Saturday, 26 October 2024

      यह किताब मेरी एक स्नेही सहेली को लेखक ने  उपहार स्वरूप दिया गया था जिसे उन्होंने मुझसे पढ़ने के लिए साझा किया।लेकिन कुछ निजी व्यस्तताओं के कारण मैं इसे पढ़ नहीं पा रही थी।  
      अगर ईमानदारी से कहूं तो जब इसे पढ़ने से पहले मैंने लेखक के विषय में जानने की कोशिश की तो पाया कि श्री महेश बजाज जी  रिटायर होने से पूर्व एक राष्ट्रीयकृत बैंक के उच्च पद पर  वर्षों तक आसीन रहे । ऐसा जानने के बाद मेरी इस मामले में जो धारणा बनी वो कुछ ऐसी थी कि कहां वो बैंक की शुष्क नौकरी और कहां ये साहित्य । बाद में मैंने उनके छद्म नाम "अंजुम लखनवी" जिनसे उन्होंने शायर के रूप में  काफी ख्याति पाई है और उन्हें मिले सम्मानों को भी जाना तो मेरी धारणा बिल्कुल ही बदल गई।
"परछाइयां " श्री महेश बजाज जी लघु कथाओं और निजी संस्मरणों का संग्रह है। संग्रह का पहले भाग की शुरुआत गुंटूर गूं जैसी भावना प्रधान कहानी से होती है कुल तीन कबूतरों की कहानी और प्रथम पुरुष के रूप में लिखी गई ये कहानी मर्मस्पर्शी है वैसे तो ये कहानी कबूतरों के बारे में है लेकिन ऐसा अनुभव हमारे निजी जीवन में भी कई बार होता है।
इसके बाद की कुछ कहानियां एकतरफा प्यार और विवाहोत्तर संबंधों पर लिखी गई है। 
माता पिता के प्रति संतानों की उदासीनता को प्रिंटर का रिबन, डुप्लेक्स और फातिहा में बहुत ही कम शब्दों में बहुत अच्छे से उकेरा गया है।भले ही ये विषय काफी पुराना या समाज के हर वर्ग के लिए जाना हुआ  है लेकिन यहां लेखक ने इसे इतने अनूठे तौर पर शब्दों में बांधा है कि  इन कहानियों को पढ़ते हुए कहीं कहीं आपकी आँखें भर उठेंगी। कई कहानियां मात्र एक या दो पन्नों तक ही सीमित है लेकिन ये आपके मन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में सक्षम हैं। लेखक अपनी नौकरी के क्रम में अनेक स्थानों पर रहे हैं तो उन्होंने उन शहरों की इतनी अच्छी व्याख्या की है कि मेरी तरह आप भी  निश्चय ही उन शहरों के विषय में उत्सुक हो जाएंगे। मसलन भोपाल के विषय में उनका मंतव्य: खूबसूरत पार्कों और झीलों का शहर भोपाल ।इस शहर ने उर्दू की विरासत अब तक संभाली हुई हैऔर कई शायर दिए हैं। वहीं वो लखनऊ के बारे में लिखते हैं कि लखनऊ एक ऐसी जगह है,जहां के लोग चिकन का इस्तेमाल  खाने और पहनने दोनों में ही करते हैं।  उर्दू सुनना और हिन्दी के वाक्य में उर्दू भाषा के मिले हुए शब्द मुझे काफी पसंद हैं तो कुछ कहानियों में लेखक की ये शैली मुझे अच्छी लगी । उनकी कहानियों से ये ज़ाहिर होता है कि श्री बजाज उर्दू से बहुत अच्छे से वाक़िफ हैं।
किताब के दूसरे हिस्से में श्री बजाज ने अपने संस्मरण लिखे हैं जो वास्तविकता से काफी करीब हैं। खान साहब का सजीव चित्रण आपको उनके बेहद करीब ले जाती हैं।
पुणे में माधुरी से बैंक में कार्यवश मिलना और काफ़ी दिनों तक एक अच्छे दोस्त बनकर रहना निश्चय ही लेखक के लिए भविष्य में काफी सुखदायक होता अगर माधुरी की असमय मृत्यु न हुई होती जिसकी जानकारी श्री बजाज ने एक अंतराल के बाद पाई। अपने मित्रों के ऐसे विछोह से हम टूट जाते हैं जिसे श्री बजाज ने बखूबी बताया है।
इस किताब को बढ़ते हुए जब इसमें दरभंगा का जिक्र आता है तो गृहनगर होने की वजह से मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कुराहट आ जाती है वैसे मैं श्री बजाज को विश्वास दिलाना चाहूंगी कि आज दरभंगा में बिजली की स्थिति में सुधार गई है और अब  लोगों को इसके लिए सफ्ताह के अंत में पटना जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन इस संदर्भ किए गए पटना के  शीशमहल का किस्सा मैंने भी पुराने पटनावासियों से सुना है।
 इस श्रृंखला में लिखे गए अन्य अनुभव लघु कथाओं के मुकाबले बेहतर कहे जा सकते हैं और अगर लेखक जीवन  अपने संस्मरणों को एक पुस्तक का रूप दिया जाए तो यह एक दिलचस्प किताब होगी ऐसी मेरी निजी सलाह है।

