जब सुबह उठकर बालकनी में जाती हूँ तो रोज़ ही ये दो तीन दृश्य मुझे काफी आकर्षित करते है ।एक तो बालकनी में टंगे प्लास्टिक की टोकरी में से चावलों के दानों को चुगने के लिए गौरैयों का बार बार आने जाने का कभी न टूटने वाला क्रम जो मुझे बार बार अपने बचपन की गर्मियों के दोपहर की याद दिला देता है जब पूरी दोपहर गौरैये की ताका झाँकी के बीच गुजरती और उन नन्ही जान के बचाव के लिए न जाने कितनी ही बार माँ झुंझला कर पंखे को बंद करती थी । उसी बालकनी से जब छोटे छोटे बच्चों को टेम्पो और वैन में जानवरों की तरह भर कर जाते देखती हूँ तो उन बच्चों के लिए एक अजीब सी भावना आती है ।जब घर के आगे से चंद स्कूल बस ,कई टेम्पो और वैन की आवाज़ सुबह सवेरे आने लगती है तो लगता है कि शहर जाग गया ।बहुत छोटे बच्चो को बॉक्स वाले रिक्शावाले के साथ बक झक करते देखना और कई बार उन्हीं नौनिहालों को गर्मी के दिनों में अपने बैग पर सर रखकर सोते हुए देखना मुझे अपने स्कूली दिनों में लौटा देती है जब शायद इसी उम्र में कभी मेरी एक मौसी ने मुझे स्कूल से लौटते वक़्त टाउन बस की सीट पर किसी सब्जीवाली की गोद में बेखबर सोते हुए देखा था ।उन दिनों हमारे स्कूल से बस की सुविधा शुरू नहीं हुई थी और हमारे कॉलोनी के सारे बच्चे टाउन बस से ही स्कूल जाते थे और हम उस छोटे से सफर को "बम शंकर और पुष्पक"जैसी धुँआ छोड़ती खटारा बसों में बहुत आनंद के साथ बिताते थे । आज कल के दौर में मैं छोटे बच्चों को टेम्पो और वैनों में क्षमता से अधिक भरे जाने पर भाव विह्वल हो ही रही होती हूँ कि मेरे सामने से सर्र से एक बड़ी सी सरकारी या निजी वातानुकूलित गाड़ी निकलती है जिसकी पिछली सीट पर मात्र एक छोटी सी बच्ची स्कूल के लिए जाती दिखती है ।इसे क्या कहेंगे पैसे की बर्बादी ,बच्चों को दी जाने वाली सुविधा या नुमाइश ? क्या कोई ऐसा प्रावधान नहीं हो सकता जिससे स्कूल ड्रेस की तरह सभी बच्चे को स्कूल की ओर से किसी सवारी की अनिवार्यता हो ? हो सकता है कि ऐसा सोचना मेरी मूर्खता है लेकिन क्या इसे पर्यावरण की रक्षा की ओर से और अमीरी गरीबी की भावना को कम महसूस किए जाने की ओर से एक पहल नहीं कह सकते ?
सुंदर लेखन
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