Friday, 23 December 2016

कई लोगों को यह कहते सुना है कि आज कल की लगभग सभी पिक्चर्स की कहानी एक सी होती है कोई नयापन नहीं। बात तो  सही है लेकिन जहाँ तक मेरी अल्पबुद्धि काम करती है तो अगर जरा गौर से सोचें तो  सभी के जीवन में एक ही कहानी क्या बार बार दुहराई नहीं जा रही। अगर अपने स्कूली जीवन को याद करती हूँ तो कुछ पल के लिए ये बात जेहन से उतर जाती है किअगले साल तो बेटी के स्कूल का अंतिम साल होगा।

स्कूल मिशनरी होने के कारण  हमारे लिए क्रिसमस हमेशा से उतनी ही ख़ुशी लेकर आता था जितना कोई अन्य पर्व।समय बीता, फिर वही कहानी, आज मेरी बच्चियां क्रिसमस के नाम से काफी खुश, बचपन से और सच्चाई जानने के बाद भी (प्रत्येक बच्चे के लिए उसके पिता ही सांता क्लाउस की भूमिका निभाते हैं) अपने मन चाहे उपहार के लिए  सांता क्लाउस का काफी बेसब्री से प्रतीक्षा करती हैं, एक ऐसा काल्पनिक व्यक्ति जो उत्तरी ध्रुव में काफी सारे बौनों और अपनी बीवी के साथ रहता है और वहाँ एक खिलौनों की फैक्ट्री है। उन खिलौनों को सांता क्रिसमस की रात अपने रेनडिअर घोड़े पर सवार होकर पूरी दुनिया के बच्चों को उपहार स्वरूप देता है।

मेरी बड़ी बेटी क्रिसमस वाले दिन अपने सेमिस्टर ख़त्म होने पर घर आ रही है, छोटी बहन को जितनी ख़ुशी उसके आने से है उसकी दुगुनी जिज्ञासा अपने लिए आने वाले छोटे बड़े सामानों के लिए है जो मुम्बई से उसकी दीदी लाने वाली है ।कई जोड़ी चप्पले, पेंसिल बॉक्स ,हेयर बैंड और न जाने क्या क्या? इस साल क्रिसमस पर शायद उसकी बहन ही सांता क्लाउस की तरह उसके लिए  उपहार लाने वाली है। जब मेरे जेहन में ये बात आई तो फिर लगा क़ि कभी ऐसे ही मैं अपने दिल्ली में पढ़ने वाले भइया के आने का और उसके लाए छोटे छोटे सामानों का बेसब्री से इंतज़ार  करती थी। तो क्या फर्क है? है न वही कहानी !!!

Thursday, 24 November 2016

बहुत दिन पहले स्कूल के मोरल साइंस के किताब में पढ़ी एक कहानी की याद कल अचानक से हो आई ।कहानी कुछ ऐसी थी कि एक पेशेवर मुजरिम को जज ने फाँसी की सजा सुनाते हुए उसकी आखिरी ख्वाहिश पूछी ।अपनी जिंदगी के आखिरी दिन उसने अपनी माँ से मिलने की इच्छा जताई ।जब जेल में माँ ने मिलकर उसे गले लगाया तो बेटे नेे पता नहीं कब से छुपाकर रखी छोटे से  चाकू से अपनी माँ की जीभ काट ली ।माँ तो पीड़ा से बेहोश हो गईं और उपस्थित जनसमूह ने धिक्कारते हुए बेटे से उसका कारण पूछा ,उस मुजरिम बेटे का जवाब सुनकर सभी की आँखे नम हो गई ।उसने कहा कि जब मैं बहुत छोटा था तो मैं एक दिन अपने पड़ोसी के बगीचे से एक कद्दू  चूरा लाया ,इस चोरी पर मेरी माँ खूब हँसी और पूरे घर को उसने सब्जी बनकर खिलाई ।इसके बाद मैंने जब जब किसी चोरी को अंजाम दिया ,अप्रत्यक्ष रूप से मेरी माँ ने मेरी पीठ थपथपाई जिसका नतीजा आज सबके सामने है ।
ये कहानी तो छोटी सी है लेकिन कल शाम बाजार में  एक बाइकर और एक बूढ़े रिकशा चालक की हुई नोक झोंक ने मुझे इस कहानी की याद दिला दी ।कल बाजार में शायद उन दोनों में मामूली सी टक्कर हो गईं और गर्म होकर उस बाइकर ने रिक्शा चालक के बाप को गाली देते हुए उसकी गरीबी  का जिम्मेदार बताया ।बात चूँकि बाप तक चली गयी थी इसलिए छोटी सी बात ने बड़ा रूप ले लिया। मैंने बात को शुरू होते हुए देखा था इसलिए यकीनन मैंने उस बाइकर की बदजुबानी को महसूस किया ।हर मनुष्य इज़्ज़त चाहता है । हम इज़्ज़त किसकी करते है ,मनुष्य की ,पैसों की या पद की ।अगर पद की,तो एक उम्र के बाद वो स्वतः  ही समाप्त हो जाता है  ।अगर पैसों की तो हाल के दिनों में हमने पैसों को मात्र एक रात में बेकार होते हुए देखा है ।
इस सृष्टि में माँ का पद बहुत महान है ।लेकिन हर  माँ अपने बच्चे  के जीवन की पहली शिक्षिका होने के साथ साथ उसकी आदर्श भी होती है ।आप कितने संस्कारी  है ये आपके बच्चे को देखकर जाहिर हो जाता है क्या हर माँ बाप की यह जिम्मेदारी नहीं की पहले दिन से अपने बच्चों को मनुष्य मात्र  की इज़्ज़त करना सिखाए।कोई भी अपराधी एक दिन में  नहीं बनता ।आज भी हमारे समाज में  बच्चे केअच्छे काम के लिए  पिता को धन्यवाद देते हैं वही ससुराल गई बेटी के गलत काम के लिए माँ को ही दोष देते हैं ।तो हर एक  माँ बाप का सतत प्रयास क्या अच्छे समाज का निर्माण करने में सहयोग नहीं कर  सकता !