Friday, 9 August 2024

पिछले काफी दिनों से वोल्गा से गंगा को पढ़ रही हूं। अगर ईमानदारी से कहूं तो इस बीच मैंने  दूसरी दो किताबें और पढ़ डाली और अब तक पूरी नहीं पढ़ पाई,कारण है इसकी गूढ़ता और दार्शनिक भाव ।
    मानव के अस्तित्व आने से लेकर आधुनिक इतिहास तक  स्वर्गीय राहुल सांस्कृतायन की ये रचना निश्चय ही इतिहास और साहित्य के लिए अनुपम सौगात है।
नदियों के किनारे बसने वाली सभ्यता किस तरह पहले मातृसत्तात्मक रूप से शुरू हुई और धीरे धीरे स्त्रियों के पतन की ओर उन्मुख होती गई ।
   जब तक मनुष्य के मन में संग्रह करने की प्रवृति नहीं विकसित हुई थी वह लगातार भटकता रहता था।धीरे धीरे अनाज फिर तांबा, लोहा और बाद में सोना आदि को मानव आविष्कृत करता गया और लालची होता गया ।
राजा के दैवी सिद्धांत के कारण दास और दासियां जानवरों की तरह बेचे जाते थे। आज भले ही हम सनातन धर्म और हिंदू धर्म की दुहाई दे लेकिन ब्राह्मणों तक में सुरा और गोमांस खाने की परंपरा थी ।इस्लाम धर्म की उत्पति और काफी नवीन होने पर भी पूरे विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ जबकि बौद्ध धर्म जनमानस के लिए आसान था ।हिंदू धर्म की जटिलता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि किसी भी चांडाल के लिए नगर में प्रवेश करना निषिद्ध था और अतियआवश्वक स्थिति में वे नगर में एक डंडे और एक बर्तन के साथ प्रवेश करते थे।दूर से डंडे पीटते और अपने थूक को उस बर्तन में फेंकते उनकी स्थिति कुत्ते से भी बदतर थी ।
हिंदू धर्म के कुछ अच्छे सिद्धांत भी थे , कम उम्र में होने वाली विधवाओं को एक साल से अंदर द्वि वर अर्थात देवर से ब्याह दिया जाता था । धीरे धीरे इस प्रथा का निषेध हो गया और इसके जगह सती प्रथा जैसी कुरीतियां जन्म लेने लगी ।
इसी प्रकार की रोचक बातें और ऐतिहासिक जानकारियों से संबंधित ये पुस्तक आपको तभी दिलचस्प लग सकती है जब आप इन बातों में रुचि रखते हो । हल्के फुल्के किताबों के शौकीन पाठकगण इस किताब का आनंद नहीं ले सकते हैं ये मेरी निजी सलाह है।

