Tuesday, 2 September 2025




   पुस्तक समीक्षा # 31#
  लेखक # श्री रणविजय #
  पब्लिकेशन #हिंद युग्म #
  पृष्ठ संख्या #206#
  मूल्य         #299#

चीनी मिट्टी रणविजय जी के द्वारा लिखी एक यात्रा वृतांत है। चीन के विषय में यात्रा वृतांत काफी कम देखने में आता है शायद उसका कारण वहां की कम्युनिस्ट सरकार और सोशल मीडिया से वहां लगी रोक हो । हमारे जनसामान्य में किसी भी विदेश की  यात्रा के लिए काफी चाहत देखी जाती है  लेकिन इस विदेश में चीन की यात्रा शायद ही शामिल हो । 
इस किताब की समीक्षा लिखने में मुझे काफी दिन लग गए , जब मैंने इसे पहली बार पढ़कर लिखना शुरू किया तो मुझे ऐसा लगा कि इसमें लिखे प्राय: सभी ही  नामों को मैं भूल गई नतीजन इसके बारे में लिखने के लिए मैंने इसे दुबारा से पढ़ा।
    श्री रणविजय जी जो पेशे से  इंजीनियर हैं और रेलवे के शीर्षस्थ पद पर हैं ये उनकी पांचवी किताब है,उन्हें अक्टूबर 2019 में पांच दिन के सरकारी दौरे पर चीन के हुनान प्रांत के जुझावो शहर में भेजा गया । ये जगह कोरोना का केंद्र वुहान से थोड़ी सी दूरी पर था और इस यात्रा के कुछ ही महीनों के बाद कोरोना का तांडव शुरू हुआ था।चीन एक ऐसा रहस्यमय देश, जिसकी सटीक उपमा लेखक ने सीप में बंद एक मोती से दी है ।
   एक ऐसा देश जिसका GDP 1978 तक हमारे देश के समकक्ष था ,अब 15ट्रिलियन डॉलर के साथ दूसरे नंबर पर पहुंच गया है,एक ऐसा देश जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होती है जहां सोशल मीडिया के नाम पर Wrechat ही है अर्थात वो पूरी दुनिया से कटा हुआ हैं जिन्होंने बायडू के नाम से अपना google बना रखा है,फिर भी ये देश विश्व की फैक्ट्री कहलाता है ।जो अपने आप में इतना दमखम रखता है कि तमाम विरोध के बावजूद अमेरिका को अपने टॉयलेट पेपर तक के लिए चीन पर ही निर्भर रहना पड़ता है। रेलवे के पूरे विश्व के बिजनेस का सत्तर प्रतिशत चीन का है ,जो काम हमारे यहां घंटों में होता है कुशलता से वो मिनटों में हो जाता है।इतनी सारी उपलब्धियों के बीच खड़ा चीन लेखक के मन में गहरी छाप छोड़ने को पर्याप्त था ।
किसी जमाने में भले ही तीर्थयात्री और मेहमान के रूप में आए फाहियन और ह्वेनसांग ने हमारे देश के इतिहास पर काफी कुछ लिखा है जो हमारे लिए बेशकीमती है । अगर वर्तमान में  राजनीतिक स्थिति के कारण भारत और चीन दुश्मन नहीं है तो दोस्त भी नहीं है लेकिन जब रणविजय जी ने इस मामले में वहां के लोगों से कुछ जानना चाहा तो इस विषय में उन्हें बिल्कुल ही तटस्थ पाया।
ये किताब जहां आपको चीन के दर्शनीय जगहों की सैर बखूबी करवाती है वहीं भोजन संबंधी कठिनाइयों को बताते हुए अच्छी जानकारी भी  देती है।  जहां इस किताब के कुछ ऐसे प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर आपको वहां के भोजन के प्रति वितृष्णा हो जाएगी वहीं इस में कुछ हास्य प्रसंग भी हैं उदहारण के लिए चीनी भोजन को देखकर लेखक का यह सोचना कि किसको किस चीज के साथ मिलाकर खाया जाए ! शारीरिक बनावट के हिसाब से भी वे इतने फिट हैं कि चीनी बाप बेटे या मां बेटी में कोई भी अंतर नहीं होता है ये अंतर आप बस काफी नजदीक से ही जान सकते हैं।
 पूरी किताब में कुछ ऐसी बातें हैं जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगी कि शायद इन्हीं कारणों से चीन आज इस ऊंचाई पर  पहुंच चुका है। पूरे चीन में एक ही भाषा मंदारिन,और लिपि का प्रयोग,बड़ी आबादी के बाद भी सरकार का ऐसा नियंत्रण, एक व्यक्ति को एक ही घर रखने का सरकारी फैसला जो एक अवधि की लीज पर हो । सड़क की क्षमता के अनुसार गाड़ी की बिक्री और ध्यान देने वाली सबसे बड़ी बात कि धर्म के नाम पर कोई विवाद नहीं।
पुस्तक में वर्णित बुलेट ट्रेन की यात्रा,चीन की विशाल दीवार को देखना, टेंपल ऑफ हेवन को देखना सही मायने में बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।
रेटिंग के अनुसार इस पुस्तक को निश्चित तौर पर दस में नौ देना कहीं से भी गलत नहीं होगा। शुरू से अंत तक ये आपको अपने सम्मोहन में बांधे रखती है। चीन से लेखक की एक स्वस्थ ईर्ष्या मसलन उनकी उन्नत तकनीक को देखकर ,हाय हुसैन ! हम क्यों न हुए ! सॉफ्टवेयर में अब भी चीन पीछे है क्योंकि उसे अंग्रेजों की अंग्रेजी जो नहीं आती , सड़कों पर चीनियों के भी  नियम उल्लंघन पर मन ही मन प्रसन्न होना !! इस प्रकार की घटनाएं और पंक्तियां पुस्तक में स्वाभाविकता बनाए रखती है।
इन सब के बावजूद इस किताब को पढ़ते हुए मैं मन ही मन कई बार सिहर उठी कि कभी अगर वहां गई तो ,दूसरे क्षण मन ने जवाब दिया कि रणविजय जी ने लिखा है कि वहां भी अच्छी और सुंदर दुनिया बसी हुई है और हमारे सोच के मुताबिक वहां के लोग न तो बर्बर है न ही हिंसक। 