Saturday, 12 November 2016

अभी जबकि पूरा देश नोटों के अदल बदल में लगा हुआ है मैं 14 नवम्बर का इंतज़ार कर रही हूँ जब देश भर के प्रायः सभी स्कूलो में बाल दिवस मनाया जाएगा।बाल दिवस मनाने से पहले हम जरा बच्चों से समन्धित कानून के बारे में ग़ौर  करें। हमारे देश में बाल मजदूरी से संबंधित पहला कानून 1952 में पारित हुआ जिसे 1986 और 2008 पुनः कुछ संशोधनों के साथ फिर से पारित किया गया। इस नियम के अंतर्गत 14 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बाल मजदूर से काम करवाना कानूनन अपराध है लेकिन इसके बावजूद हमारे देश में बाल मजदूरी की क्या स्थिति है ये सर्वविदित है। कानून बनाना एक बात और उसका सामाजिक स्तर पर लागू होना अलग बात ।इस सिलसिले में मुझे अपने एक परिचित की बात याद आती है। मेरे उन परिचित ने कसम खाई क़ि मैं कभी उन होटलों या किसी ढाबा में खाना नहीं खाऊँगा जिनमें बाल मजदूरी को प्रश्रय दिया जाता हो। इस तरह की खाई जाने वाली कसमें जितनी आसान होता है उसे निभाना उतना ही कठिन। उन सज्जन ने अपनी कठिनाई बताते हुए कहा कि मुझे अपने दफ्तर के आंचलिक दौरों में मुझे एक भी ऐसा ढाबा नहीं मिला जिसमे नाबालिंग बच्चे काम न करते हो परिणामस्वरूप दो दिन के फलाहार के बाद ये कसम वही टूट गईं। हम और आप सभी अगर नज़र दौड़ा कर अपने चारों ओर देखे तो घर से लेकर बाजार, दुकाने, फैक्ट्रीज और सभी जगहों पर अपने नन्हे नन्हे हाथों से काम करने वाले कई बाल मजूदर अनायास ही दिख जाएंगे बावजूद इसके की यह कानूनन जुर्म है।अगर जबरदस्ती कभी किसी बच्चे को किसी समाजसुधारक जैसे जीव ने स्कूल में नाम लिखा भी दिया तो वो क्षणिक होती है और हमारी ओर तो उसका उद्देश्य मिड डे मील, साइकिल और तमाम सरकारी सुविधाएं। सरकारी योजनाएं और सरकारी स्कूलों की हालात किसी से छिपी नहीं। ये योजनाएं मात्र अपने टारगेट पूरा करने की तरफ से चिंतित रहती है। मेरी एक सहेली जो घर पर बच्चों की ट्यूशन लिया करती है उसके विद्यार्थियों में आर्थिक तौर कमजोर बच्चों की संख्या हमेशा ही अधिक होती है। फिर चाहे वो धोबी का पोता हो या गार्ड का बेटा। प्रशंसनीय बात तो ये है कि मेरी सहेली का बेटा उन बच्चों को अपने साथ बैठाना और खिलाना भी चाहता है। लेकिन किसी एक के ऐसा करने पर तो समाज नहीं बदलता।जब मेरी सहेली पढाई बंद होने पर वैसे ही किसी बच्चे की माँ से उसकी पढाई बंद करा कर नौकरी न करवाने की अपील की तो उस बच्चे की माँ का जवाब था कि "तोहनी के लइकन पढ़ लिख कर नौकरी करत हई अउर हमनी के बिना खरचे कएने,त अंतर कोंनची हई? ("आप लोगों के बच्चे पढ़ लिखकर नौकरी करते हैं और हमारे बच्चे बिना खर्च के ,तो अंतर क्या है?")

फिर भी मैं सुबह स्कूल जाते हुई बच्चों की कतार को देखकर विकास की एक छोटी सी उम्मीद अपने मन में महसूस  करती हूँ आशान्वित हूँ क़ि आज भले ही ये बच्चे किसी लालच में स्कूल की ओर आकर्षित हो रहे है लेकिन कल शायद स्कूल की शिक्षा उन्हें अपनी ओर खींच ले ......

Friday, 21 October 2016

"वसुधैव कुटुम्बकम" सम्भवत मेरे श्वशुर कुल में इसी पर विश्वास किया जाता है। यूँ तो मेरी शादी हम दो हमारे दो के फलसफे वाले परिवार में हुआ लेकिन ऊपरवाली पीढ़ी बड़ी और सयुंक्त थी। इसलिए हम सभी बहुत दिनों तक साथ में रहते थे। साथ रहते हुए जहाँ मैंने बहुत सी वर्जनाओं को  सहा वही बहुत अधिक स्नेह भी पाया है। छोटे बच्चों के पालने की कठिनाई मैंने कभी नहीं महसूस की। होली, दीवाली और छठ जैसे त्योहारों को हमने बहुत ही आनंद के साथ  बिताया है। हमारी दादी माँ छठ करती थी और उस हिसाब से ये हमारा वार्षिक पर्व था। पूरा घर छठ में इकठ्ठा होता था। उन चार दिनों में शायद हम पूरे साल की मस्ती की कसर निकाल लेते थे। क्या नहीं होता था, पूरी पूरी रात जागना, नाच गाने। देखा जाए तो हमें पूरे साल छठ का इंतज़ार रहता था। इस विषय पर तो मैं अपनी लेखनी पर कभी विराम ही नहीं लगा सकती।
धीरे धीरे समय बदला  पुराने लोग हमारे बीच नहीं रहे और त्यौहारो का स्वरुप भी बदला। अगर नहीं बदला तो हमारे घर के लोगो का स्वभाव। कुछ पटना होने के कारण और कुछ हमारी मेहमानबाजी के कारण, काफी घटने के बाद भी मेरे घर अतिथियों का आवागमन बना रहता है। अपने को वातावरण के अनुरूप ढाल कर बच्चो ने इसी गहमा गहमी में पढाई को भी अपनी रूचि के अनुसार किया। मेरे घर में आए हुए मेहमानों के बाहर रखे चप्पलों की बृहद संख्या को देख कर मेरे एक आत्मीय ने मेरी बुआ (जो एक प्रख्यात लेखिका हैं) से हँसते हुए कहा कि उसके घर के बाहर चप्पलों को देखकर ऐसा लगता है कि ये घर नहीं मंदिर है। भावविभोर हो कर बुआ ने कहा भगवान् करे मेरी  बच्ची का घर सदा ही मंदिर बना रहे। ऐसी कामना तो एक बुआ ही अपनी भतीजी के लिए कर सकती है ना !