Thursday, 18 July 2024

     विगत कुछ दिनों से पूरा सोशल मीडिया अनंत अंबानी और राधिका मर्चेंट के सगाई, प्री वेडिंग और विवाह की खबरों से पटा हुआ है। विवाह का भव्य आयोजन,शामिल होने वाले बॉलीवुड सितारे और तमाम बड़ी हस्तियां लोगों को एक फैंटेसी की दुनिया में ले जाती है। 
      लेकिन इन सबके साथ साथ जितनी फोटोज या खबरें अंबानी परिवार के लोगों के कपड़ों,गहनों की बन रही है उससे कहीं अधिक मजाक अनंत अंबानी के मोटापे का बनाया जा रहा है।कोई उसे हाथी कह रहा है जबकि कोई उसे बच्चों के कार्टून सीरीज का ओस्वर्ड।तरह तरह के मीम बनाए जा रहे हैं ये सब तब किया जा रहा है जबकि पहले ही फंक्शन में अनंत अंबानी ने अपनी बीमारी और उससे होने वाली तकलीफों का खुलासा कर दिया था।
अंबानी परिवार जनमानस से ही नहीं बल्कि दर्शकों की नजर में भगवान की तरह पूजे जाने वाले नायक नायिकाओं से भी बहुत ऊपर की शख्सियत हैं उन्हें इस तरह के रिल्स या मीमस से कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन इस प्रकार की हरकतें करना व्यक्ति विशेष की दूषित मानसिकता को प्रदर्शित करता है । 
किसी भी बच्चे की तकलीफ उसके माता पिता के लिए कितनी कष्टप्रद  होती है यह कहने की बात नहीं है फिर चाहे वो कितना ही दौलतमंद क्यों न हो।
   यहां बात सिर्फ अनंत अंबानी की नहीं है इस तरह से लोगों की हंसी उड़ना हमारे समाज के लिए नई बात नहीं है।
       कभी कहीं पढ़ा था कि बीमारी या मौत न दौलत देखती है न जाति, यही एक सच है जिससे ईश्वर ने इंसान को औकात दिखा दिया है वरना  अमीर कहते कि फलां गरीब था इसलिए बीमार हो गया या फलां गरीब था इसलिए मर गया 🥲🥲

Tuesday, 9 July 2024

पुस्तक समीक्षा ##16##
पुस्तक का नाम ## एक टीचर 
की डायरी 
लेखिका ##श्रीमती भावना शेखर #
पब्लिकेशन  #प्रभात पेपरबैक्स ##
नए लेखकों को पढ़ने का मेरा अब तक का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है। मैंने अधिकांश नए लेखकों में स्थापित लेखकों के नकल करने की प्रवृति देखी है।
          इसके विपरित कल जब मैंने श्रीमती भावना शेखर जी की किताब "एक टीचर की डायरी" को पढ़ना शुरू किया तो यकीन मानिए ऐसा लगा कि मैं फिर से अपनी बेटियों के स्कूली समय में पहुंच गई हूं ।
ये एक सुखद संयोग है कि श्रीमती भावना शेखर ने राजधानी पटना के उसी नोट्रेडम स्कूल में छब्बीस सालों तक अध्यापन का कार्य किया है जिसमें मेरी दोनों बेटियां पढ़ती थी और बड़ी बेटी ने छठी और सातवीं कक्षा में उनसे शिक्षा भी पाई है। 
पुस्तक की पहले ही पन्ने पर लेखिका ने ईमानदारी से स्वीकारा है कि इस स्कूल की नौकरी उन्होंने बेटी के एडमिशन के जद्दोजहद के क्रम में शुरू किया लेकिन बाद के अध्यापन के लंबे समय में इस कार्य को इतनी शिद्दत से किया कि अपनी छात्राओं के लिए प्रेरणा स्रोत भी  बनी रही ।
इस पतली सी किताब में लिखी हुई बातें आपको आपके बच्चों के जीवन उस हिस्से में पहुंचा देंगी जिसमें न जाने वे कितने ही समस्याओं से जूझते रहते हैं। घरों में होने वाले यौन शोषण से लेकर, माता पिता के बीच होने वाले ऐसे झगड़े, जिसमें पिता का ही अन्यत्र अफेयर हो जैसी कई अन्य परेशानियां जो  किशोरवय बच्चे किसी से साझा नहीं कर पाते ऐसे समय में एक मां की तरह टीचर का होना उनके लिए वरदान के समान है ।वैसे भी अपनी बेटियों के स्कूली जीवनकाल में छात्राओं और शिक्षिकाओं के बीच की  आत्मीयता को मैंने महसूस किया है।
         पुस्तक में लिखी गई कुछ बातें यथा कभी कभी बच्चे तनाव में आकर परीक्षा में नकल करने लगते हैं उनकी इस गलती को माफ कर उन्हें मौका देना , बच्चे के आर्थिक रूप से कमजोर होने पर उनकी मदद के लिए सोचना , बुजुर्गों का भावना में बह कर बच्चियों का विचित्र नामकरण करने पर उनका  सामूहिक 
मजाक का शिकार होने से बचाना ,अभिभावकों के द्वारा किया गया दुर्व्यवहार जैसी घटनाएं आपको वास्तविकता से रूबरू कराती है।
पुस्तक के दूसरे हिस्से में लेखिका ने अपने विद्यार्थी जीवन के संस्मरण लिखे हैं जो काफी रोचक हैं।
   एक ऐसा स्कूल जहां बहुधा महानगरों और विदेशों तक से बच्चियां पिता के ट्रांसफर के बाद पढ़ने को आती हैं, जहां राजधानी के उच्च पदासीन कर्मचारियों और टॉप बिजनेस फैमिली की बेटियां पढ़ती हैं , वहां आपकी बच्चियों के गलत दिशा में बढ़ने की संभावना कई गुना बढ़ जाती हैं और फिर यह भी जरूरी नहीं कि हर बच्ची को नोट्रेडम जैसा स्कूल या  श्रीमती शेखर जैसी टीचर का संरक्षण मिल जाए ।
     कुल मिला कर मैं उन माताओं से इस पुस्तक को पढ़ने का आग्रह करती हूं जो अपने बच्चों को किसी प्रतिष्ठित स्कूल में डाल कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझती हैं और कभी कभी छोटी सी गलती माता पिता की  नासमझी के कारण घातक साबित होती है।