Wednesday, 2 April 2025

कुछ बातें,कुछ यादें,कुछ सवाल आपके हाथों में जा रही हैं। ये किताब है मेरी उन यादों की जिसमें मैं कभी अपनी दीदी को महसूस करती हूं और कभी भइया के साथ बालपन के झगड़े को ।वे छोटी बड़ी बातें जो आज तक मैंने सुनी हैं और हैं कुछ सवाल जो निरंतर मेरे मन में आती हैं।
ये कोई गूढ़ साहित्य नहीं है और न ही कोई ऐतिहासिक तथ्यों से भरी हुई लेखनी है।कुछ यादें जैसे ननिहाल की यात्रा जो सबके बाल्यावस्था का सुनहला पन्ना होता है।वो ससुराल की बातें, त्योहारों की गहमा गहमी और भी बहुत कुछ । इस पुस्तक में मैंने अन्य पुस्तकों की तरह किसी पोस्ट में कोई शीर्षक नहीं डाला है। इसके पीछे मेरी मंशा, शीर्षक का निर्णय पाठकों के हाथों में ही  हो ।
किशोरावस्था से मां के उपन्यासों को चोरी छिपे पढ़ते हुए मैंने हुए मैंने कई लेखक लेखिकाओं को जाना । विवाहोपरांत बच्चियों को पढ़ाने के क्रम में पढ़ने पढ़ाने की आदत बनी रही और इसी में लेखन की आदत ने भी जन्म लिया जिसके लिए रफ कॉपी का काम किया fb ने ।
इस दिशा में मुझे प्रोत्साहन देने का श्रेय मेरे चाचा ( श्री नागेश चंद्र मिश्र) को जाता है।यहां मैं ईमानदारी से स्वीकार करती हूं कि अपने सभी fb पोस्ट्स के लिए मैंने उनके कमेंट्स की प्रतीक्षा आतुरता से की है।
बचपन से मेरी आदर्श रही साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजी गई मेरी बुआ सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती नीरजा रेनू ।जिनके जैसा बनने की इच्छा सदैव मेरे मन में रही है।
मेरे सभी लेखों के पहले श्रोता हैं मेरे पति श्री अशोक झा, जिन्होंने मुझ नौसीखिए  को सदा झेला है ।मेरे अधकचरे लेखन की परामर्शदात्री है मेरी बड़ी बेटी वसु और छोटी मीठी ने मेरे बेतरबी से पड़े पोस्ट्स को तकनीकी रूप से संकलित किया है।
     आज अपनी पुस्तक को अपने हाथों में पाकर मैं सादर प्रणाम करती हूं सभी श्रेष्ठजनों को और सादर नमन करती हूं, दिवंगत पापा ,सासु मां और पापा जी को ।

