दो दशक पूर्व मैंने श्री कृश्न चन्दर की पुस्तक "गूंगे देवता " पढी थी ।लेखक ने अपनी कल्पना मे उस युग की व्याख्या की जबकि देवता बोलते थे और आम आदमी उनके पास जाकर अपनी समस्या रखते थे ।कहानी के अनुसार एक किसान अपने नवजात शिशु के देहांत पर भगवान् के पास गया तो उन्होंने उसे कहा कि कोई बात नही बीवी तो है ना बच्चे दुबारा भी हो सकते है ।अगली बार उसने अपनी बीवी और बच्चे दोनो को खो दिया तो भगवान् ने दूसरी कुंवारी लङकियो की ओर इशारा किया और फिर से विवाह करने को कहा ।कुछ दिन के बाद किसान ने अपने पैरो को गंवा दिया और फिर रोता हुआ किसी तरह भगवान् के पास पहुंचा फिर भगवान् ने उसे दिलाया देते हुए कहा कि क्या हुआ कि तुम्हारे पैर नही है तुम्हारे पास दो हाथ है ।अब किसान के सब्र का बांध टूट चुका था उसने भगवान् के हाथ को तोड़ दिया और कहा कि क्या हुआ कि आपके पास हाथ नही है पैर तो है ना ।बस उस दिन के बाद भगवान् पत्थर के हो गए और उन्होंने बोलना भी छोड़ दिया ।भले ही ये एक कल्पना हो लेकिन अपने इर्द-गिर्द हम कई ऐसे लोगो को देखते है जो आजीवन सच्चाई का ही साथ दिया और कभी अपने कर्तव्य से नही चूके ।बदले मे अपनी पूरी जिंदगी उन्होंने कष्ट ही पाया और एक भ्रष्टाचारी और एक बेईमान जिसके कटु वचनों से लोग त्रस्त रहे वो दिनोंदिन हर प्रकार तरक्की करते रहे ।मै नास्तिक नही हूँ लेकिन क्या यह स्थिति घोर कलयुग की ओर इंगित नही करती है और हमारे समाज मे इसी कारण वश जालसाज साधु और साध्वी का वर्चस्व बढता जा रहा है। ?
No comments:
Post a Comment