यौवन कितना भी समृद्ध हो किसी भी व्यक्ति के जीवन का स्वर्णिम युग निस्संदेह उसका बचपन ही होता है। आज जब किसी बच्चे को रिमोट वाली कार या हेलीकाप्टर देखती हूँ तो मुझे कागज़ की बनी बचपन की कागज़ की नाव और हवाई जहाज यादआते हैं। पता नहीं ये सिर्फ मैं ही सोचती हूँ या ये मेरी गलतफहमी है कि पहले के खेल प्रकृति से जुड़े और अब के बच्चों के खेल पैसों से जुड़े होते थे। फिर चाहे पेड़ पर चढ़ कर खेलने वाला कोई खेल हो या हमारे झारखण्ड में खेले जाने वाला लॉलीपॉप जैसा खेल हो जिसमें मात्र थेथर के डंडो और कोई लाल पत्थर खेल हो जाता था। आज चाहे कितनी ही घड़िया खरीद ले, चाहे साल दो साल में गाड़िया बदल ले वो माँ की पुरानी घड़ी नहीं भूलती जिसे हम इम्तहान के समय लगाते थे और न ही और बचपन की वो साइकिल जिसके ख़रीदे जाने की रात मेरा भइया पूरी रात पकड़ कर सोया था। ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंहजी का एक ग़ज़ल "वो कागज की कश्ती" जब भी सुनती हूँ तो अपनी दादी की अनगिनत कहानियां याद आ जाती है। अपने बचपन का एक किस्सा जिसमे हमने गुड़िया की शादी रचाई वो मैं ही नहीं मेरे सभी भाई बहन नहीं भूल सकते।
हम सभी फुफरे और चचेरे भाई बहन आधे बाराती बन गए और आधे सराती ।दिन भर हमने झरिया साहू की दुकान से चीज़े खरीदी। शाम में जब बाराती खाने बैठे तुरंत सराती वालों ने हमारे ददिहाल में पड़ा एक भीमकाय पंखा हिला दिया। बाराती वाले उठ गए। उठ तो गए लेकिन उस दिन हम भाई बहनों का झगड़ा भूले नहीं भूलता। जब बड़ो ने बाराती बने बच्चो से पूछा क़ि तुम लोग क्यों खाने पर से क्यों उठे हमारा जबाब था कि अरे उन्होंने ने पंखा जो हिला दिया। यहाँ गौर करने की बात यह है कि हमारे मिथिला के रिवाज़ के मुताबिक जब बारात में भोजन का अंत हो जाता था तो सराती वाले पंखा हिलाते है। लेकिन उन्होंने तो बैठते ही हिला दिया तो झगड़ा तो होना ही था!

Wednesday, 19 October 2016

यक्ष युधिष्टिर वार्ता केअनुसार हर रोज इस संसार में करोड़ो लोग जन्म लेते हैं और इतनी ही संख्या में लोग मरते हैं फिर भी लोग इस सच्चाई से डरते हैं इससे बड़ा आश्चर्य कुछ नहीं। लेकिन आज अगर इससे भी बड़ी सच्चाई की खोज की जाए तो वो है पैसे के पीछे की ललक। हर कोई जानता है कि हमारे साथ कुछ नहीं जाएगा फिर भी लोग इसे पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। साथ नहीं जाएगा ये तो स्पष्ट है उसके बाद ये स्थिति है। अगर हम जरा कल्पना करें कि एक ऐसी व्यवस्था होती जिसमें हम मरने के बाद अपने साथ अपनी सारी संपत्ति ले जाते तो क्या होता?

Sunday, 16 October 2016

जिस देश में हमने एकलव्य और आरुणि जैसे शिष्यों को पाया ,जिस देश में स्वयं भगवान् ने भी जरूरत पड़ने पर अर्जुन को शिष्य बनाकर भगवद्गीता की रचना कर डाली वहाँ गुरु और शिष्य की पवित्र रिश्ते में इतनी खटास क्यों? हाल के कुछ दशकों में अगर किसी रिश्ते का भरपूर व्यवसायिकरण हुआ है तो ये शिक्षक और शिष्य का सम्बन्ध है। बहुत प्राचीन काल में गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने की परंपरा हमारे देश में थी। आज हमारे मन में किसी भी महान व्यक्ति के बराबर गुरुदेव को इज़्ज़त प्राप्त है। हमने शायद स्व.अबुल कलाम को भी राष्ट्रपति और वैज्ञानिक से अधिक एक शिक्षक के रूप में ही अपने अधिक करीब पाया। अब जबकि हम हर क्षेत्र में बहुत तरक्की कर रहे हैं तो पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि इस अहम् रिश्ते में कड़वाहट घुलती जा रही हैं। बच्चे शायद ये समझने लगे है कि हम पैसे के बदौलत शिक्षा हासिल कर रहे है तो इसमें त्याग और समर्पण जैसी कोई बात नहीं।इसमें मात्र बच्चे ही नहीं अभिवावक भी दोषी हैं। बाल्य अवस्था से ही ट्यूशन भी शायद इस रिश्ते में पैसे की अहमियत को बढ़ावा देता है। आज छोटे छोटे बच्चों में ट्यूशन ने इतनी पैठ जमा ली है कि छुटपन से ही उन्हें वैशाखी पकड़कर चलने की आदत पड़ जाती है ।पैसे की बदौलत कुछ भी हासिल करने की इस चाह ने हमारे यहाँ कोचिंग संस्थानों को जबरदस्त हवा दी है। जब आर्थिक स्तर पर टीचरो का मूल्यांकन हो तो उसमें इज़्ज़त और त्याग की बात कहाँ आती है। आज क्लासरूम में किसी टीचर को अश्लील रिमार्क देना या शिक्षक के डाँट का बदला उसे बाद में शारीरिक या सामाजिक तौर पर देना आम बात है। 