Tuesday, 25 February 2025

 आप सभी को महाशिवरात्रि की शुभकामनाएं । आज का मेरा ये पोस्ट अलग अलग तरह के दो पोस्टों पर आधारित है। 
               ये तो सर्वविदित है कि हिंदू धर्म के अनुसार सबसे सफल दाम्पत्य जोड़ी महादेव और गौरी की है।अगर थोड़ी देर के लिए तुलना की जाए तो सीता के मिथिला की बेटी और राम के मर्यादा पुरूषोतम होने के बावजूद मैथिल भी अपनी बेटियों को दामाद के रूप में राम नहीं महादेव को पाने का आशीर्वाद देते हैं । सीता और राम की जोड़ी में सदैव एक कर्तव्यबोध का अहसास होता है।लेकिन शिव और पार्वती तो किसी भी आम पति पत्नी की तरह हैं जिसमें कभी बच्चों के झगड़ों निबटाने में पार्वती को भांग पीसने में देर हो जाती है और महादेव नाराज़ हो जाते हैं तो कभी महादेव गौरी से मेले में चलने और जलेबी खाने का आग्रह करते हैं।इन सभी का जिक्र  मिथिला की नाचरी में देखने में आता है। दूसरी ओर महेश वाणी में महादेव का बखान सुनने में आता है। नचारी और महेशवाणी को अगर आप विस्तार में जानना चाहते हैं तो आप डॉ .प्रवीन झा (महेशवाणी और नचारी ) को पढ़ सकते हैं । https://praveenjha.in/maheshvani/
  दूसरी ओर शिव और पार्वती को एक आम जोड़ी मानते हुए श्री ध्रुव गुप्त जी उनके बीच होने वाले वाद विवादों की चर्चा करते हैं। आज उनके द्वारा लिखा ये मजेदार पोस्ट बरबस ही आपको हंसने पर मजबूर कर देगा । https://www.facebook.com/share/p/18LWGA6qJn/

