Saturday, 12 November 2016

अभी जबकि पूरा देश नोटों के अदल बदल में लगा हुआ है मैं 14 नवम्बर का इंतज़ार कर रही हूँ जब देश भर के प्रायः सभी स्कूलो में बाल दिवस मनाया जाएगा।बाल दिवस मनाने से पहले हम जरा बच्चों से समन्धित कानून के बारे में ग़ौर  करें। हमारे देश में बाल मजदूरी से संबंधित पहला कानून 1952 में पारित हुआ जिसे 1986 और 2008 पुनः कुछ संशोधनों के साथ फिर से पारित किया गया। इस नियम के अंतर्गत 14 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बाल मजदूर से काम करवाना कानूनन अपराध है लेकिन इसके बावजूद हमारे देश में बाल मजदूरी की क्या स्थिति है ये सर्वविदित है। कानून बनाना एक बात और उसका सामाजिक स्तर पर लागू होना अलग बात ।इस सिलसिले में मुझे अपने एक परिचित की बात याद आती है। मेरे उन परिचित ने कसम खाई क़ि मैं कभी उन होटलों या किसी ढाबा में खाना नहीं खाऊँगा जिनमें बाल मजदूरी को प्रश्रय दिया जाता हो। इस तरह की खाई जाने वाली कसमें जितनी आसान होता है उसे निभाना उतना ही कठिन। उन सज्जन ने अपनी कठिनाई बताते हुए कहा कि मुझे अपने दफ्तर के आंचलिक दौरों में मुझे एक भी ऐसा ढाबा नहीं मिला जिसमे नाबालिंग बच्चे काम न करते हो परिणामस्वरूप दो दिन के फलाहार के बाद ये कसम वही टूट गईं। हम और आप सभी अगर नज़र दौड़ा कर अपने चारों ओर देखे तो घर से लेकर बाजार, दुकाने, फैक्ट्रीज और सभी जगहों पर अपने नन्हे नन्हे हाथों से काम करने वाले कई बाल मजूदर अनायास ही दिख जाएंगे बावजूद इसके की यह कानूनन जुर्म है।अगर जबरदस्ती कभी किसी बच्चे को किसी समाजसुधारक जैसे जीव ने स्कूल में नाम लिखा भी दिया तो वो क्षणिक होती है और हमारी ओर तो उसका उद्देश्य मिड डे मील, साइकिल और तमाम सरकारी सुविधाएं। सरकारी योजनाएं और सरकारी स्कूलों की हालात किसी से छिपी नहीं। ये योजनाएं मात्र अपने टारगेट पूरा करने की तरफ से चिंतित रहती है। मेरी एक सहेली जो घर पर बच्चों की ट्यूशन लिया करती है उसके विद्यार्थियों में आर्थिक तौर कमजोर बच्चों की संख्या हमेशा ही अधिक होती है। फिर चाहे वो धोबी का पोता हो या गार्ड का बेटा। प्रशंसनीय बात तो ये है कि मेरी सहेली का बेटा उन बच्चों को अपने साथ बैठाना और खिलाना भी चाहता है। लेकिन किसी एक के ऐसा करने पर तो समाज नहीं बदलता।जब मेरी सहेली पढाई बंद होने पर वैसे ही किसी बच्चे की माँ से उसकी पढाई बंद करा कर नौकरी न करवाने की अपील की तो उस बच्चे की माँ का जवाब था कि "तोहनी के लइकन पढ़ लिख कर नौकरी करत हई अउर हमनी के बिना खरचे कएने,त अंतर कोंनची हई? ("आप लोगों के बच्चे पढ़ लिखकर नौकरी करते हैं और हमारे बच्चे बिना खर्च के ,तो अंतर क्या है?")

फिर भी मैं सुबह स्कूल जाते हुई बच्चों की कतार को देखकर विकास की एक छोटी सी उम्मीद अपने मन में महसूस  करती हूँ आशान्वित हूँ क़ि आज भले ही ये बच्चे किसी लालच में स्कूल की ओर आकर्षित हो रहे है लेकिन कल शायद स्कूल की शिक्षा उन्हें अपनी ओर खींच ले ......

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