Monday, 3 June 2024

कभी 80 के दशक में किसी प्रसिद्ध गीतकार ने एक इंटरव्यू में बताया कि हमारे कुछ सीनियर्स ने 60 से लेकर 70 तक के गीतों को हिंदी फिल्मों का स्वर्णिम युग कहा ।फिर जब हम 90 के दशक में पहुंचे तो 80 के गीतों को कर्णप्रिय और फिल्मों को बेमिसाल माना गया और फिर उस दौर के बीतने के बाद उसे अच्छा कहा गया ।ये  सिलसिला अब तक चलता जा रहा है अर्थात हम हमेशा अपने बीते हुए समय के फिल्मों और गीतों  को ही अच्छा मान रहे हैं। 
यहां बात सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है जीवन के हर क्षेत्र में ही लोग ऐसा करते और कहते आए हैं।कहने का अर्थ  हमेशा बीते हुए दिनों को याद अफसोस करना एक आदत सी बनती जा रही है। अगर थोड़ी देर के लिए हिंदी  फिल्मों या गीतों की ही बात हो तो क्या पहले की सारी की सारी  फिल्में अच्छी थी ? क्या आज भी कई गीत कर्णप्रिय नहीं होते ! निश्चय ही उस समय भी कुछ घटिया फिल्में बना करती थी और आज भी अच्छी फिल्में आती है।
यहां अगर अपनी बात करूं तो मैं भी इस भावना से अछूती नहीं हूं जब मेरे बच्चे छोटे थे तो मैं सोचती थी कि जब ये बड़ी हो जाएंगी तो सब ठीक हो जाएगा, धीरे धीरे बेटियां पहले पढ़ाई और बाद में नौकरी के लिए कई सालों से बाहर है तो हर वक्त उनकी चिंता रहती है तो अब लगता है कि पहले ही सही था, बच्चे कम से कम पास तो थे।
अक्सर fb या सोशल मीडिया पर पहले के घरों , गांवों और पारिवारिक एकता जैसी बातों की दुहाई दी जाती हैं।पहले के मुकाबले स्कूल कॉलेजों आदि में शिक्षा के गिरते स्तर पर विवेचना की जाती है लेकिन यहां मेरा कहना है कि क्या हमने हर क्षेत्र में उन्नति नहीं किया है ! क्या दूसरे सामाजिक आडंबरों पर खर्च करने की जगह आज माता पिता अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना सही नहीं समझते !  चाहे वो लड़की क्यों न हो ! आज पहले की तुलना में औरतों की स्थिति में जो सुधार आया है कुछ साल पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कितनी ही बीमारियों पर आज  नियन्त्रण पा लिया गया है। यहां संयुक्त परिवार का टूटना समय की मांग है जिसे हम नकार नहीं सकते।  हमारी पिछली पीढ़ियों की  कई गलतियों को हम भी झेल रहे हैं ।मसलन हमारी विशाल जनसंख्या हमसे दो ऊपर  पीढ़ी की देन है ।
    तो जहां तक मैं सोचती हूं कि जो वर्तमान है वही सबसे अच्छा है ।
"हर घड़ी  बदल रही है रूप जिंदगी,
छांव है कभी ,कभी है 
धूप जिंदगी ,
हर पल यहां जी भर जियो 
जो है समां कल हो ना हो।"