Thursday, 9 January 2025

अगहन का महीना अमूमन सभी हिन्दू सम्प्रदायों के  शादी ब्याह से भरपूर होता है। वैसे तो शादियों में किया जाने वाले खर्च में सभी जगहों पर बेहताशा वृद्धि हुईं है लेकिन हर समाज में हर लगन में एक या दो शादियां ऐसी जरूर होती हैं जो अपने लेन देन की वजह से महीनों तक चर्चा में रहती हैं। 
     मैं मिथिला के श्रोत्रिय ब्राह्मण समुदाय से हूं। जो काफी हद तक अपने आप में सिमटा हुआ है । हर समुदाय की तरह इसमें शादी ब्याह संबंधी बहुत से नियम और कायदे हैं जो समय के साथ बदलते जा रहे हैं।
     अगर 25 से 30साल पहले हमारे यहां की शादियों की बात करें तो ये काफी परंपरागत और सादगी पूर्ण हुआ करती थी। जातिगत नियम काफी कट्टर हुआ करती थी ,शादी में पालन किए जाने वाले नियम काफी परंपरागत और खर्च के लिहाज से आम कन्या या वर के पिता के साथ समाज के लिए भी सहज हुआ करते थे । गौर करने वाली बात ये है कि परंपरा के नाम पर वधू तक का शृंगार बुजुर्ग महिलाओं के द्वारा प्राकृतिक रंगों की सहायता से किया जाता था जिसे पासाहिन कहा जाता था जो सिद्धहस्त और अनुभवी  हाथों के कारण बहुत ही खूबसूरत दिखता था। पासाहीन कई तरह के होते हैं जो किसी भी शुभ अवसर सुहागिनों के माथे पर सिंदूर, विशेष तरह की बिंदियों आदि के द्वारा की जाती है।इनकी चर्चा (पासाहिनो)  मैं अपने दूसरे पोस्ट में विस्तार से करना भी चाहूंगी क्योंकि यह एक दिलचस्प विषय है। शादी में परोसा जाने वाला भोजन शाकाहारी और बिना नमक का होता है।सभी बाराती धोती कुर्ते में रहते हैं और लड़की की मुंह दिखाई भी इतनी ही होती है कि सभी आसानी से वहन कर सकें। पहले के समय अनुसार सभी वैवाहिक कार्यक्रम परिवार और समाज के द्वारा ही  निबटाए जाते थे । चूंकि दहेज के दानव से यह सम्प्रदाय मुक्त है इसलिए लड़की को दिए गए सामानों की चर्चा तो होती थी लेकिन उतनी ही ताकि कम औकात के लोग शर्मिंदगी महसूस न करें । गौरतलब है कि दरभंगा के महाराज भी इसी समुदाय से ताल्लुक रखते थे जिनका लेन देन राजसी होता था लेकिन जन साधारण के लिए लेन देन संबंधी कोई बाध्यता नहीं थी। इसी कारणवश कई बार वैवाहिक संबंध में आर्थिक विषमता भी देखने में आती थी।सादगी और शालीनता के बावजूद विवाह आने वाले सभी मेहमानों के खाने पीने और रहने की समुचित व्यवस्था की जाती थी। प्राय घर पर बनी मिठाइयां होती थीं जो वक्त बेवक्त आने वाले मेहमानों को भी  परोसी जाती थी। शादी में आने वाले मेहमानों को आस पास के घरों में मेहमानों को ठहराया जाता था इन सभी बातों का तात्पर्य यह है कि हमारे यहां की शादियों मुख्य रूप से संस्कार प्रधान और दिखावे से परे हुआ करती थी। वर और वधु दोनों ही कम उम्र के हुआ करते थे।
