Friday, 21 October 2016

"वसुधैव कुटुम्बकम" सम्भवत मेरे श्वशुर कुल में इसी पर विश्वास किया जाता है। यूँ तो मेरी शादी हम दो हमारे दो के फलसफे वाले परिवार में हुआ लेकिन ऊपरवाली पीढ़ी बड़ी और सयुंक्त थी। इसलिए हम सभी बहुत दिनों तक साथ में रहते थे। साथ रहते हुए जहाँ मैंने बहुत सी वर्जनाओं को  सहा वही बहुत अधिक स्नेह भी पाया है। छोटे बच्चों के पालने की कठिनाई मैंने कभी नहीं महसूस की। होली, दीवाली और छठ जैसे त्योहारों को हमने बहुत ही आनंद के साथ  बिताया है। हमारी दादी माँ छठ करती थी और उस हिसाब से ये हमारा वार्षिक पर्व था। पूरा घर छठ में इकठ्ठा होता था। उन चार दिनों में शायद हम पूरे साल की मस्ती की कसर निकाल लेते थे। क्या नहीं होता था, पूरी पूरी रात जागना, नाच गाने। देखा जाए तो हमें पूरे साल छठ का इंतज़ार रहता था। इस विषय पर तो मैं अपनी लेखनी पर कभी विराम ही नहीं लगा सकती।
धीरे धीरे समय बदला  पुराने लोग हमारे बीच नहीं रहे और त्यौहारो का स्वरुप भी बदला। अगर नहीं बदला तो हमारे घर के लोगो का स्वभाव। कुछ पटना होने के कारण और कुछ हमारी मेहमानबाजी के कारण, काफी घटने के बाद भी मेरे घर अतिथियों का आवागमन बना रहता है। अपने को वातावरण के अनुरूप ढाल कर बच्चो ने इसी गहमा गहमी में पढाई को भी अपनी रूचि के अनुसार किया। मेरे घर में आए हुए मेहमानों के बाहर रखे चप्पलों की बृहद संख्या को देख कर मेरे एक आत्मीय ने मेरी बुआ (जो एक प्रख्यात लेखिका हैं) से हँसते हुए कहा कि उसके घर के बाहर चप्पलों को देखकर ऐसा लगता है कि ये घर नहीं मंदिर है। भावविभोर हो कर बुआ ने कहा भगवान् करे मेरी  बच्ची का घर सदा ही मंदिर बना रहे। ऐसी कामना तो एक बुआ ही अपनी भतीजी के लिए कर सकती है ना !

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