Monday, 30 May 2016

गाड़ी कैसी ? ज़िन्दगी की या हकीकत की .


कल एक ब्लॉग पढ़ा नानी का घर एक तिलिस्म की तरह है। बहुत अच्छा लगा। लेकिन कब ये नानी का घर 
अपनी नानी से बच्चों की नानी तक पहुंच  गया पता ही नहीं चला। खैर ,पिछली गर्मी की छुट्टियो  में बच्चों के नानी के घर गयी। सारे बच्चे थे। जैसा की चलन है उन्होंने मोबाइल पर गाना बजाना शुरू कर दिया हम बातो में लगे थे तो तुरंत ,' अरे गाना बन्द करो।" गाना  नए  ज़माने   का था." नहीं नहीं रहने दो। पीछे से पापा ने कहा बड़ा अच्छा गाना है।
' हम सभी आश्चर्य  चकित थे। मेरे  पापा काफी गम्भीर किस्म के  है। बचपन से  आज तक गाना तो दूर कभी गुनगुनाते भी नहीं सुना  ऐसे में ये नया सा गाना '.माँ ने पूछा - आपने ये गाना कहाँ  सुना ; ये गाना मैंने तब सुना  जब मैं अपने बेटे  (मेरे भाई )  की गाड़ी  पर  पहली  बार बैठा  था...पापा ने कहा। बात तो बहुत छोटी है पर एक पिता  को अपने बेटे की सफलता कितनी ख़ुशी देती है स्पष्ट  है.. हर बाप चाहता हैकि  मेरा बेटा मुझ से ज्यादा  सफल हो। 
पापा अपनी जिन्दगी  में  एक अच्छे पद और  अच्छी आमदनी के बाद भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण बहुत सी भौतिक वस्तुओं  को हासिल नहीं कर सके। भाई बहनो की पढाई,विवाह  के  होते होते हम बच्चों  की  ज़िम्मेदारी   शुरू हो गयी। ऐसे में पापा की  ऐसी  मर्मस्पर्शी बात ने मेरे दिल को छू  लिया। फिर जो जिंदगी की गाड़ी  को एक काम समझ कर चलाता  रहा  वो आज इस बात से खुश हो गया कि आज मेरे बच्चों ने एक अच्छे मुकाम को पा लिया । 




Sunday, 29 May 2016

वो एक रोटी

बात तब की है जब मैं छठी क्लास में पढती थी ।उस समय घर से कूङा उगाही की कोई ऐसी व्यवस्था नही थी काम वाली बाई ही कचङे को एक निश्चित स्थान पर फेंकती थी ।लेकिन जिस दिन बाई  नही  आती, हम तीनो भाई बहन  की इस काम के लिए पुकार  होती  कि कोई  एक इस काम को करें ।इसी  क्रम  मे ने मै कूङा फेकने गई ।जैसे ही मै कूङे  को  फेक  कर पीछे  हटी एक छोटी सी बच्ची ने उस कूङे से कुछ उठा लिया ।तुरंत मेरे  दिमाग  मे  ये बात आई कि लापरवाही वश  हमने  कूङे में कुछ कीमती सामान को फेंक दिया है और इस बच्ची  ने उठा लिया है  ।मैंने  लगभग धमकाते हुए  उस बच्ची के हाथ से उस छिपाई गई चीज को छीनना चाहा  लेकिन वो तो  एक  रोटी थी ।बरसों बाद जब  मैंने  मुंशी प्रेमचंद की कहानी "बूढी काकी "पढी तो जूठन चुनती काकी  और कूङे के ढेर से रोटी झपटती हुई बच्ची में मुझे एक अद्भुत  साम्य  नजर  आया ।आज भी शादी विवाह और भोज के मौके पर फेंके खाद्यान्न  मे मुझे उस  बच्ची की दयनीय आँखे याद आ जाती है ।