इस समस्या का दूसरा पक्ष बच्चों की समस्याओ से जुड़ा हैं। हमारे एक परिचित अपने बचपन को याद करते हुए एक शिक्षक के बारे में बताते हैं कि जिस दिन भारत क्रिकेट का मैच हारता था उसके बाद हमारी मार तो पक्की रहती थी लेकिन इसके बावजूद उस शिक्षक की पढाई को कोई छोड़ना नहीं चाहता था और न ही उनके पाठ को कोई भूल सका है। यहाँ ये बात स्पष्ट हो जाती है कि दुधारू गाय की लात भी लोग सहते हैं लेकिन सिर्फ प्रताड़ना सहना कौन चाहता है? हम आए दिन छोटी बच्चियों के साथ उसके शिक्षक के दुष्कर्म करने की घटना अथवा किसी शिक्षक के अपने छात्र के बुरी तरह पिटाई की घटना अखबार में पढ़ते हैं। जिस पटना के कॉलेजो की तुलना ऑक्सफ़ोर्ड जैसी जगह से की जाती थी वहां के तमाम कॉलेजो में पढाई एक मजाक बनकर रह गया है। आए दिन स्ट्राइक और राजनीतिक गतिविधियों के कारण के कारण क्लास होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। हमारे राज्य में प्रोफेसरो को अब केंद्रीय वेतनमान दिए जाते हैं जबकि पढाई तो स्थानीय स्तर से भी कम। इसमें कोई शक नहीं की इसका पीछे राजनीतिक प्रश्रय भी है लेकिन भुगतते तो बच्चे ही है।

मैंने इस विषय पर आत्ममंथन किया लेकिन इसका समाधान के रूप में एक नहीं कई कारण  मुझे मिले हैं; राजनीतिक, सामाजिक परिवर्तन और आधुनिकीकरण इसके कारण भी हो सकते हैं। ये बात कितनी चिंतनीय है कि जिस मकान की नींव ही कमजोर हो वो कितनी मजबूत होगी।

Saturday, 15 October 2016

कल फिर एक बच्चे ने कोटा में अपनी इहलीला समाप्त कर ली। सिर्फ कोटा शहर में आत्महत्या की ये इस साल की 14वीं घटना है। दोषी कौन? खुद बच्चा, या माता पिता, टीचर या दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली! क्या जरूरी है कि हर बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर ही बने। चाहे उसमे प्रतिभा हो या ना हो। ये दिली इच्छा तो हरेक अभिभावक की होती है कि मेरा बेटा लायक हो लेकिन इसे मात्र कुछ ही क्षेत्रों में समेटना कहा तक उचित है। किसी भी बच्चे को किसी मंहगे कोचिंग में दाखिला दिलवाने के बाद माँ बाप उस बच्चे से कई तरह की उम्मीदें पाल लेते है। न सिर्फ माँ बाप के साथ साथ उस बच्चे पर सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक दबाब इतना बढ़ जाता है कि वो शायद अपने आप में ही उलझता जाता है। और ये उलझन किसी के सुलझाने की स्थिति से परे होती हैं। इस मामले में हमारी सामाजिक स्थिति भी दोषपूर्ण हैं।विदेश में रहनेवाले मेरे एक परिचित ने उस देश की खासियत बताते हुए कहा कि वहाँ हर आदमी अपने कार्य से खुश है और हर किसीको उसको काम के लिए उतना ही सामाजिक इज़्ज़त दिया जाता है जितना की किसी की दिली इच्छा होती है। जब कोई भी अपने काम से खुश होगा तो यक़ीनन अपने काम को भली भांति करेगा। फिर चाहे वो स्वीपर हो या कोई बड़ा अधिकारी। क्या हमारे यहाँ ऐसा हैं तो क्यों मात्र बच्चे या अभिवावक पर दोषारोपण करे उसके जिम्मेदार तो कही न कही तो हम भी है न?

Monday, 26 September 2016

समाज और पैसा

आज से बहुत पहले ही कभी किसी  मंत्री ने अपने देश के भ्रष्ट शासन व्यवस्था को देखते हुए इस बात पर दुःख व्यक्त किया था कि अगर हमारे देश में केंद्र सरकार 1  रूपए मंजूर करती है तो उस व्यक्ति तक पहुँचते पहुँचते वो रकम मात्र 19  पैसे रह जाती है। ये आंकलन बहुत पहले का है तो निश्चय ही ये 19  पैसे वाली रकम घटकर5 पैसे तक रह गयी होगी क्योंकि हमारे देश में इस तरह की समस्या तो दिनों दिन बढ़ती ही जा रही हैं।  खैर, इस मुद्दे पर मेरी चिंता यह मापने की नहीं है कि भ्रष्टाचार कितनी बढ़ी है। उसके लिए काफी  सरकारी  विभाग  और कर्मचारी तैनात हैं। यहाँ मेरी चिंता समाज में बढ़ते हुए बदलाव की ओर  है।  हाल के कुछ वर्षो में समाज में पैसे की इज्जत बहुत तेजी से बढ़ी है ,लोगो को इस बात से कोई मतलब नहीं कि  अमुक व्यक्ति के पास पैसा कहाँ  से आया या उसने किस तरह से धन कमाया  . आज  अगर किसी के पास पैसा है तो उसकी समाज में प्रतिष्ठा है। जहाँ  पहले लोग बेईमान लोगो को घूसखोर ,चोर आदि नामो से संबोधित करते थे ,वही अब उनकी इज्जत समाज में बढ़ती जा रही है। एक ही पोस्ट पर बेईमान और ईमानदार कर्मचारी  के रहन सहन में अंतर को समाज प्रशंसा नहीं हिकारत की दृष्टि से देखता है।अपने इस प्रकार की भावना के द्वारा हम समाज में अनेक कुरीतियों  को बढ़ावा दे रहे हैं। आज दहेज़ के कारण अनेक गुणी  लड़कियां अपने योग्य  वर   से वंचित रह जाती है.न सिर्फ दहेज़ बल्कि जीवन के हर एक मोड़ पर नाकाबिल व्यक्ति किसी योग्य की जगह को पैसे के सहारे उस जगह को हासिल कर लेता है ,फिर वो चाहे नर्सरी क्लास की सीट हो या कोई महंगा कॉलेज। अगर कोई  भौतिक सुविधओं से वंचित रह कर भी समाज में अपने लिए इज़्ज़त हासिल कर लेता  है तो वो उसके लिए आत्मसंतोष की बात होती है। लेकिन  आज के समाज ने अपने  बदलते हुए  रूप से  एक ईमानदार व्यक्ति को बजाय अतिरिक्त इज्जत के हिकारत ही  दिया है।तो ऐसे में किसी भी मजबूत से  मजबूत  शख्स के  पथविचलित होने में कोई आश्चर्य  की बात नहीं।  हमने बचपन से एक ही बात सुनी थी कि जिंदगी में पैसा बहुत अहम् स्थान  रखता है लेकिन पैसे से भी बड़ी  चीज़ इज्जत है क्योंकि पैसा तो एक स्मगलर भी कमा  लेता है। आज भी ये बात 100  में से 5 % लोगो में  मौजूद है भले ही   हम न्यूज़ और अखबारों  रोज भ्रष्ट अधिकारियों की लंबी लिस्ट देखते है लेकिन यदा  कदा  श्री अशोक खोसला (आई .ए .एस . अधिकारी )  जैसों को भी देख लेते है जिन्होंने अपनी ईमानदारी का मूल्य 19  साल में 20  ट्रांसफर के द्वारा चुकाया। मेरा तो इस बारे  में यह मानना है कि  भले ही कोई अपने बुरे कर्मो की सजा संसार की अदालत में न पाए लेकिन वो सबसे बड़ी  अदालत से नहीं बच सकता। अपने नैनीताल के भ्रमण में मैंने वहाँ एक ऐसे मंदिर को देखा जो न्याय के देवता गोलुमहाराज कहे जाते  है उस मंदिर में अनगिनत पर्चियां  टंगी हुई थी। कहते है कि  जिनकी फ़रियाद  कोई नहीं सुनता उसकी अपील गोलुदेव सुनते हैं। उस मंदिर में जिनकी फ़रियाद पूरी होती है वो अपनी सामर्थ्य के अनुसार घंटे का चढ़ावा चढ़ाता  है।  बुरे कर्मो का फल  देर सवेर  तो मिलता ही है इसका प्रमाण मुझे उस मंदिर में ही मिला क्योंकि मैंने वहाँ  न सिर्फ अनगिनत पर्चियां ही देखी बल्कि उतनी ही मात्रा में असंख्य घंटे और घंटियाँ भी देखी। 

