जिस देश में हमने एकलव्य और आरुणि जैसे शिष्यों को पाया ,जिस देश में स्वयं भगवान् ने भी जरूरत पड़ने पर अर्जुन को शिष्य बनाकर भगवद्गीता की रचना कर डाली वहाँ गुरु और शिष्य की पवित्र रिश्ते में इतनी खटास क्यों? हाल के कुछ दशकों में अगर किसी रिश्ते का भरपूर व्यवसायिकरण हुआ है तो ये शिक्षक और शिष्य का सम्बन्ध है। बहुत प्राचीन काल में गुरु के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने की परंपरा हमारे देश में थी। आज हमारे मन में किसी भी महान व्यक्ति के बराबर गुरुदेव को इज़्ज़त प्राप्त है। हमने शायद स्व.अबुल कलाम को भी राष्ट्रपति और वैज्ञानिक से अधिक एक शिक्षक के रूप में ही अपने अधिक करीब पाया। अब जबकि हम हर क्षेत्र में बहुत तरक्की कर रहे हैं तो पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि इस अहम् रिश्ते में कड़वाहट घुलती जा रही हैं। बच्चे शायद ये समझने लगे है कि हम पैसे के बदौलत शिक्षा हासिल कर रहे है तो इसमें त्याग और समर्पण जैसी कोई बात नहीं।इसमें मात्र बच्चे ही नहीं अभिवावक भी दोषी हैं। बाल्य अवस्था से ही ट्यूशन भी शायद इस रिश्ते में पैसे की अहमियत को बढ़ावा देता है। आज छोटे छोटे बच्चों में ट्यूशन ने इतनी पैठ जमा ली है कि छुटपन से ही उन्हें वैशाखी पकड़कर चलने की आदत पड़ जाती है ।पैसे की बदौलत कुछ भी हासिल करने की इस चाह ने हमारे यहाँ कोचिंग संस्थानों को जबरदस्त हवा दी है। जब आर्थिक स्तर पर टीचरो का मूल्यांकन हो तो उसमें इज़्ज़त और त्याग की बात कहाँ आती है। आज क्लासरूम में किसी टीचर को अश्लील रिमार्क देना या शिक्षक के डाँट का बदला उसे बाद में शारीरिक या सामाजिक तौर पर देना आम बात है।
इस समस्या का दूसरा पक्ष बच्चों की समस्याओ से जुड़ा हैं। हमारे एक परिचित अपने बचपन को याद करते हुए एक शिक्षक के बारे में बताते हैं कि जिस दिन भारत क्रिकेट का मैच हारता था उसके बाद हमारी मार तो पक्की रहती थी लेकिन इसके बावजूद उस शिक्षक की पढाई को कोई छोड़ना नहीं चाहता था और न ही उनके पाठ को कोई भूल सका है। यहाँ ये बात स्पष्ट हो जाती है कि दुधारू गाय की लात भी लोग सहते हैं लेकिन सिर्फ प्रताड़ना सहना कौन चाहता है? हम आए दिन छोटी बच्चियों के साथ उसके शिक्षक के दुष्कर्म करने की घटना अथवा किसी शिक्षक के अपने छात्र के बुरी तरह पिटाई की घटना अखबार में पढ़ते हैं। जिस पटना के कॉलेजो की तुलना ऑक्सफ़ोर्ड जैसी जगह से की जाती थी वहां के तमाम कॉलेजो में पढाई एक मजाक बनकर रह गया है। आए दिन स्ट्राइक और राजनीतिक गतिविधियों के कारण के कारण क्लास होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। हमारे राज्य में प्रोफेसरो को अब केंद्रीय वेतनमान दिए जाते हैं जबकि पढाई तो स्थानीय स्तर से भी कम। इसमें कोई शक नहीं की इसका पीछे राजनीतिक प्रश्रय भी है लेकिन भुगतते तो बच्चे ही है।
मैंने इस विषय पर आत्ममंथन किया लेकिन इसका समाधान के रूप में एक नहीं कई कारण मुझे मिले हैं; राजनीतिक, सामाजिक परिवर्तन और आधुनिकीकरण इसके कारण भी हो सकते हैं। ये बात कितनी चिंतनीय है कि जिस मकान की नींव ही कमजोर हो वो कितनी मजबूत होगी।
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