पिछले पखवाड़े मे मेरी छोटी पुत्री का  रिजल्ट  प्रकाशित हुआ ।उसने  काफी  अच्छे नंबरों से दसवीं की परीक्षा पास की ।रिजल्ट से पहले ही उसने  तय कर रखा था कि उसे आर्ट्स की पढ़ाई करनी है ।रिजल्ट के बधाई   के साथ प्रायः सबने एक ही बात कही "  साइंस लेना है ना" ।मेरे  नहीं कहने  पर "अच्छा  फिर  कामर्स "।नहीं  इसे आर्ट्स  लेना है ।क्यों नम्बर  तो है  ! बस इसका मन  है ।इसी बीच  उसकी  एक  सहेली  उससे  मिलने  को  घर आई ।उस बच्ची के बारे मे मै जानती थी कि अंग्रेजी  और हिंदी दोनो ही भाषा  पर इसकी जबरदस्त पकड़ है और  किसी भी विषय पर कभी भी  लिखना  इसकी विशेषता है। हर  प्रकार की  कविता  दोनो ही  भाषा मे वो किसी भी क्षण  लिख सकती है ।मेरी  समझ से ये  देवी सरस्वती  का वरदान है।जो हरेक को  नहीं मिलता ।लेकिन  माँ-बाप  की जिद है कि  वो डाक्टर ही  बने ।पूरी परीक्षा  उसने तनाव मे गुजारी ।जिस  दिन हिंदी की परीक्षा  थी उस के एक  रात पहले वो फिजिक्स पढ रही थी ।अंतिम परीक्षा के दिन  उसने लगभग  रोते हुए कहा कि  मेरे तो साइंस और  आर्ट्स दोनो  अच्छे  नही हुए । बावजूद इसके  रिजल्ट मे उसके  साइंस  में लगभग 60% आए और  नहीं  पढने के बाद  भी आर्ट्स  में 96% + नंबर  आए ।मैंने उसे दिलासा   देते हुए कहा कि कोई  बात  नही  डाक्टर  लेखक  हो  सकता है  ना  ।शौक  तो  मरता  नही !उस  बच्ची  ने कहा कि शौक  तो उम्र के साथ बढती जाती है । खैर  मेरी  ईश्वर   से  प्रार्थना है कि वो उसके  माँ-बाप की इच्छा और  उसके शौक  के  बीच  तालमेल  बैठाने  मे उस छोटी सी  बच्ची की मदद  करें ।

दो दशक पूर्व मैंने श्री  कृश्न  चन्दर की पुस्तक  "गूंगे देवता " पढी थी ।लेखक ने अपनी  कल्पना मे उस युग की व्याख्या की  जबकि  देवता बोलते थे और  आम आदमी उनके पास जाकर अपनी समस्या रखते थे ।कहानी के  अनुसार एक किसान  अपने नवजात शिशु के देहांत  पर भगवान् के पास गया तो उन्होंने उसे कहा कि कोई बात नही  बीवी तो है ना  बच्चे दुबारा भी हो सकते है  ।अगली बार उसने अपनी बीवी और बच्चे दोनो को खो दिया तो भगवान् ने दूसरी कुंवारी लङकियो की ओर इशारा किया और फिर से विवाह करने  को कहा ।कुछ  दिन  के बाद किसान ने अपने पैरो को गंवा दिया और फिर रोता हुआ किसी  तरह भगवान्  के पास पहुंचा  फिर भगवान् ने  उसे दिलाया  देते हुए कहा कि क्या हुआ कि तुम्हारे पैर नही है तुम्हारे पास दो हाथ  है ।अब  किसान के सब्र का बांध टूट चुका था उसने  भगवान् के हाथ  को तोड़ दिया और कहा कि क्या हुआ कि आपके पास  हाथ नही है पैर तो है ना ।बस उस दिन के बाद भगवान्  पत्थर के हो गए और उन्होंने बोलना भी छोड़ दिया ।भले ही ये  एक  कल्पना  हो लेकिन  अपने इर्द-गिर्द  हम  कई ऐसे लोगो को देखते है जो  आजीवन सच्चाई का ही साथ दिया और कभी अपने कर्तव्य से नही चूके  ।बदले  मे अपनी  पूरी जिंदगी उन्होंने  कष्ट ही पाया  और एक भ्रष्टाचारी  और  एक बेईमान जिसके कटु वचनों से लोग त्रस्त  रहे  वो दिनोंदिन  हर  प्रकार  तरक्की  करते  रहे ।मै नास्तिक  नही  हूँ  लेकिन  क्या यह  स्थिति  घोर कलयुग की  ओर इंगित नही   करती है और  हमारे समाज मे इसी कारण वश  जालसाज  साधु और साध्वी  का वर्चस्व बढता जा रहा है। ?