Sunday, 18 September 2016

किशोरवय बच्चे

आधुनिकीकरण के कारण हमने बहुत सी चीज़ों को पाने के साथ काफी कुछ खोया भी है। एक समस्या मुझे काफी व्यथित करती है वो है हमारे किशोर होते  हुए बच्चो की समस्या। क्यों आज कल के बच्चे इतने भावुक होते जा रहे हैं।आए दिन बच्चों के क्रियाकलाप को देखकर हम दंग रह जाते है ।कई बार टीवी,कई बार सिनेमा आदि से प्रभावित होकर वो ऐसे कदम उठा लेते है जिनकी कल्पना भी मुश्किल थी।  पहले जहाँ  घर में एक साथ कितने ही बच्चे रहते थे वही परिवार के एकल होने के कारण उनकी संख्या काफी कम हो गयी है। साथ ही परिवार में बच्चों की संख्या काफी कम हो गयी है ।पहले की तुलना में माँ बाप उनके खाने  पीने से लेकर हर चीज़ को लेकर विशेष सतर्क  हो गए है लेकिन बच्चे और ज्यादा आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। मुझे ऐसा लगता है कि जैसे जैसे माँ बाप का बच्चों को सुविधा देने का ग्राफ बढ़ता जा रहा है उसी अनुपात में बच्चे अधिक सुविधा पसंद होते जा रहे हैं।मुझे न सिर्फ अपनी बल्कि अपने साथ के सभी बच्चों की खाने के प्रति ऐसी कोई बात याद नहीं कि अमुक बच्चे को अमुक चीज़ नहीं खानी है । पहले प्रायः ये बात थी क़ि हर खाने वाली चीज़ खानी है ।लेकिन अब हर घर में हर माँ बच्चे की पसंद और नापसंद से परेशान है ।अगर घर दो बच्चे है तो एक बिस्कुट में भी विविधता है ।अब की पीढ़ी को किसी भी काम में टोकना पसंद नहीं है ।चाहे वो दोस्तों की बात हो या उनके कैरियर की ।वो अपना फैसला खुद लेते हैं ।ठीक है आज के बच्चे हमारी तुलना में काफी जागरूक हैं लेकिन गलती होने की संभावना तो रहती ही है ।तो मैं एक प्रश्न करना चाहती हूँ कि उम्र के इस पड़ाव पर अगर माता पिता न टोके गुरुजन नहीं टोकें तो वो कौन है जो गलत सही की पहचान करवा सके ।आज किसी भी जुर्म में अगर मुजरिमो की शिनाख़्त की जाए तो ज्यादातर मुजरिम नाबालिग होते है और कई बार अच्छे और रसूखदार परिवार के ।हैरानी की बात ये है कि कई बार ये अपराध मौज मस्ती या गर्ल फ्रेंड को इंप्रेस करने के लिए होती है।इस मामले में लड़किया भी पीछे नहीं है । जहां तक हार्मोनल बदलाव की बात है वो तो हर पीढ़ी के साथ हुआ होगा ।किसी एक बच्चे या किसी एक परिवार नहीं मेरी चिन्ता तो समाज के प्रति है।और तो और अगर एक बात गौर की जाए तो आज के बच्चों ने तो कुदरत  के साथ भी दो दो हाथ कर लिया है ।जहाँ हमारे लिए सुबह छह बजे  अनिवार्य रूप से बिस्तर छोड़ने की पाबन्दी होती थी वही अब तो सभी बच्चों ने रतजगे का नियम बना लिया है ।जाहिर है जब पूरी रात जगे रहेंगे तो सुबह छुट्टी वाले दिन हर घर में बच्चे सोये ही मिलेंगे ।फिर भी आज की बिंदास पीढ़ी अच्छी ही लगती है ,हर बच्चा चाहे कितना ही स्वछन्द हो ,चाहे मोबाइल पर कितना ही वक़्त बिताए एक बात मुझे इनकी बड़ी ही प्रभावित करती है वो है इनके भविष्य की योजना ।जिस समय हमने कुछ भी सोचा  न था उसी अल्पायु में  बच्चे न सिर्फ कैरियर का फैसला कर लेते है बल्कि उसके प्रति पूर्ण समर्पित भी हो जाते हैं ।

