यह किताब मेरी एक स्नेही सहेली को लेखक ने उपहार स्वरूप दिया गया था जिसे उन्होंने मुझसे पढ़ने के लिए साझा किया।लेकिन कुछ निजी व्यस्तताओं के कारण मैं इसे पढ़ नहीं पा रही थी।
अगर ईमानदारी से कहूं तो जब इसे पढ़ने से पहले मैंने लेखक के विषय में जानने की कोशिश की तो पाया कि श्री महेश बजाज जी रिटायर होने से पूर्व एक राष्ट्रीयकृत बैंक के उच्च पद पर वर्षों तक आसीन रहे । ऐसा जानने के बाद मेरी इस मामले में जो धारणा बनी वो कुछ ऐसी थी कि कहां वो बैंक की शुष्क नौकरी और कहां ये साहित्य । बाद में मैंने उनके छद्म नाम "अंजुम लखनवी" जिनसे उन्होंने शायर के रूप में काफी ख्याति पाई है और उन्हें मिले सम्मानों को भी जाना तो मेरी धारणा बिल्कुल ही बदल गई।
"परछाइयां " श्री महेश बजाज जी लघु कथाओं और निजी संस्मरणों का संग्रह है। संग्रह का पहले भाग की शुरुआत गुंटूर गूं जैसी भावना प्रधान कहानी से होती है कुल तीन कबूतरों की कहानी और प्रथम पुरुष के रूप में लिखी गई ये कहानी मर्मस्पर्शी है वैसे तो ये कहानी कबूतरों के बारे में है लेकिन ऐसा अनुभव हमारे निजी जीवन में भी कई बार होता है।
इसके बाद की कुछ कहानियां एकतरफा प्यार और विवाहोत्तर संबंधों पर लिखी गई है।
माता पिता के प्रति संतानों की उदासीनता को प्रिंटर का रिबन, डुप्लेक्स और फातिहा में बहुत ही कम शब्दों में बहुत अच्छे से उकेरा गया है।भले ही ये विषय काफी पुराना या समाज के हर वर्ग के लिए जाना हुआ है लेकिन यहां लेखक ने इसे इतने अनूठे तौर पर शब्दों में बांधा है कि इन कहानियों को पढ़ते हुए कहीं कहीं आपकी आँखें भर उठेंगी। कई कहानियां मात्र एक या दो पन्नों तक ही सीमित है लेकिन ये आपके मन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में सक्षम हैं। लेखक अपनी नौकरी के क्रम में अनेक स्थानों पर रहे हैं तो उन्होंने उन शहरों की इतनी अच्छी व्याख्या की है कि मेरी तरह आप भी निश्चय ही उन शहरों के विषय में उत्सुक हो जाएंगे। मसलन भोपाल के विषय में उनका मंतव्य: खूबसूरत पार्कों और झीलों का शहर भोपाल ।इस शहर ने उर्दू की विरासत अब तक संभाली हुई हैऔर कई शायर दिए हैं। वहीं वो लखनऊ के बारे में लिखते हैं कि लखनऊ एक ऐसी जगह है,जहां के लोग चिकन का इस्तेमाल खाने और पहनने दोनों में ही करते हैं। उर्दू सुनना और हिन्दी के वाक्य में उर्दू भाषा के मिले हुए शब्द मुझे काफी पसंद हैं तो कुछ कहानियों में लेखक की ये शैली मुझे अच्छी लगी । उनकी कहानियों से ये ज़ाहिर होता है कि श्री बजाज उर्दू से बहुत अच्छे से वाक़िफ हैं।
किताब के दूसरे हिस्से में श्री बजाज ने अपने संस्मरण लिखे हैं जो वास्तविकता से काफी करीब हैं। खान साहब का सजीव चित्रण आपको उनके बेहद करीब ले जाती हैं।
पुणे में माधुरी से बैंक में कार्यवश मिलना और काफ़ी दिनों तक एक अच्छे दोस्त बनकर रहना निश्चय ही लेखक के लिए भविष्य में काफी सुखदायक होता अगर माधुरी की असमय मृत्यु न हुई होती जिसकी जानकारी श्री बजाज ने एक अंतराल के बाद पाई। अपने मित्रों के ऐसे विछोह से हम टूट जाते हैं जिसे श्री बजाज ने बखूबी बताया है।
इस किताब को बढ़ते हुए जब इसमें दरभंगा का जिक्र आता है तो गृहनगर होने की वजह से मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कुराहट आ जाती है वैसे मैं श्री बजाज को विश्वास दिलाना चाहूंगी कि आज दरभंगा में बिजली की स्थिति में सुधार गई है और अब लोगों को इसके लिए सफ्ताह के अंत में पटना जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन इस संदर्भ किए गए पटना के शीशमहल का किस्सा मैंने भी पुराने पटनावासियों से सुना है।
इस श्रृंखला में लिखे गए अन्य अनुभव लघु कथाओं के मुकाबले बेहतर कहे जा सकते हैं और अगर लेखक जीवन अपने संस्मरणों को एक पुस्तक का रूप दिया जाए तो यह एक दिलचस्प किताब होगी ऐसी मेरी निजी सलाह है।