अल्मोड़ा में एक कहावत है कि" जिस दिन से एक बच्चे ने हँसने  की शुरुआत की उसी दिन से उसकी माँ के बालों के झङने की शुरुआत भी  हो गई "।कहने का तात्पर्य है कि बच्चे के जन्म के साथ ही माँ की चिंता आरंभ हो जाती है ।आज जब मैं दो किशोरवय  पुत्रियों की जननी  हूँ तो मुझे लगता है कि ये बात न सिर्फ मेरी नही बल्कि मेरे जैसी सभी माताओं की है ।कभी-कभी हम अपने आप को इस कदर लाचार पाते है कि कोई  कदम उठाने से पहले कई बार हमारी स्थिति साँप  छछूंदर की हो जाती है ।कई बार मुझे बेहद परेशान देखकर मेरी एक प्रतिवेशिनी मुझे दिलासा दिया करती थी कि मात्र विश्वास की डोर से ही  हम बच्चे को बाँध  सकते है ।मेरी वसु घूमने की बेहद शौकीन है और उस हिसाब से हमारे पटना  का माहौल  थोड़ा  असुविधाजनक है  उसकी इसी आदत से तंग आकर मैने निश्चय किया कि अब मै उसे कही निकलने ही नही  दूंगी  ,मेरे घर काम करने वाली बाई ने हंसकर मुझसे कहा "चार  पैरो वाले बांधे जाते है दो पैरों वाले तो कभी बंध ही नही सकते "।जो बात एक अनपढ बाई ने समझ लिया वो मै माँ  से मम्मी  मम्मी  से माॅम और अंततः ममा होने के बावजूद समझ नही पाई  !

बाल स्मृति के नाम पर एक बात मुझे अच्छे से याद है कि छुटपन से मुझे कामिक्स और अन्य किताबों का बङा शौक था  ।जब मै माँ पापा के साथ किसी रिश्तेदार या  पापा के किसी मित्र के घर जाती और अपनी मनपसंद किसी किताब देखने के साथ ही पढने लगती तो माँ आँख  दिखाती और कई बार  नही  मानने पर लोगों के सामने ही जोरदार  डाँट  भी   लगाती  ।उतना ही नही घर आने के बाद भी माँ की यह दलील रहती  कि   तुम किताब पढो और सामने वाला अपमानित होता  रहे  ।चूंकि उम्र  कम थी  इसलिए इतनी बात समझ  नही पाती लेकिन माँ की लगाई आदत बनी रह गई । आज  किताबो की जगह मोबाइल ने ले लिया है  हममे से बहुत लोगो की ये आदत है हम सामाजिकता के  लिए  कहीं जाते है और वहाँ  तथा कथित सोशल मीडिया  पर लग जाते है और शायद यह भूल जाते है कि हम किसी के पास बैठे  है और  बहुत संभावना  इस बात की है कि  कोई अपना जरूरी काम छोड़कर  आप के पास बैठा हो ।   आप जिस किसी घर जाते है  उनकी मनोस्थिति का भान आपको
शायद उस वक़्त हो जब ये घटना खुद आपके साथ घटे । इससे बहुत अच्छा है  आप  उस जगह जाए ही नही ।कम से कम आपके  द्वारा  किसी के समय का हनन तो नही हुआ  !शायद हम इस बात को भूल रहे है हमारी  आने वाली पीढ़ी हर बात में  हमेशा हमारी ही नकल करती है ।

ऐसा शायद ही कभी होता है कि घर से बाहर निकलने पर किसी बाइकर्स  से सामना न हो जाए  कभी-कभी उसका स्थान बङी गाड़ी लेती है ।अब तो यह भय भी सताने लगा है कि कोई  गाड़ी या बाइक  वाला किसी विधायक  या मंत्री का पुत्र न हो ।अक्सर ऐसी जगहों पर सबको भुनभुनाते सुना  है बाप ने गाड़ी लेकर दे दी है या माँ की शह पर कूद रहा है ।मेरी  एक सहेली कहती है कि बच्चे तो गलती  कर के सुनते है लेकिन माँ-बाप  तो बिना गलती ही सबकी सुनते है । पर गलती  तो माँ-बाप  की ही है शुरू में लाङ प्यार के कारण और बाद मे लाचारीवश बच्चों की जिद पूरी करनी  पड़ती है और आज के दौर की कोई माँ शायद ही मदर इंडिया बनें ।हमारे मिथिला में एक  कहावत है " बच्चा  कानय तअ  कानय बच्चा दुआरे अपने नै कानि अर्थात  चाहे बच्चा रोए पर बच्चे  के कारण हम न रोए ।"

