुत  साम्य  नजर  आया ।आज भी शादी विवाह और भोज के मौके पर फेंके खाद्यान्न  मे मुझे उस  बच्ची की दयनीय आँखे याद आ जाती है ।

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