Friday, 24 May 2024

कल वसु ने उपहार के तौर पर एक किताब भेजी । काफी समय  के बाद ये किताब किसी प्राइवेट कोरियर से न आकर  भारतीय डाक के speed post के जरिए मेरे पास आई थी .इस घटना ने लगभग पैंतीस चालीस साल पुरानी "हिन्द पैकेट बुक" के बेहतरीन उपन्यास और उसकी "घरेलू लाइब्रेरी योजना "की याद दिला दी।
          आज भले ही मेरी मां किताब के दो चार  पन्ने पढ़ने में ही  थक जाती है लेकिन किसी जमाने में इन्हीं किताबों और मैग्जीनस में मां की जान बसती थी।  घर में धर्मयुग , सारिका और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं  मासिक तौर पर ली जाती थी। साथ ही  बहुत से उपन्यास पापा अपने कॉलेज की लाइब्रेरी से मां के पढ़ने के लिए लाते थे और कई उपन्यास धारावाहिक श्रृंखला के रूप में धर्मयुग आदि में छपते थे और किस्त पूरी  होने पर सूई धागे से सिलकर किताब का रूप दिया जाता । 
 इन्हीं दिनों मां ने शायद अपने जैसी ही किसी पुस्तक प्रेमी की सलाह पर घरेलू लाइब्रेरी योजना से किताब वी पी के द्वारा मांगना शुरू किया।ये एक ऐसी मासिक योजना थी जिसके तहत चुनिंदा लेखकों की किताबें अच्छे डिस्काउंट के साथ लोगों को घर पर मुहैया कराई जाती थी।भले ही फ्लिपकार्ट या अमेजन जैसे सहायकों से किताबों का खरीदना बहुत ही आसान है लेकिन उस समय इस योजना से किताब मांगना इतना भी आसान नहीं था।पहले कंपनी के द्वारा एक पोस्टकार्ड या टिकट लगा लिफाफा दिया जाता था,साथ ही किताबों की बाकायदा लिस्ट भेजी जाती थी जिसका चयन कर किताबें खरीदने वाला  पोस्टकार्ड भेज देता  था और फिर पंद्रह बीस दिनों का लंबा  इंतजार किया जाता था । फिर पोस्टमैन किताबों की वी पी लाता जिसेआज की  C O D की तर्ज पर पैसे देकर छुड़ा लिया जाता था।  घर बंद होने की स्थिति में डाकिया मात्र कार्ड डाल कर अपनी उपस्थिति दर्ज कर जाता था । पुस्तकों को सात दिनों के अंदर निकट के पोस्ट ऑफिस में सुरक्षित रखा जाता था जिसे वहां से पैसे देकर लाया जा सकता था। किताबों के पोस्ट ऑफिस से नहीं लेने पर कंपनी को दोहरा डाक खर्च वहन करना पड़ता था जिसके बाद आपको  कंपनी के द्वारा उपालंभ से भरी चिट्ठी भेजी जाती थी और आपको इस योजना के लिए "ब्लैक लिस्टेड"कर दिया जाता था,ठीक उसी तरह अगर आप किसी नए ग्राहक को अपने द्वारा जोड़ते हैं तो आपको इनाम में अपनी पसंद की किताबें भी दी जाई जाती थी। ये सिलसिला काफी वर्षों तक चला । बाद के वर्षो में किताबों की डिलीवरी में कुछ शिकायतें आने लगी और लोगों के द्वारा चुने गए किताबों की जगह नए लेखकों की  किताबें आने लगी जो पाठकों को नागवार लगने लगी।
      यहां एक  राज़ की बात ये है इसी घरेलू लाइब्रेरी योजना के कारण घर में अच्छी किताबें आती रही और पहले चोरी छिपे और बाद में मुझे भी मां के साथ साथ उपन्यास पढ़ने की आदत लग गई जो आज मेरे अच्छे बुरे समय में मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं है।