आज मेरी परी (दीदी  की बेटी ) का जन्मदिन है ।हालांकि  उसका नाम परी नही है  लेकिन इतना तो तय है कि अगर  आज की तारीख मे उसके नाम रखने की जरूरत होती तो मै उसका नाम  परी ही रखती  ।आज उसने  इतनी  अच्छी बात कही  कि मेरा मन उसकी  बातो को साझा करने का हो उठा । सुबह  मैंने फोन  करके  उसे जन्मदिन की बधाई  हो और उसे  मेडिकल  की  सफलता का आशीर्वाद दिया  ( चूंकि वो मेडिकल परीक्षा  की तैयारी कर रही है  ) ।छूटते  ही  उसने  जवाब दिया कि " अरे ! पहले ये कहो कि एक अच्छा  इंसान  बनो ।" कितनी बड़ी बात !मेरा  यह सोच  है हममे से  नब्बे  प्रतिशत लोग  बच्चे को  दीर्घायु  होने  और  उसके सफल  शैक्षणिक  भविष्य  का   ही  आशीर्वाद देते है । लेकिन  कितनी जरूरत है  जिदंगी मे अच्छे  इंसान  बनने की ।आज जब  अपने चारों  ओर नजर घुमा कर देखती  हूँ तो  सिहर उठती  हूँ ।उफ ! कैसी  उच्च शिक्षा  , पद और कैसा वीभत्स रूप ।मेरी  माँ कहा  करती है  कि आज  के सन्दर्भ में जब  हम राक्षस  का जिक्र करते  है  तो  दिमाग मे  दो सींग और बङे  दाँतो वाला एक डरावनी  छवि  आ जाती है  लेकिन  अब  भगवान् ने उस तरह के राक्षसों  की बनावट  बन्द  कर दी है  ।जब  मनुष्य  ही ऐसी नृशंस  हो  उठता है तो  उस राक्षस को  मात दे  देता है  ।

विगत तीन चार महीनो  से मेरे मन मे असंतोष की भावना चल रही थी ।मै अक्सर इस बात से परेशान  रहती कि मै कुछ नही  करती !  किसी भी महिला को अगर नौकरी करती हुई पाती तो मुझे  बङी हीन भावना का अहसास होता  । हमेशा ऐसा  लगता कि बेकार  ही मैंने पढ़ाई की । इसी बीच मेरी एक अभिन्न सखी के चाचा का किसी कारणवश  उसके घर आना हुआ । हम उनसे मिलने पहुंचे ।बात चीत के क्रम मे चाचाजी ने मुझसे पूछा  कि तुम क्या करती  हो  ।मुझे ऐसा लगा किसी  ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो ।मैने शर्मिंदगी के साथ जबाव दिया  कि मै कुछ भी नही करती ।"क्या  मतलब " ।नही मै तो बस घर मे ही रहती हूँ । उन्होंने कहा कि कोई महिला  अगर  नौकरी  नही करती  तो इसका  ये  मतलब  ये थोड़े ही है वो  कुछ  नही  करती और  इसे  निभाना बहुत ही कठिन है ।और जहा तक  पढ़ाई  का प्रश्न है क्या ये आवश्यक है कि जिसने  पढ़ाई की  वो  नौकरी करे ।  हमारे बच्चे  खासतौर  बेटियाँ  आज एक  मुकाम  पर पहुंच रही है  जिस  उम्र  मे  हमारा विवाह  हो चुका था  उस उम्र  को  पार करने के बाद भी उसे  बिना  उसके  कैरियर  बनाए  हम  किसी  बन्धन  मे नही  बाँधना  चाहते  इसके  पीछे  कौन  सी  भावना काम कर रही है ।ऐसा   हमारे  दकियानूसी  समाज  मे  इसलिए  संभव  हुआ  क्योंकि  आज  की माँ शिक्षित  है ।चाचाजी  ने उस शाम  इतने तर्कपूर्ण  लहजे  मे बात  कही कि   वक्त  किस  तरह गुजरा  हम समझ नही पाए ।  सारी  बातो का जिक्र  तो मै नही  कर  पाई पर इतना  ज़रूर है कि मैंने उस शाम  अपने आप को  काफी हल्का महसूस किया ।