Wednesday, 14 September 2016

हिंदी दिवस

जिस देश की  राष्ट्रभाषा हिंदी हो उस देश में हिंदी दिवस अलग से मनाया जाए ये बात दुर्भाग्यपूर्ण किन्तु सच है। ये बात आज मेरी सखी ने हिंदी दिवस के अवसर पर कहा। क्या लगता है आपको  हम  देश में हिंदी की कितनी इज़्ज़त करते है ? मेरी नज़र में इस तरह के किसी भी दिवस का मनाया जाना एक ढकोसला के अलावा कुछ नहीं।  अखबारों में दो चार  हिंदी से समन्धित रचनाओं  प्रकाशित  किया गया। हिंदी  के उत्थान की भाषणबाजी हुई और बात खत्म।बैंक और दूसरे सरकारी जगहों पर हिंदी को बढ़ावा देने जैसी तमाम बातें लिखी रहती हैं लेकिन बस लिखी ही रहती है ।क्यों हमारी मानसिकता ऐसी हो गयी है कि हम अंग्रेजी बोलने वाले के प्रति एक अतिरिक्त इज़्ज़त की भावना रखते हैं। हमारे बच्चे जब हिंदी के महीने या हिंदी की गिनती गिन नहीं पाते तो हमारी शान में चार चाँद लग जाते हैं ।क्यों हमारे हिंदी सिनेमा से पैसा कमाने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियां  सार्वजनिक जगहों पर अपना भाषण अंग्रेजी में करते हैं।उस समय मैं अपने आप को लज्जित महसूस करती हूँ जब सरकारी दफ्तर और सड़को पर यातायात  की जानकारी के लिए कई जगपर हिंदी में लिखे हिज्जे भी गलत होते हैं। ऐसी भावना किसी भी भाषा के लिए घातक है। हमें तो गर्व होना चाहिए कि हमारे देश में ऐसे लेखक और कवि हुए हैं जिनकी तमाम  पढाई अंग्रेजी भाषा के लिए हुई हो और पीढ़ियों तक उन्हें हिंदी की कविताओं के लिए जाना जाए ।जी हाँ स्वर्गीय हरिवंश रॉय बच्चन एक ऐसी ही शख्सियत थे। ऐसा नहीं है कि स्वर्गीय बच्चन जी के बाद ऐसे लोग नहीं होते ।आज भी हमारे एक भाई श्री सुनील झा ऐसी ही शख्सियत है जिनकी पढाई तो अंग्रेजी के शीर्ष तक हुई लेकिन  हिंदी और अंग्रेजी पर उनका समानाधिकार है ।जरूरत है सिर्फ सोच बदलने की।

Wednesday, 7 September 2016

रक्षा बंधन

पिछले महीने से लेकरआनेवाले दो महीने अपने साथ मानों त्योहारों की बाढ़ लेकर आता है। सावन पूर्णिमा के दिन राखी का पर्व भाई बहन के आपसी प्रेम को दर्शाता है. राखी का त्यौहार हमारे मिथिला में आज भी उतना महत्व नहीं रखता जितना की भाई दूज। फिर भी हमने तो राखी बचपन से मनाई है तो जाहिर है उस दिन तो भाई को  याद करके दिन में  कई बारआँखें गीली हो उठती है। अब बात आती है उन बच्चो की जिनकी या तो बहन नहीं है या फिर भाई नहीं है। यहाँ मेरा अभिप्राय उन बच्चो से है जो या तो दो भाई है या फिर दो बहने।अब तो हमारे समाज में बच्चो की संख्या एक या दो तक ही सिमट कर रह गयी है जो की जमाने को देखते हुए उचित है। ऐसे में वे बच्चे यकीनन भाई या बहन की कमी उनसे भी ज्यादा महसूस करते है जो परिस्थितिवश अपने सहोदरों से दूर है। प्रत्येक वर्ष जब राखी की छुट्टियों के बाद मेरे बच्चियां स्कूल से आती  तो राखी वाले दिन से भी ज्यादा उदास हो जाती। कारण उस दिन सभी लड़किया अपने अपने भाइयो के दिए गिफ्ट का  बखान करती। बाद के कुछ वर्षो में दोनों बहनों  में एक समझौता हो गया कि नौकरी करने के बाद बड़ी बहन छोटी को गिफ्ट देगी। इस साल राखी वाले दिन सुबह से दोनों बहनों ने  फ़ोन पर रोज की बात चीत की। पूरे दिन के बीतने के बाद अचानक जब रात के नौ बजे घंटी बजती है और domino's से पिज़्ज़ा लेकर डिलेवरी बॉय हमारे घर आता है तो हम सभी इसलिए आश्चर्यचकित हो जाते है क्योंकि इसे तो हम में से किसी ने आर्डर ही नहीं किया। तब ये पता चलता है कि ये एक अग्रजा के द्वारा अपनी अनुजा को दिया राखी का गिफ्ट है। अब तो न बादशाह  हुमायूं और रानी कर्णावती का ज़माना रहा और न ही भाई बहन की रक्षा युद्ध कर के करे  ऐसी कोई  बात है। ये तो एक स्नेह की डोर है जो  रिश्तो में बंधी है। फिर चाहे दो बहनों  के बीच हो या दो भाईयों के बीच।                        

Monday, 5 September 2016

गुरु की महिमा

डॉ राधाकृष्णन के जन्म दिवस को हम सभी शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं। ये तो सर्वविदित है  कि बच्चे की पहली गुरु उसकी माँ होती है। लेकिन ये बात सिर्फ  छुटपन की नहीं है मेरे अनुसार  माँ तो पूरी जिंदगी ही किसी के व्यक्त्वि निर्माण में अहम् भूमिका निभाती हैं। ससुराल जाने के पहले माँ की छोटी सी सीख किसी लड़की की वैवाहिक जिंदगी में काफी  महत्व रखता है। अगर मैं  अपनी बात करूँ तो स्कूली जीवन से लेकर कॉलेज तक मैं अपनी टीचरो से काफी प्रभावित रही। सातवीं क्लास से लेकर दसवी तक सिस्टर गुलाब ने स और श के अंतर को कुछ  इस तरह हमारे अंदर कूट कूट कर भर दिया कि वो गलती तो मैं ही नहीं उनकी पढाई शायद ही कोई लड़की करें। वो इस तरह से ब्लैक बोर्ड के दोनों सिरो पर स और श की लिखावट तो नींद में भी नहीं भूल सकती। कॉलेज का अनुशासन स्कूल के मुकाबले थोड़ा ढ़ीला था लेकिन पढ़ाई के साथ हमने काफी मस्ती भी की। ये बात तो मात्र  हमारे पढाई से जुड़ी है।जब  छोटी थी तो अपने मिश्रा चाचा के मुँह से न सिर्फ  पंचतंत्र जैसी मनोरंजक कहानियों को सुना बल्कि उसने कहा था जैसी मार्मिक कहानियो की भी सीख ली है. लेकिन मेरे मन में एक बात बार बार आती है की क्या गुरु का महत्व मात्र पढ़ने लिखने तक ही सीमित है? हमारे जीवन में उनका क्या जिन्होंने हम व्यवहारिक ज्ञान दिया है. मेरी नज़र में तो मेरे ससुराल के वो रसोइया के भी उतने ही पूजनीय है जिन्होंने न जाने कितनी बार मेरी गलतियों सुधारा। मैं उस ड्राइवर को भी गुरु ही मानती हूँ जिसने मुझ अनाड़ी को गाड़ी सिखाने की हिम्मत दिखाई, कैसे भूल जाऊ अपनी काम वाली अनपढ़ बाई संजू को जो उम्र में मुझ से काफी छोटी होने के बाद मुझे रोज़ एक नई बात सीखा देती है. आज कल तो  मेरी सबसे बड़ी टीचर मेरी बेटियां है जो कंप्यूटर और मोबाइल की रोज़ होने वाली परेशानियों से मुझे उबारती हैं। गुरु तो गुरु है फिर चाहे वो पढ़ा हो या न हो। रसोई से लेकर व्यापार तक में गुरु का महत्व अतुलनीय है। तो गुरु को सिर्फ पढाई तक ही क्यों सीमित करें।

