Friday, 7 July 2017

कुछ समय पूर्व मैंने एक पोस्ट पढ़ा था कि नानी का घर तिलिस्म की तरह होता है शायद ही कोई ऐसा होगा कि जिसके चेहरे पर ननिहाल की स्मृति मुस्कान न ले आए ।ऐसी ही कुछ यादें हमारे ननिहाल से जुड़ी हैं ।मैं अपने आप को इस मामले में बहुत खुश किस्मत मानती हूँ कि मेरे माता पिता दोनों ही वैभव पूर्ण परिवार से संबंध रखते हैं ।फर्क सिर्फ इतना था कि जहाँ मेरा पितृकुल बौद्धिक रूप से अति समृद्ध था वहीं मेरी माँ  आर्थिक रूप से अति समृद्ध परिवार से थी ।मेरे नानाजी एक बड़े जमींदार थे जिनकी सम्पन्नता दूर दूर तक फैली हुई थी ।जहां तक बात छुट्टियों में ननिहाल जाने की है वो मेरे पापा को बिल्कुल ही पसंद नहीं थी ।जहाँ हमारा घर या ददिहाल अत्यंत अनुशासन प्रिय था ,हर काम नियम से बंधे हुए , सवेरे उठना ,हाथ मुँह धोकर पढ़ाई करना समय से नहाना ,हर वो चीज़ जो खाने की उसमें ना नुकुर की कोई गुंजाइश नहीं इसके विपरीत हम जब भी किसी शादी विवाह या किसी खास मौके पर कटिहार ( हमारा ननिहाल) जाते तो वहाँ के स्वछंद जीवन को खुलकर जीते ।एक बहुत बड़ी हवेली, जिसे वहाँ ड्योड़ी कहा जाता ।ड्योढ़ी के ठीक सामने बड़ी सी फुलवारी और उसके बाद एक बड़ा सा तालाब ।घर के पीछे एक बहुत बड़ा बगीचा जिसमें विभिन्न प्रकार के  फलों के पेड़ और जहाँ तक मुझे याद है ,मौसम के साग सब्जी होते थे ।जब पिछली गर्मी में नैनीताल गई तो रोड पर फालसा नाम से बिकते फल मुझे अपने ननिहाल के बाग़ के होरसा और होरफा फल की याद दे गई जिसे हमने कितनी ही दोपहर की चिलचिलाती गर्मी में मौसेरे और ममेरे भाई बहनों के साथ तोड़ा था ।हमारे ननिहाल में बहुत सी ऐसी वस्तुएं थीं जिसे हमने मात्र वहीं देखा ।एक बड़ा सा पलंग जिसके चारों ओर लकड़ी के रेलिंग लगे थे जिसे सोने के समय कब्जे की मदद से खड़ा कर दिया जाता ताकि बच्चे न गिरे ये पलंग मेरी नानी के कमरे के बगल वाले कमरे में था ।इस पलंग की  चौड़ाई और लंबाई कितनी थी ये तो नहीं मालूम लेकिन इसपर  छुट्टियों में जमा होने वाले सभी बच्चों को आराम से सुला लेने की अद्भुत क्षमता थीं ।वहां के हर एक पलंग के पंखे मच्छर दानी के अंदर ही होते थे एक बड़े डंडे की मदद से पूरी मच्छर दानी को उठाया और गिराया जाता था ।हाल के दिनों में मैंने एक पुराने बंगला पिक्चर में ऐसे ही पंखे को देखा ।वहाँ की एक अद्भुत चीज़ों में मुझे एक बहुत बड़ा मार्बल का डाईंनीग टेबल टॉप था हालांकि मैंने कभी उसपर कभी किसी को खाते नहीं देखा ।वैसे जिन दिनों को मैं याद कर रही हूं उस समय वहां मौजूद गाड़ी ,फोन और फ्रिज जैसी वस्तुओं का चलन जनसाधारण के पहुंच से दूर होती थी ।