गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने शायद किसी बात से व्यथित होकर कभी ये लिखा था "दीर्घ जीवन एक अभिशाप"। गुरुदेव इस बात की मूल वजह तो मैं नहीं जानती लेकिन आज अनेक सिसकती और तङपती जिदंगी को देखकर मुझे ये लगता है कि ये बात अक्षरशः सत्य है। एक कहावत है कि जिनकी जरूरत लोगों को नही है उनकी जरूरत भगवान् को भी नही है। ईष्या होती है अपने से ऊपर की पीढ़ी से कि उनके बाल बच्चे उनका ख्याल रखते है हमारी पीढ़ी अबतक इतनी स्वार्थी नही हुई है। बच्चो सेअपने भविष्य को लेकर कोई उम्मीद इसलिए भी नही रख पाते है कि इनकी दिनचर्या इतनी व्यस्त है कि बच्चे खुदअपने लिए भी समय बहुत कठिनाई से निकाल पाते है। अपनी पीढ़ी में संभवत महानगरों की यही स्थिति है। मुझे इस संबंध में व्यथित देखकर मेरी एक सहेली ने मुझसे मजाक किया कि बुढापाऔर मौत के इसी वेदना से त्रस्त होकर हजारों वर्ष पूर्व तुम्हारे ही शहर के पास एक युवराज महात्मा बुद्ध बन गए।
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