कल मेरे एक मौसेरे बहनोई का निधन हो गया।नहीं कह सकती कि वो हमारे कितने प्रिय थे और समस्त परिवार ने असमय ही किस दुःख का अनुभव किया । जिस समय एक बच्चा जन्म लेता है उसी समय से दाई के बख्शीश के नाम से जो मोल भाव शुरू होता है वो ताउम्र चलता है ।ऐसी मेरी धारणा थी ।लेकिन आज के अनुभव ने इसे गलत साबित कर दिया ।श्मशान घाट के फाटक से जो मोल भाव का एक निन्दनीय दौर शुरू होता है वो संस्कार के बाद बन्धन तोड़ने तक चलता है । वहाँ मौजूद आग देने वाले लोगो को इस बात से कोई फर्क नही पङता है कि आपकी मानसिक और आर्थिक स्थिति क्या है ।फिर लकड़ी के लिए मोल भाव ।और अंत मे अंतिम सेवा के नाम पर दी गई लकीर को धर्म के नाम पर बिना कुछ रूपये दिए कोई पुत्र लांघ नही सकता ।एक टूटे हुए परिवार के साथ ऐसा सामाजिक बंधन का ऐसा रूप सर्वथा निंदनीय है लेकिन प्रतिकार कहीं दूर तक नजर नही आता है|
No comments:
Post a Comment