Sunday, 3 March 2024

गत 20Feb को मशहूर रेडियो उद्घोषक अमीन सयानी जी का देहांत हो गया। संभवत उस जमाने का शायद ही कोई उनकी जादुई आवाज से अपरिचित होगा । उनके संबंध में   "The Times of India" ने बड़ी दिलचस्प बात लिखी कि भारतीय होने और अपने सगे भाई के AIR में पहले से कार्यरत होने के बाद भी इतनी जादुई और मखमली आवाज के बाद भी क्या कारण था कि उन्होंने अपना कैरियर AIR के बजाय लंका (रेडियो सिलोन) से शुरू किया तो इसका कारण यह था कि उस समय ऑल इण्डिया रेडियो की नीति थी कि इसमें मात्र परंपरागत कलाकारों और वाद्य यंत्रों को प्रमोट करने के नाम पर उन्हें ही प्रवेश दिया जाता था और तो और इस कसौटी पर हारमोनियम भी विदेशी होने के कारण खरा नहीं उतरता था तो हिंदी फिल्मी गाने तो दूर की बात थी । ऐसे में अमीन सयानीजी ने अपने कैरियर की शुरुवात रेडियो सिलोन से की जो कि हिंदी फिल्म के गानों से जुड़ा कार्यक्रम था और चंद ही वर्षों में काफी प्रसिद्ध हो गया. बाद के वर्षो में AIR ने भी अपनी नीतियों में बदलाव के साथ 1957 में विविध भारती की स्थापना हुई जिससे हिंदी फिल्मी गानों की ऑल इण्डिया रेडियो पर प्रवेश मिला । बाद में भारतीय जनता की नब्ज को पकड़ते हुए इस कार्यक्रम को फौजी भाइयों के लिए समर्पित किया गया। इन सभी बातों का सार यह है कि आम जीवन हो या टेक्नोलॉजी में परिवर्तन की गुंजाइश हमेशा ही बनी रहती है बशर्ते उसका दुरुपयोग न किया जाए। कंप्यूटर के आने से पहले एक भ्रांति यह थी इससे बेरोजगारी बढ़ जाएंगी लेकिन आज इसके बिना जिंदगी नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर मालूम होती है। विवाह हो या अंतिम संस्कार उनमें होने वाले कई रिवाज मात्र इसलिए निभाया जा रहा हैं क्योंकि ये पुरानी हैं और हमेशा से होती आई हैं। गाहे बिगाहे हम या हमसे ऊपर की आज की पीढ़ी से अपनी तुलना करते हैं लेकिन होने वाले परिवर्तन को स्वीकारना हमारे लिए कई मायनों में जरूरी है।
 अपनी पुस्तक पथ का दावा में  शरद चंद कहते हैं कि कोई भी पुरानी चीज  सिर्फ इसलिए सही नहीं हो सकती क्योंकि वो पुरानी हैं जिस तरह सत्तर साल का बूढ़ा कभी भी दस साल के बच्चे से पवित्र नहीं हो सकता है। 
तो किसी भी नई चीज या विचार को नकारने से पहले उसके गुण  दोषों पर विचार करना श्रेयस्कर है क्योंकि यूं भी पुरानी शराब अच्छी होने के बाद भी उसके बॉटल और कलेवर को नया रूप दिया जाता है।
श्री तेजकर झा द्वारा लिखित पुस्तक "Darbhanga Chronicles" पिछले कुछ दिनों से मैं पढ़ रही थी। किताबों की श्रृंखला में कुछ पुस्तकें ऐसी होती हैं जिन्हें आप अच्छी तरह से समझ ही पढ़ते हैं और इस तरह की पुस्तकें आपके लिए यादगार साबित होती हैं , श्री झा की इस किताब को मैं इसी श्रेणी में रखना चाहूंगी।
यह पुस्तक दरभंगा राज के संबंध में लिखी गई है । श्री झा ने इसे छह भागों में बांटते हुए इसके सभी पहलुओं पर फोकस किया है।