 इस बात की चर्चा में एक व्यक्ति को नहीं भूल सकती मेरे स्वर्गीय कका। कका मेरी ही नहीं हम तीनो भाई बहन  का एक अविस्मरणीय आद्याय है जिसे हम अपनी जिंदगी में कभी नहीं भूल सकते। मेरे चाचा जिन्हें हम कका कहते थे अत्यंत मेधावी छात्र और CCL में उच्च पदस्थ इंजीनियर थे। मेरी बालपन की याद में वो BIT SINDRI  में पढ़ते थे। छुट्टियों में जब भी घर आते हमारी पढाई देखते। मुझे याद है मैं जब पढ़ते पढ़ते गुस्सा हो जाती तो मनुहार करते। न जाने कितनी बार उन्होंने हमे माँ की डॉट और फटकार से बचाया है। जब कका ने नौकरी की शरुवात की तो हम प्रायः उनके पास जाते। उनके अधीनस्थ कर्मचारियों को आराम की जिंदगी जीते हुए देखती वही काकी जरूरत पड़ने पर भी एक जीप को तरसती। वो ऑफिस की गाड़ी है और उसका इस्तेमाल मैं अपने काम के लिए नहीं कर सकता ये हमारे घर का एक अलिखित नियम था । चूँकि वो हमारे लिए एक आदर्श थे तो ये ईमानदारी की बात बालपन से ही हमारे मन में घर कर गयी। कहते हैं अत्यंत मेधावी लोगो की आयु कम  होती हैं तो कका काफी काम उम्र में चले गए लेकिन अपनी छोटी सी जिंदगी काफी कुछ सीखा गए। आज के इस खास दिन पर अपने समस्त गुरुजनों को मेरा शत शत नमन।                                                                         

Sunday, 21 August 2016

मंदिर

मेरे घर में एक नियम है हम कही जाने या कही से आने पर अपने पूजा घर में भगवान् को १०- २० रुपये चढ़ाते है जिसे प्रणामी कहते है। आने जाने के अलावा किसी खास अवसर पर भी ये रकम चढ़ाई जाती है। मात्रा १०-२० रूपये की रकम चार पाँच महीने में ६०० से ७०० हो जाती है। जिससे पूजा की कोई सामग्री खरीद ली जाती है। ये एक छोटी सी बात है और हो सकता है ऐसा बहुत सारे घर में होता हो। यहाँ ध्यान देने की ये बात है कि  मात्र एक घर के ६ -७ लोगो के द्वारा जमा की गयी रकम इतनी हो सकती है तो आप जरा अपने के आस पास के मंदिरों के बारे में सोचें। ये बात मैं शहर या अपने राज्य के बारे में कह सकती हूँ. किसी भी तरह से नास्तिक नहीं हूँ लेकिन मेरा कहने का अभिप्राय है की न जाने कितने लाचारों और गरीबो की आमदनी भगवान् के नाम पर पंडितों के हाथ में चली जाती है। देश के बड़े मंदिरो के बारे में कई बार समाचार में भी निकाले जाते है और इसकी चर्चा आम लोगों  के बीच होती है। लेकिन इन छोटे मन्दिरों की ओर तो किसी की नज़र भी नहीं उठती है. मैंने अपने इर्द गिर्द जितने मंदिरों को देखा है वहाँ जैसे जैसे मंदिर का परिसर संकीर्ण होता जाता है उसी अनुपात में पंडितो का घर फैलता  जाता है। तारीफ़ की बात ये है की घर भगवान् का हो या पंडितो का दोनों ही सरकारी जमीं पर बने होते है। आज की तारीख में किसी मंदिर की स्थापना एक मुनाफे का सौदा है। अगर आप किसी मंदिर को उसके प्रारंभिक दौर से बनते हुए देखे तो आप पाएंगे कि ये लंबी प्रक्रिया है। पहले किसी पेड़ के नीचे किसी भी भगवान् की मूर्ति, एकाध त्रिशूल आदि रख दिया जाता है और समय के अनुसार (सावन या नवरात्रि के) धार्मिक गीत बज कर सजावट की जाती है. धीरे धीरे वहाँ  लोगो का ध्यान जाता है और लोग वहाँ  पैसे चढ़ाने लगते है जनमानस के मांग पर वहाँ कोई पंडित भी रहता है। इस प्रकार किसी भी जमीन पर  आसानी से मंदिर की स्थापना हो जाती है। एक बार मंदिर या कोई अन्य धार्मिक इमारत के बनने के बाद उसे हटना प्राय असंभव हो जाता है क्योंकि यहाँ के लोग अन्य बातो में चाहे कितने भी उदारवादी बन जाए धार्मिक तौर पर बड़े कट्टर होते है।  

