Sunday, 25 June 2017

आज ईद है ।सारे देश में इसकी धूम है ।इस पर्व को हमने अपने प्रतिवेशियों के साथ लगभग 9 -10 सालों तक मनाया है ।याद आती है हिना और खस में डूबा वो रुई का टुकड़ा और साथ में किए गए कई  कई इफ्तार ।वो समय था जब हम पापा को मिले यूनिवर्सिटी के फ्लैट में रहते थे ।12 परिवारों वाले उस फ्लैट की खासियत  वहां रहने वाले तीन मुस्लिम ,एक पंजाबी ,एक बंगाली परिवार औऱ शेष बिहारियों को मिलकर बने एक छोटे समाज की थी ।  परंपरा और आधुनिकता एक अद्भुत मेल । एकाध महिला को छोड़ कर प्राय सभी प्रोफ़ेसर ही थीं ।बकरीद और ईद  की सेवईयों का स्वाद आज भी नहीं भूली ।उन्हीं दिनों विश्व हिंदू परिषद द्वारा "गर्व से कहो हम हिन्दू हैं "जैसा फतवा जारी किया गया।पापा शुरू से जनसंघी तो असर न सिर्फ मेरे घर पर बल्कि फ्लैट में रहनेवाले तमाम हिन्दू परिवार पर पड़ा लेकिन फिर भी  आपसी प्रेम में कोई कमी नहीं ।धर्म अपनी जगह और प्रेम अपनी जगह ।अगर हम ईद मानते तो होली के रंग से सरोबार होने से मुस्लिम परिवार भी नहीं बचते ।याद आती है उन आंटियों से सीखी गई बिरयानी और फ़िरनी के लिए दी गई घुट्टी और याद आता है मेरी दीदी की शादी के बाद एक साथ सभी  फ्लैट के बच्चों का  मिथिला की तर्ज़ पर जीजाजी को  ओझा जी कहना ।हमारे घर के पहले वाली बस्ती मुस्लिमों की थी जहां रुककर पापा रोज़ एक  मौलवी साहब की दुकान पर पान खाया करते थे ,यहाँ जितना विश्वास पापा का उन मौलवी साहब पर था उतना ही स्नेह वो पापा पर रखते  ।अन्यथा शहर में तनाव होने पर पापा को जल्दी ही घर जाने की सलाह नहीं देते ।क्या कहूं न तब लोग बुरे थे न अब लोग बुरे हैं !तब मैं ईद की दावत पर जाती थी आज मेरी बेटियां ईद मना कर आई हैं । तनाव दोनों संप्रदाय के बीच तब भी होता था  ,रामनवमी और बकरीद तब भी रांची के लिए पर्व नहीं एक चुनौती होती थी , आज भी है ।वजह एक नेता और राजनीतिक हवा जिसपर पूरी सत्ता और विपक्ष टिका है।

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