आज कल शादी विवाह का लग्न जोरों पर है। पटना में रहने के कारण हमें लगभग सभी लग्न में एक दो शादी में शामिल होने का मौका मिल ही जाता है। पहले हमारे यहाँ की शादियाँ काफी शालीनऔर बिना किसी दिखावे के हो जाती थी। सबसे बड़ी बात ये थी कि हमारे यहाँ  की शादियाँ दहेज और लेन देन से परे होती थी। जिस माँ-बाप ने अपने हैसियत के हिसाब से जो दिया सभी उसमे खुश रहते थे। अब समय के साथ सब कुछ बदला तो शादी और उसमे होने वाले खर्चे भी बहुत बढ गए।अगर आज की तारीख में बगैर दहेज की मांग वाली शादी का आकलन करे तो खर्च बेहिसाब है। तकलीफ तो तब होती है कि कई शादियों में खाई मिठाई की मिठास जीभ से उतरी नही और सुनने में आता है कि शादी टूट गई। कई बार बात तलाक तक बात पहुंच जाती है।पहले  शादी के बाद संबंध विच्छेद या तो उच्च वर्ग मे होता था या बिल्कुल निम्न वर्ग मे लेकिन अब हमारा मध्यम वर्ग भी इससे अछूता नही। क्या कमी हो रही है हमारे संस्कारों  में कि बच्चे इतना बड़ा कदम उठाने पर विवश हो जाते है। पहले जहाँ लड़के और लडकिया कम उम्र के होते थे वही अब लडकियाँ  को अपने पैरो पर खड़े करने के बाद ही हम शादी के बंधन मे बाँधते है। पहले जहाँ सास  ससुर, देवर और नन्द की फौज साथ रहती थी वही अब पति-पत्नी को एक दूसरे को झेलना भी दूभर हो गया है। क्या यही मूल्य चुकाना होगा हमे बच्चो को आत्मनिर्भर बनाने का। गलती किसी की भी हो परिणाम तो दोनो ही परिवार भुगतते है ना।

गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने शायद किसी बात से व्यथित होकर कभी ये लिखा था "दीर्घ जीवन एक अभिशाप"। गुरुदेव इस बात की मूल वजह तो मैं नहीं जानती लेकिन आज अनेक सिसकती और तङपती जिदंगी को देखकर मुझे ये लगता है कि ये बात अक्षरशः सत्य है। एक कहावत है कि जिनकी जरूरत लोगों को नही है उनकी जरूरत भगवान् को भी नही है। ईष्या होती है अपने से ऊपर की पीढ़ी से कि उनके बाल बच्चे उनका ख्याल रखते है  हमारी पीढ़ी अबतक इतनी स्वार्थी नही हुई है। बच्चो सेअपने भविष्य को लेकर कोई उम्मीद इसलिए भी नही  रख पाते है कि इनकी दिनचर्या इतनी व्यस्त है कि बच्चे खुदअपने लिए भी समय बहुत कठिनाई से निकाल पाते है। अपनी पीढ़ी में संभवत महानगरों की यही स्थिति है। मुझे इस संबंध में व्यथित देखकर मेरी एक सहेली ने मुझसे मजाक किया कि  बुढापाऔर मौत के इसी वेदना से त्रस्त होकर हजारों वर्ष पूर्व तुम्हारे ही शहर के पास एक युवराज महात्मा बुद्ध बन गए।

आज मई दिवस है। समाचार पत्रों के किसी कोने मे शायद कही दिख जाए।जिन संस्थानों में आज रविवार की वजह से एक छुट्टी कट गई वो संभवतः अफसोस मना रहे होंगे। अब हम ना शहीद दिवस को याद करते है और ना मजदूर  दिवस के इतिहास के बारे मे जानते है क्योंकि अब हम वैलेंटाइन डे, फादर्स डे और ना जाने क्या क्या मनाने लगे है।आज नानाजी पंडित श्री गोविंद झा (मेरी सास के मामा और मैथिली के प्रख्यात विद्वान् ) का जन्म दिवस है। कुछ समय पहले मैंने उनकी एक रचना पढी उन्होंने कहा कि पहले के पुत्रआम के पेड़ की तरह थे और आज के पुत्र सुंदर फूल के पौधे की तरह है। आम के पेड़ से न केवल उसके मालिक बल्कि दूसरों को भी सहायता मिलती है। फल के साथ साथ छाया, लकड़ी हर तरह की सहायता उससे मिलती है । वही एक सुन्दर फूल के पौधे को देखकर आप खुद भी खुश हो सकते है और दूसरे को मात्र दिखा सकते है इससे ज्यादा आपको कुछ मिल नही सकता। यहाँ प्रश्न है कि हम अपने संस्कारों के द्वारा फूल के पौधे लगा रहे है या आम के। लेकिन अगर खुद हमारी ही पीढ़ी वैलेंटाइन डे और मदर्स-डे को बढावा देगी तो आम के पेड़ की चाहत बेकार है !

