पिछले कुछ दिनों से मेरी बड़ी बेटी जो बैंगलोर में नौकरी के सिलसिले में पिछले डेढ़ सालों से रह रही है बेहद खुश और व्यस्त रहती थी ।वैसे आज कल के बच्चे अपने काम में इतने तल्लीन रहते हैं कि उन्हें मशीनी जिंदगी जीने की आदत हो जाती है। खैर,बेटी की खुशी का राज यह था कि उसके फ्लैट के बालकनी के हैंगिंग इनडोर प्लांट में दो बुलबुलों ने घोंसला बनाना शुरू किया था।धीरे धीरे जैसे जैसे उन पखेरुओ का गृह निर्माण का काम आगे बढ़ता गया बेटी के साथ साथ हमारी उत्सुकता बढ़ती गई । सफ्ताहांत में दिन में कई कई बार हम वीडियो कॉल के जरिए पहले घोंसले और बाद में उन दो अंडो को देखते। स्कूली कक्षा में पढ़ी कहानी "रक्षा में हत्या" के कारण मैंउसे यथासंभव घोंसले से दूर रहने की सलाह देती । धीरे धीरे उसका घर नन्हें खेचरों की चहचहाहट से भर गया।उसकी दिनचर्या में उनकी उपस्थिति अनिवार्य हो गई और कभी नजदीक जाने पर उनकी छोटी सी मां उसे अपनी चहचहाट से दूर करने का प्रयास भी करती ।अक्सर मेरे दोनों बच्चे मुझसे पूछते कि एक बार घोंसले से निकलने के बाद क्या फिर वो अपनी मां को पहचान पाएंगे ? और इसी तरह की कई बातें हमारे टेलीफोनिक वार्ता का हिस्सा बन चुकी थी।
इस कहानी का अंत शायद अत्यंत सुखद होता अगर परसों बहुत सुबह बेटी का जोर जोर से रोता हुआ फोन मेरे पास नहीं आता । कुछ देर रोने के बाद जब उसने बताया कि कौवे ने घोंसले में मौजूद दोनो बच्चों को मार दिया और उनकी मां उन्हें बचा नही पाई। अपनी सुबह की नींद को कोसती बेटी लगातार रोती जा रही थी ।
शायद यही प्रकृति का नियम है जिसके अनुसार हर क्षेत्र में कमजोर ,ताकतवर के द्वारा शोषित होता है ,मेरे पास इन शब्दों में उसे दिलासा देने के अलावा दूसरा कोई वि
वैसे अगर सच कहूं तो मुझे बेटी को समझाने के लिए कहे गए अपने ही शब्द बेहद खोखले लगते हैं क्योंकि कमजोरों और निरीहों को दबाने की प्रवृत्ति क्या प्रकृति तक ही सीमित है ?