     उपर्युक्त सभी बातों की चर्चा मैंने  कई बार भूतकाल में किया है इसका कारण यह है कि विगत पांच वर्षों में हमारे यहां की शादियों में काफी परिवर्तन आया है। सबसे अच्छी बात यह हुई है कि आज के समय में  प्राय वर और वधु दोनों परिपक्व हो जाते हैं और बहुधा लड़कियां भी शादी के समय आत्मनिर्भर होती हैं। आज के समय में विवाह के लिए मात्र वर की मंजूरी को ही पर्याप्त नहीं माना जाता है अब लड़कियां भी अपने विवाह के लिए  राय देती हैं। अंतर्जातीय विवाह में काफी वृद्धि हुई है और प्राय इस तरह के विवाह को परिवारिक और सामाजिक मंजूरी मिल चुकी है।
लेकिन किसी भी समाज पर समय के सकारात्मक प्रभाव के साथ साथ नकारात्मक प्रभाव पड़ना लाज़मी है। हमारे यहां के विवाह जयमाल,हल्दी या मेंहदी जैसे फंक्शन से परे होते थे जो कि अब दूसरी शादी में दिखने लगा है,शादियां भव्य और फिल्मी दुनिया से प्रभावित होने लगी हैं जो खर्च और दिखावे से ओत प्रोत से भरी हुई होती हैं। दिखावे के इस दौर में न सिर्फ वर वधु बल्कि उनके परिजनों को भी बेशकीमती उपहार दिए जा रहे हैं ।
क्या इस तरह की देनदारी पहले की शादियों में नहीं होती थी ?  जब इस बात की चर्चा मैंने अपने      
से की तो उनका सहज जवाब था बिल्कुल होती थी  क्योंकि माता पिता को सदैव ही अपने संतानों के भविष्य को हर तरह से सुखी बनाना चाहते हैं। कई बार बेटियों को विवाह के बाद आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता था ऐसे में माता पिता अनेकों प्रकार से उनकी मदद करने के आगे आते थे । उनके बच्चे अर्थात नाती नातिन का पालन पोषण ननिहाल में किया जाता था। बेटियों को समय समय पर सनेश (उपहार) भेजा जाता था ।कई बार उन्हें (बेटियों को )ससुराल में चिट्ठी पत्री के खर्च के नाम पर मासिक मदद इस तरह से की जाती थी जिससे ससुराल पक्ष की गरिमा को ठेस न पहुंचे और बेटियों को देने का उद्देश्य पूरा हो जाए और तो और बेटियों को पितृ पक्ष से जमीन दी जाती थी।
आज का दौर बदल चुका है हमारी सोच ये है कि अगर हम किसी को कुछ दे