आप के साथ इस तरह से मैंने शायद तीन चार अनुभव को साझा किया है ।अब तक मेरे कई मित्रो ने मुझे इस बात के लिए टोक दिया कि तुम बिहार को लेकर पक्षपातपूर्ण  हो रही हो ।अगर ऐसा है तो मै बस यही कहना चाहती हूँ कि मेरे विचारो में मिथ्या कुछ भी नही । यात्रा के दौरान ट्रेन  मे एक सरदार जी के साथ हमारे यहाँ के मंदिरों को लेकर बात चली ।उनका कहना था कि आप के  राज्य के मंदिरों मे बङी गंदगी है आपका  स्थान  किसी भी दक्षिण  भारतीय मंदिरों की सफाई व्यवस्था के मुकाबले नगण्य है ।मेरा कहना था कि मै मनाती हूँ कि हमारे मंदिरों मे अव्यवस्था है लेकिन किसी भी अन्य राज्य के मंदिर से हमारी तुलना नही की जा सकती ।मेरी  जानकारी के अनुसार फल फूल  बेलपत्र और नारियल के साथ पूजा शायद हमारे मंदिरों मे की जा सकती है ।देश के अन्य  हिस्से के मंदिरों मे दर्शन भी  काफी दूर से किया जा सकता है  ।उसके बावजूद गंदगी के लिए मेरा ये तर्क शायद  सबके गले नही  उतरे ।तो फिर मैं अपने राज्य के पक्ष में कहना चाहती हूँ कि अगर परिवार के किसी सदस्य में कोई ऐब हो तो उसे  सुधारने की कोशिश करते है ना बजाय कि उस की  पोल खोल करे ।

अपने दस दिनो के अवकाश के बाद आज पटना लौट रही हूँ।देहरादून की पूजा के बाद हमने नैनीताल और रानी खेत का कार्यक्रम बनाया ।चूँकि नैनीताल का प्रोग्राम अचानक से बना  तो  शुरू हो गई  टिकट की मगजमारी ।अंततः हमे  देहरादून से काठगोदाम  तक  का टिकट  स्लिपर क्लास मे लेना पड़ा ।घर से  हम  बेमन से निकले ।चूंकि  जगह  ठन्डी थी इसलिए गरमी की कोई  चिंता नही  थी । हम साफ सफाई और सहयात्रियो की ओर से सशंकित थे  ।लेकिन जहाँ हमारी ओर स्लिपर मे जाने का प्रश्न ही नही उठता  वही मै देहरादून से काठगोदाम जाने वाली ट्रेन  की सफाई  और  साथ के यात्रियो का आपसी सामंजस्य देखकर दंग रह गई  ।ना कही  गंदगी  और  ना अन्य  दिक्कते ।अगर  ईमान से कहूँ तो अपने  राज्य के लोगो के  प्रति मन तिक्त हो  उठा  ।तभी  एक ऐसी बात  हो  गई जिससे मै फिर  से  अपने बिहारी होने  पर गर्व से फूल उठी । दो  जगहो पर लोगो  ने इस बात पर  आश्चर्य  व्यक्त किया कि  ऐसा क्या है आपके बिहार मे  कि वहाँ के लोगो की मैथ्स  इतनी अच्छी होती   है ।अरे  इतनी मुश्किलो के बाद कैसे  वहाँ  के बच्चे  बैंक पीओ और   सिविल  सर्विस मे सफल हो जाते है ।बात तो  पते की  है ना ।