पहले भाग  इतिहास में राज दरभंगा के शासकों के उत्पति और  राज विस्तार के बारे  विस्तृत रूप से बताया गया है। खड़वा,जबलपुर और मंडला से संबंधित  इसके आदिपुरुष महामहोपाध्याय गंगाधर झा से संकर्षण ठाकुर से होते हुए महेश ठाकुर ने दरभंगी खान को परास्त कर इस राज की स्थापना हुई। जिस पर कुल अठारह राजाओं ने शासन किया ।
दूसरे भाग में गेराल्ड डेनबी जिनका नाम , मिथिलावासी डेनबी रोड के रूप में बचपन से सुनते आए हैं, के बारे में जानना काफी रोचक है ।एक ऐसा ब्रिटिश जो हमेशा के लिए अपने पूरे परिवार के साथ लंदन जाने को जहाज पर चढ़ चुका था महाराज के एक आग्रह पर लंदन यात्रा को अंतिम क्षणों में स्थागित कर दी और पूरी शिद्दत से महाराज की मित्रता और राज की ओर से मिले पद को  ईमानदारी से निभाया ।यह उसी की दूरदर्शिता का परिणाम था कि राज के हर क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई ।लेकिन जब राज के खर्च को कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी की बारी आई तो महाराज के विरोध के बावजूद  उसने अपने पद का त्याग किया। कम शब्दों में उसने अपनी वेदना पत्र में महाराज को लिख भेजा कि यहां के लोगों ने मेरे ब्रिटिश होने के कारण कभी मुझे वफादार नहीं माना और ब्रिटेन के लोगों ने एक देशी राजा की नौकरी के कारण मेरी इज्जत नहीं की लेकिन मैंने हमेशा ही आपसे( महाराज) से अपनी मित्रता ही निभाई।
तीसरे भाग पॉलिटिक्स में लेखक ने तत्कालीन कांग्रेस और दरभंगा राज के संबंधों के बारे में प्रकाश डाला है । इस विषय में स्वतंत्रता से पूर्व और उसके बाद की राजनीति काफी रोचक है।
गांधी जी की south Africa की यात्रा और उसके संबंध में महाराज से किया गया पत्राचार इस किताब में तारीख के साथ दर्ज किया गया है। 1934 के विनाशकारी भूकंप के बाद गांधीजी ने उस समय रामबाग के कैंप में रह रही बड़ी महारानी से सवाल किया कि वे संभवत महारानी होने के कारण आराम ही करती होगी ? महारानी ने विनम्रता से जवाब दिया कि मिथिला की स्त्रियां बचपन से ही चरखा चलाने में सिद्धहस्त होती हैं।
Democracy वाले भाग को पढ़ने से उस समय जमींदारी उन्मूलन अभियान के साथ ही उस वक्त की कई बिंदुओं पर ध्यान दिया गया है।
इस पुस्तक का अंतिम और सबसे दिलचस्प भाग है दरबार डायरी  जो कि महाराज की दो डायरियों पर आधारित है। इसमें महाराज की व्यक्तिगत बातों के साथ दिन प्रति दिन घट रही समस्याओं का बहुत ही अच्छा वर्णन है। इसे पढ़ते हुए आप किसी शीर्षस्थ व्यक्ति की तनावपूर्ण जीवन को भलीभांति अनुभव कर सकते हैं।         इस किताब को पढ़ने की सिफारिश मैं सिर्फ इसलिए नहीं करती हूं कि ये अमुक व्यक्ति या अमुक स्थान विशेष पर लिखी गई है बल्कि हमारे लिए यह एक लज्जास्पद बात है कि हम अपने ही राज्य के किसी भी राजवंश के इतिहास से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं।इसी पुस्तक के अनुसार स्वतंत्रता के समय बिहार में लगभग पचास हजार छोटी बड़ी रियासतें थी जिनमें छह प्रमुख थी लेकिन हम सभी के लिए अफसोस की बात है कि किसी भी राजवंश के बारे में सुनी सुनाई और अधकचरे ज्ञान के अलावा हम कुछ भी नहीं जानते हैं।