पता नहीं  वो फ्रिज की पहली छवि ,वो फ्रिज के दरवाजे से निकलने वाला ठंडा धुँआ ,दशकों बाद मेरे लिए रोमांचक है। वैसे मैंने अपनी माँ के मुँह से वहां बिजली के आने से पहले किरोसिन पर चलने वाले फ्रिज की भी चर्चा सुनी है । कटिहार एक छोटी जगह है ,तो वहां के बाज़ार और सिनेमा हॉल भी नज़दीक ही थे ।जब हम छुट्टियों में वहाँ जाते तो सभी बच्चे गाड़ी में भर कर सिनेमा जाते इस क्रम में जो कोई बच्चा सो रहा होता उसे मौसी या बड़ी दीदी किसी तरह उठा कर गाड़ी में चढ़ा देती ।आज जब किसी बच्चे को गाड़ी में कम जगह की बात पर नाक भौं चढ़ाते देखती हूँ तो अपना बचपन याद आता है क्योंकि हमारे समय के बच्चों के लिए  किसी भी  तरह गाड़ी में चढ़ना ही  काफी था ।जिस सिनेमा को हम बच्चे दिन में देखते उसी को एकाध को छोड़कर सारे बड़े रात में देखने जाते और उनके जाते ही शुरू होता ,ममेरे भाइयों के भूतों वाली किस्सों का दौर ,उन दिनों 20 पैसे वाले ताम्बे के सिक्के के द्वारा आत्माओं को बुलाने का खेल बड़ा लोकप्रिय था ।उसके बाद तो किसी की हिम्मत नहीं बाथरूम तक को जाए ।बड़े बड़े हिलते हुए  नारियल के पेड़ से लेकर बड़े से कई कमरे वाले बाथरूम तक भूतिया लगता ।मामा के घर से कुछ दूरी पर काली मंदिर है जिस पर मामा लोगों का स्वामित्व है,रोज़ उस मंदिर के पुजारी लड्डू ,बताशा और पेड़ा का प्रसाद लाते ।शनिवार और मंगलवार को बलिप्रदान वाले मांस के साथ ढेर सारी मिठाइयां  डयोड़ी पहुँचाई जाती जितने भी हम कटिहार में रहते मांस मछली और मिठाईयो की निरंतरता से ऊब जाते ।पर्व की बात की जाए तो काली पूजा अर्थात दीवाली वहां का वार्षिक पर्व ,पूरी रात काली मंदिर में भव्य पूजा होती  वैसे दुर्भाग्य से हमने कभी इस पूजा को नहीं देखा ।एक और बचपन की मधुर याद ,काली मंदिर के प्रांगण में शनिवार औऱ मंगलवार को मेला लगता जिसमें सुंदर सुंदर मिट्टी की मूर्तियां बिक्री होती ।कितनी ही बार हम उन सुंदर मूर्तियों को अपनी जोड़े हुए पैसों से खरीदते और रांची पहुंच कर मूर्तियों के भग्न रूप को देखकर खूब रोते ।आज जब उन पुरानी यादों को याद करती हूँ तो मुझे ऐसा लग रहा है कि इन यादों में मैं अकेली नहीं मेरे साथ मेरी मौसियां, दोनों मामा और सभी ममेरे ,मौसेरे भाई बहन हैं ।याद आता है एक विशाल ड्योरी ,बड़े बड़े भूकते एलसिशयन  कुत्ते ,पेंडुलम वाली टनटनाती घड़ियां ,पुराने ढंग के फर्नीचर ,पुरानी लेकिन कभी जंग नहीं लगने वाले ग्रील,अनिंद्य सुंदरी दोनों मामियां और बहुत कुछ ।अचानक मुझे रेलवे की सीटी की आवाज़ आती है तो याद आता है कि बहुत समय पहले नानाजी की बहुत सी जमीन रेलवे के द्वारा ले ली गई थीं इसलिए ठीक ड्योरी के पीछे रेल लाईन है  ।जिससे रेल गुजरने पर ऊपर की मंजिल की खिड़कियों से उसे देखना हमारे प्रिय खेल में था ...........

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