Saturday, 26 October 2024

      यह किताब मेरी एक स्नेही सहेली को लेखक ने  उपहार स्वरूप दिया गया था जिसे उन्होंने मुझसे पढ़ने के लिए साझा किया।लेकिन कुछ निजी व्यस्तताओं के कारण मैं इसे पढ़ नहीं पा रही थी।  
      अगर ईमानदारी से कहूं तो जब इसे पढ़ने से पहले मैंने लेखक के विषय में जानने की कोशिश की तो पाया कि श्री महेश बजाज जी  रिटायर होने से पूर्व एक राष्ट्रीयकृत बैंक के उच्च पद पर  वर्षों तक आसीन रहे । ऐसा जानने के बाद मेरी इस मामले में जो धारणा बनी वो कुछ ऐसी थी कि कहां वो बैंक की शुष्क नौकरी और कहां ये साहित्य । बाद में मैंने उनके छद्म नाम "अंजुम लखनवी" जिनसे उन्होंने शायर के रूप में  काफी ख्याति पाई है और उन्हें मिले सम्मानों को भी जाना तो मेरी धारणा बिल्कुल ही बदल गई।
"परछाइयां " श्री महेश बजाज जी लघु कथाओं और निजी संस्मरणों का संग्रह है। संग्रह का पहले भाग की शुरुआत गुंटूर गूं जैसी भावना प्रधान कहानी से होती है कुल तीन कबूतरों की कहानी और प्रथम पुरुष के रूप में लिखी गई ये कहानी मर्मस्पर्शी है वैसे तो ये कहानी कबूतरों के बारे में है लेकिन ऐसा अनुभव हमारे निजी जीवन में भी कई बार होता है।
इसके बाद की कुछ कहानियां एकतरफा प्यार और विवाहोत्तर संबंधों पर लिखी गई है। 
माता पिता के प्रति संतानों की उदासीनता को प्रिंटर का रिबन, डुप्लेक्स और फातिहा में बहुत ही कम शब्दों में बहुत अच्छे से उकेरा गया है।भले ही ये विषय काफी पुराना या समाज के हर वर्ग के लिए जाना हुआ  है लेकिन यहां लेखक ने इसे इतने अनूठे तौर पर शब्दों में बांधा है कि  इन कहानियों को पढ़ते हुए कहीं कहीं आपकी आँखें भर उठेंगी। कई कहानियां मात्र एक या दो पन्नों तक ही सीमित है लेकिन ये आपके मन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में सक्षम हैं। लेखक अपनी नौकरी के क्रम में अनेक स्थानों पर रहे हैं तो उन्होंने उन शहरों की इतनी अच्छी व्याख्या की है कि मेरी तरह आप भी  निश्चय ही उन शहरों के विषय में उत्सुक हो जाएंगे। मसलन भोपाल के विषय में उनका मंतव्य: खूबसूरत पार्कों और झीलों का शहर भोपाल ।इस शहर ने उर्दू की विरासत अब तक संभाली हुई हैऔर कई शायर दिए हैं। वहीं वो लखनऊ के बारे में लिखते हैं कि लखनऊ एक ऐसी जगह है,जहां के लोग चिकन का इस्तेमाल  खाने और पहनने दोनों में ही करते हैं।  उर्दू सुनना और हिन्दी के वाक्य में उर्दू भाषा के मिले हुए शब्द मुझे काफी पसंद हैं तो कुछ कहानियों में लेखक की ये शैली मुझे अच्छी लगी । उनकी कहानियों से ये ज़ाहिर होता है कि श्री बजाज उर्दू से बहुत अच्छे से वाक़िफ हैं।
किताब के दूसरे हिस्से में श्री बजाज ने अपने संस्मरण लिखे हैं जो वास्तविकता से काफी करीब हैं। खान साहब का सजीव चित्रण आपको उनके बेहद करीब ले जाती हैं।
पुणे में माधुरी से बैंक में कार्यवश मिलना और काफ़ी दिनों तक एक अच्छे दोस्त बनकर रहना निश्चय ही लेखक के लिए भविष्य में काफी सुखदायक होता अगर माधुरी की असमय मृत्यु न हुई होती जिसकी जानकारी श्री बजाज ने एक अंतराल के बाद पाई। अपने मित्रों के ऐसे विछोह से हम टूट जाते हैं जिसे श्री बजाज ने बखूबी बताया है।
इस किताब को बढ़ते हुए जब इसमें दरभंगा का जिक्र आता है तो गृहनगर होने की वजह से मेरे चेहरे पर बरबस ही मुस्कुराहट आ जाती है वैसे मैं श्री बजाज को विश्वास दिलाना चाहूंगी कि आज दरभंगा में बिजली की स्थिति में सुधार गई है और अब  लोगों को इसके लिए सफ्ताह के अंत में पटना जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। लेकिन इस संदर्भ किए गए पटना के  शीशमहल का किस्सा मैंने भी पुराने पटनावासियों से सुना है।
 इस श्रृंखला में लिखे गए अन्य अनुभव लघु कथाओं के मुकाबले बेहतर कहे जा सकते हैं और अगर लेखक जीवन  अपने संस्मरणों को एक पुस्तक का रूप दिया जाए तो यह एक दिलचस्प किताब होगी ऐसी मेरी निजी सलाह है।

