आपरूचि भोजन ,पररूप श्रृंगार अर्थात जो खुद को रुचे वो भोजन करें और जो दूसरे को अच्छा लगे वैसा श्रृंगार करें, छुटपन से ही ये कहावत माँ के मुँह से सुनती आई हूँ लेकिन आज कल अपने इर्दगिर्द देखकर यह महसूस होता है कि ये कहावत बिल्कुल उल्टी हो गयी है ,अापरुचि श्रृंगार और पररूप भोजन, जो खुद जंचे वो पहन लो और लोगों को दिखा कर खाओ ।कभी शिवानी जी ने लिखा था कि एक तो विधाता ही सौंदर्य प्रदान करने में दिनों दिन कृपण होता जा रहा है और उसपर भी हम उसके दिए में मीन मेख निकाल कर एक अजीब सज्जा पेश कर रहे हैं ।आज अगर लड़कों की वेश भूषा देखे तो लंबे बालों की चोटी ,कान में टॉप्स, कमर से खिसकती पैंट ,पता नहीं इन लड़कों ने वृहन्नला ( महाभारत में अज्ञातवास के दौरान अर्जुन के द्वारा धरा गया छद्म रूप) का रूप क्यों धारण कर लिया है ।जब मैं अपनी बेटी को लेकर मुम्बई के निफ्ट होस्टल गई तो वहां के लड़के लड़कियों को देखकर दंग रह गई , लड़कों की स्त्री वाली भंगिमा देखकर मन ही मन हंस पड़ी कि न जाने इनके जन्म पर माता पिता ने लड़के को पाने के लिए कितनी मन्नतें मानी होगी ।ऐसा नहीं है कि लड़कों ने ही इस रूप धर लिया है ।लड़कियों को देखिए कपड़े से लेकर बात चीत तक में उनमें एक पुरुषोचित भाव सहज ही नज़र आ जाएगा क्या लड़के या लड़की अपने ही रूप में सार्थक नहीं ,मैं लड़कियों के पहनावे को लेकर विरोध नहीं करती लेकिन हम क्यों किसी भी काम में पुरूषों जैसा बनने की कोशिश करे जबकि वही काम खुद अपने रूप में कर सकते हैं ।आखिर बेलन से स्टेरिंग तक का लम्बा सफर हमने खुद अपने रूप में ही तय किया है। ये तो बात है युवा पीढ़ी की ।ये पीढ़ी तो हमेशा से ही परिवर्तन के पक्ष में रहती है ।मुझे तो आश्चर्य लगता है हमारी पीढ़ी के लोगों पर जो अपनी वेश भूषा से किसी षोडशी से टक्कर लेने को तैयार है ।फैशन में चूर ये लोग अपने वयस और शारीरिक बनावट को नकारते हुए भूल जाते हैं कि किसी भी फैशन का असली मतलब उस व्यक्तिविशेष के शारीरिक दोष को लोगों की नज़र से छिपाना है न कि उजागार करना।
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