यौवन कितना भी समृद्ध हो किसी भी व्यक्ति के जीवन का स्वर्णिम युग निस्संदेह उसका बचपन ही होता है। आज जब किसी बच्चे को रिमोट वाली कार या हेलीकाप्टर देखती हूँ तो मुझे कागज़ की बनी बचपन की कागज़ की नाव और हवाई जहाज यादआते हैं। पता नहीं ये सिर्फ मैं ही सोचती हूँ या ये मेरी गलतफहमी है कि पहले के खेल प्रकृति से जुड़े और अब के बच्चों के खेल पैसों से जुड़े होते थे। फिर चाहे पेड़ पर चढ़ कर खेलने वाला कोई खेल हो या हमारे झारखण्ड में खेले जाने वाला लॉलीपॉप जैसा खेल हो जिसमें मात्र थेथर के डंडो और कोई लाल पत्थर खेल हो जाता था। आज चाहे कितनी ही घड़िया खरीद ले, चाहे साल दो साल में गाड़िया बदल ले वो माँ की पुरानी घड़ी नहीं भूलती जिसे हम इम्तहान के समय लगाते थे और न ही और बचपन की वो साइकिल जिसके ख़रीदे जाने की रात मेरा भइया पूरी रात पकड़ कर सोया था। ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंहजी का एक ग़ज़ल "वो कागज की कश्ती" जब भी सुनती हूँ तो अपनी दादी की अनगिनत कहानियां याद आ जाती है। अपने बचपन का एक किस्सा जिसमे हमने गुड़िया की शादी रचाई वो मैं ही नहीं मेरे सभी भाई बहन नहीं भूल सकते।
हम सभी फुफरे और चचेरे भाई बहन आधे बाराती बन गए और आधे सराती ।दिन भर हमने झरिया साहू की दुकान से चीज़े खरीदी। शाम में जब बाराती खाने बैठे तुरंत सराती वालों ने हमारे ददिहाल में पड़ा एक भीमकाय पंखा हिला दिया। बाराती वाले उठ गए। उठ तो गए लेकिन उस दिन हम भाई बहनों का झगड़ा भूले नहीं भूलता। जब बड़ो ने बाराती बने बच्चो से पूछा क़ि तुम लोग क्यों खाने पर से क्यों उठे हमारा जबाब था कि अरे उन्होंने ने पंखा जो हिला दिया। यहाँ गौर करने की बात यह है कि हमारे मिथिला के रिवाज़ के मुताबिक जब बारात में भोजन का अंत हो जाता था तो सराती वाले पंखा हिलाते है। लेकिन उन्होंने तो बैठते ही हिला दिया तो झगड़ा तो होना ही था!
Friday, 21 October 2016
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