Sunday, 7 August 2016

फ्रेंडशिप डे

आज पूरी दुनिया फ्रेंडशिप डे मना रहा है। जब बच्चे छोटे थे तो एकाध सफ्ताह पहले से ही दर्ज़नों फ्रेंडशिप बैंड खरीदते थे और आने  वाले चार पांच दिनों तक किस दोस्त का बैंड  ज्यादा अच्छा है उसकी चर्चा होती और दोस्ती के रेटिंग के हिसाब से वो कलाई पर  उतने दिनों तक बंधा  रहता था। उसके लिए बच्चों को काफी  डांट भी पड़ती थी । मैं ये मानती हूँ कि  हमारे जीवन में एक समय ऐसा होता है कि सभी रिश्तेदारों  से बढ़कर हमे दोस्त प्रिय हो जाते हैऔर  हम अपनी सभी  समस्याएँ  उनसे साझा  करना चाहते हैं।                                                                              
हमारे मिथिला में फ्रेंडशिप को हम बहुत दिन से मानते आये है। इसके लिए कोई खास दिन तो नहीं होता था लेकिन वह दोस्ती लगाई जाती थी। चूँकि प्रायः संयुक्त परिवार का चलन था और जो भी नौकरी के सिलसिले में जो बाहर रहते थे उनका हर छुट्टियों  में गांव  आना प्रायः तय होता तो एक उम्र के भाई  और बहन   आपस में कुछ दोस्ती लगा लेती थी। ये दोस्ती बाकायदा माँ ,चाची ,मामी के सहयोग से होता था। इसमें दो छोटे बच्चे एक दूसरे को किसी  मीठी चीज़ का आदान प्रदान करते थे और एक दूसरे से वादा  करते थे की भविष्य में वे एक दूसरे को उनके नाम से नहीं किसी कॉमन नाम से पुकारेंगे। लड़कियों में ये कॉमन  नाम गुलाब ,प्रीत ,मिलन ,फूल,दिल  ,रोज और न जाने क्या क्या होते थे। वही लड़को  में दोस्त ,मीत  ,मित्र ,यार और बहुत कुछ । बस इसी को दोस्ती लगाना कहते थे।ये दोस्ती मात्र भाईयों और बहनों तक ही सीमित  नहीं था बल्कि ये ननद भावज ,जिठानी देवरानी में भी  प्रचलित था।  शायद  दोस्ती लगाने का  मतलब रिश्तों  में मिठास और नज़दीकी लाना होता हो।हमने जो भी दोस्ती लगाई वो इतनी छोटी उम्र में लगाई कि  वो घटना मुझे याद नहीं   लेकिन दोस्ती लगाने के साथ साथ हम भाई बहनों में  झगड़े भी खूब होते थे  अब तो वो   रिश्ते  इतने औपचारिक हो गए है कि झगड़ो  का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे विचार से बचपन के वही झगड़े भविष्य के लिए ठोस नीँव  का काम करती थी।   अब  की बात कहे तो  हम इतने व्यस्त हो गए है कि अपने सहोदरो से मिले अरसा हो जाता है तो चचेरों और फूफेरों की बात कौन कहे।  आज अगर मैं  अपनी किसी बहन को फूल कहती हूँ तो मेरी ही बेटी पूछती है कि तुम मौसी को फूल क्यों कहती हो उनका नाम तो कुछ और है  ? 

Friday, 15 July 2016

बीमारी

जिस तत्परता से कोई भी अनुभवी माँ बाप अपनी सम्पत्ति का बंटवाराअपने बच्चों के बीच करता है ठीक उसी ईमानदारी से विधाता उस माँ बाप की बीमारियों का बंटवारा उनके बच्चों के बीच करता है ऐसा मैंने अपनी जिंदगी में अनुभव किया है। इसे मेरीअतिशयोक्ति भी कह सकते है कि मुझे पूरा विश्वास हैहृदय संबंधी बीमारियां हम भाई बहन भगवान के घर से अपने लिए लेकर आये है।कभी कभी मैं  इस सम्बन्ध में कुछ अधिक ही सशंकित हो उठती हूँ |पिछले महीने जब मैं अपनी रूटीन चेक के लिए डॉक्टर के पास गई और डॉक्टर के पूछने पर  कि आपको  कोई समस्या अभी है क्या ?मैंने अपनी छोटी छोटी परेशानियों को एक लम्बी लिस्ट के रूप में डॉक्टर के सामने पेश किया|अचानक मैंने ये महसूस किया की डॉक्टर की मुख मुद्रा बदल गई और झल्लाते हुए उन्होंने मुझसे कहा "कुछ नहीं हुआ है आपको ,अगर मैं आपको मॉर्निंग वॉक करने को कहूंगा तो आप करेगी नहीं "सब नार्मल है।मैं बिलकुल आश्चर्य में पर गई क्योंकि मैंने उस डॉक्टर को कभी जोर से बोलते भी नहीं सुना था। तभी मेरा ध्यान उस फूल सी बच्ची पर गया जो मुझ से पहले अपनी माँ के साथ डॉक्टर के चेम्बर में गयी थी और जब वो बाहर आई तो मैंने बस उस सुन्दर सी बच्ची से पूछा कि मम्मी को दिखाने आई  हो ?नहीं नहीं मम्मी मुझे दिखाने आई है।अरे,एक कार्डियोलॉजिस्ट के पास बच्चों का क्या काम? मैंने इसे  उसकी नादानी समझ कर कहा, क्या बुखार हैनहीं ,मेरे हार्ट में छेद है. तभी उसकी माँ उसके तमाम रिपोर्ट्स लेकर बाहर आई और कम्पाउण्डर को फीस देने लगी। नहीं, डॉक्टर ने आपसे फीस लेने से मना किया है। वह लडकी इतनी ही मासूम थी कि वो अपनी माँ से सिर्फ इस बात के लिए झगड़ रही थी कि जब ये मेरी रिपोर्ट है तो इसे मैं खुद क्यों नहीं पकड़ सकती हूँ
मैं अपने बर्ताव पर खुद शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। मुझे उस डॉक्टर में फिल्म आनंद के एंग्रीयंग मैंन की छवि वाले अमिताभ बच्चन की याद  गयी जो एक मरीज की बेकार की तकलीफों से झल्ला उठता है। क्यों कभी कभी हम इतने स्वार्थी हो उठते है की हमें दुनिया में अपने सिवा किसी की तकलीफ नज़र ही नहीं आती है और हम खुद को सबसे ज्यादा दुखी महसूस करते है। क्या उम्र थी बच्ची की कि वो इस दुख को झेल रही थी? उस डॉक्टर ने तो अपनी छोटी सी मदद से शायद कुछ आत्मसंतोष पा लिया लेकिन हमारा औरआपका क्या?