कल मेरे एक मौसेरे बहनोई का निधन हो गया।नहीं कह सकती कि वो हमारे कितने प्रिय थे और समस्त परिवार ने असमय ही किस दुःख का अनुभव किया । जिस  समय    एक बच्चा जन्म लेता है उसी समय से दाई के बख्शीश के नाम से जो मोल भाव शुरू होता है  वो ताउम्र चलता है ।ऐसी मेरी धारणा थी ।लेकिन आज के अनुभव ने इसे गलत साबित  कर दिया ।श्मशान घाट के फाटक से जो मोल भाव का एक निन्दनीय  दौर शुरू होता है वो संस्कार के बाद बन्धन तोड़ने तक चलता  है । वहाँ मौजूद आग देने वाले लोगो  को इस  बात से कोई फर्क नही पङता है कि आपकी मानसिक और आर्थिक स्थिति क्या है ।फिर लकड़ी के लिए मोल भाव ।और अंत  मे  अंतिम  सेवा के नाम पर दी गई लकीर को धर्म के नाम पर बिना कुछ रूपये दिए कोई पुत्र लांघ नही  सकता ।एक टूटे हुए परिवार के साथ ऐसा  सामाजिक बंधन  का ऐसा रूप सर्वथा निंदनीय है  लेकिन प्रतिकार कहीं दूर तक नजर नही आता है|

विगत तीन दिनों से प्रत्यूषा बर्नजी के आत्महत्या की खबर ने विचलित कर दिया ।क्या परेशानी  रही होगी उस चौबीस साल की बच्ची की कि उसने इतना बड़ा कदम उठाया। लगभग दो  महीने पहले मैंने एक फिल्म देखी "नीरजा"। यह फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है। प्रायः एक सी उम्र है। नीरजा की उम्र तेईस वर्ष और प्रत्यूषा की उम्र चौबीस वर्ष।दोनों ने मौत को गले लगाया लेकिन कितना अंतर है दोनो की मौत में। जहाँ एक के माता पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया और इतने वर्षो के बाद भी बेटी की मौत ने उन्हें हरपल गौरवान्वित किया।औरदूसरी ओर उस माँ-बाप बारे  मे सोचे जो हर रोज एक नई  कहानी के बारे मे सुना रहा है। दुआ मांगे ईश्वर से कि बच्चे चाहे हमारा सर ऊँचा करे या ना करे पर ऐसा कोई काम न कर जाए जो हमारे सर को हमेशा के लिए झुका न दे।

चैत की प्रचंड धूप मे बाजार से लौट रही थी ।चैत का जिक्र मैने इसलिए किया कि ईश्वरीय अनुकंपा से अब वैसी धूप के लिए हमें जेठ का इंतजार  नहीं करना  पड़ता है ।खैर ,फल के ठेले के पास पहले रिक्शे  वाले ने दो चार किस्म के फल लिए और सामनेवाले दुकान में जाकर काजू किशमिश जैसे सूखे मेवे की  खरीद की। वापस रिक्शे के पास आकर मेरी ओर शर्मिंदगी के भाव से देखते हुए उसने  कहा कि "बेटा  बीमार है  डाक्टर ने खाने को कहा है "। मुझे इतनी ग्लानि  हुई  कि मै इसे शब्दों में व्यक्त नही कर सकती। क्या एक गरीब अपनी  कमाई  से फल और मेवे नहीं खा सकता है ?

गत 23मार्च को तमाम बिहारी अखबार बिहार दिवस के कार्यक्रम से भरे हुए थे और जिनकी गिनती राष्ट्रीय अखबारों में होती है वो क्रिकेट के नशे मे चूर ।अंततः खोजते हुए तीसरे पन्ने पर मैने भगत सिंह की छोटी सी तस्वीर और शहीद दिवस की एक सूचना ।शहीदों की शहादत का मोल हम मात्र राजनीतिक तौर पर ही करें। क्या संदेश दे रहे है हम अगली पीढी को ।ना वो प्रभात फेरी रही और ना  वैसा माहौल ।क्यूँ उम्मीद  करें हम अपने बच्चों से जब हम खुद ऐसी मिसालें पेश कर रहे हैं ?

दो चार दिन पहले मैंने अपने बाल्कनी मे रखे फूल के पौधे को नीचे के जमीन मे लगाया ।सुबह शाम पानी देने के बावजूद जब मैंने हल्के बादलों को देखा तो मैं खुशी से झूम उठी ।सहसा मेरे मन मे  ये बात कौंध गई कि मै मात्र अपने शौक से लगाए गए एक पौधे के लिए परेशान हूँ तो उन किसानों का क्या ? जिनकी पूरी जिंदगी ही खेती और बादलों पर बनती बिगड़ती  है ।मेरे देश के करोड़ो  किसानों को  मेरा शत् शत् नमन ।