Friday, 9 August 2024

पिछले काफी दिनों से वोल्गा से गंगा को पढ़ रही हूं। अगर ईमानदारी से कहूं तो इस बीच मैंने  दूसरी दो किताबें और पढ़ डाली और अब तक पूरी नहीं पढ़ पाई,कारण है इसकी गूढ़ता और दार्शनिक भाव ।
    मानव के अस्तित्व आने से लेकर आधुनिक इतिहास तक  स्वर्गीय राहुल सांस्कृतायन की ये रचना निश्चय ही इतिहास और साहित्य के लिए अनुपम सौगात है।
नदियों के किनारे बसने वाली सभ्यता किस तरह पहले मातृसत्तात्मक रूप से शुरू हुई और धीरे धीरे स्त्रियों के पतन की ओर उन्मुख होती गई ।
   जब तक मनुष्य के मन में संग्रह करने की प्रवृति नहीं विकसित हुई थी वह लगातार भटकता रहता था।धीरे धीरे अनाज फिर तांबा, लोहा और बाद में सोना आदि को मानव आविष्कृत करता गया और लालची होता गया ।
राजा के दैवी सिद्धांत के कारण दास और दासियां जानवरों की तरह बेचे जाते थे। आज भले ही हम सनातन धर्म और हिंदू धर्म की दुहाई दे लेकिन ब्राह्मणों तक में सुरा और गोमांस खाने की परंपरा थी ।इस्लाम धर्म की उत्पति और काफी नवीन होने पर भी पूरे विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ जबकि बौद्ध धर्म जनमानस के लिए आसान था ।हिंदू धर्म की जटिलता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि किसी भी चांडाल के लिए नगर में प्रवेश करना निषिद्ध था और अतियआवश्वक स्थिति में वे नगर में एक डंडे और एक बर्तन के साथ प्रवेश करते थे।दूर से डंडे पीटते और अपने थूक को उस बर्तन में फेंकते उनकी स्थिति कुत्ते से भी बदतर थी ।
हिंदू धर्म के कुछ अच्छे सिद्धांत भी थे , कम उम्र में होने वाली विधवाओं को एक साल से अंदर द्वि वर अर्थात देवर से ब्याह दिया जाता था । धीरे धीरे इस प्रथा का निषेध हो गया और इसके जगह सती प्रथा जैसी कुरीतियां जन्म लेने लगी ।
इसी प्रकार की रोचक बातें और ऐतिहासिक जानकारियों से संबंधित ये पुस्तक आपको तभी दिलचस्प लग सकती है जब आप इन बातों में रुचि रखते हो । हल्के फुल्के किताबों के शौकीन पाठकगण इस किताब का आनंद नहीं ले सकते हैं ये मेरी निजी सलाह है।

Thursday, 18 July 2024

     विगत कुछ दिनों से पूरा सोशल मीडिया अनंत अंबानी और राधिका मर्चेंट के सगाई, प्री वेडिंग और विवाह की खबरों से पटा हुआ है। विवाह का भव्य आयोजन,शामिल होने वाले बॉलीवुड सितारे और तमाम बड़ी हस्तियां लोगों को एक फैंटेसी की दुनिया में ले जाती है। 
      लेकिन इन सबके साथ साथ जितनी फोटोज या खबरें अंबानी परिवार के लोगों के कपड़ों,गहनों की बन रही है उससे कहीं अधिक मजाक अनंत अंबानी के मोटापे का बनाया जा रहा है।कोई उसे हाथी कह रहा है जबकि कोई उसे बच्चों के कार्टून सीरीज का ओस्वर्ड।तरह तरह के मीम बनाए जा रहे हैं ये सब तब किया जा रहा है जबकि पहले ही फंक्शन में अनंत अंबानी ने अपनी बीमारी और उससे होने वाली तकलीफों का खुलासा कर दिया था।
अंबानी परिवार जनमानस से ही नहीं बल्कि दर्शकों की नजर में भगवान की तरह पूजे जाने वाले नायक नायिकाओं से भी बहुत ऊपर की शख्सियत हैं उन्हें इस तरह के रिल्स या मीमस से कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन इस प्रकार की हरकतें करना व्यक्ति विशेष की दूषित मानसिकता को प्रदर्शित करता है । 
किसी भी बच्चे की तकलीफ उसके माता पिता के लिए कितनी कष्टप्रद  होती है यह कहने की बात नहीं है फिर चाहे वो कितना ही दौलतमंद क्यों न हो।
   यहां बात सिर्फ अनंत अंबानी की नहीं है इस तरह से लोगों की हंसी उड़ना हमारे समाज के लिए नई बात नहीं है।
       कभी कहीं पढ़ा था कि बीमारी या मौत न दौलत देखती है न जाति, यही एक सच है जिससे ईश्वर ने इंसान को औकात दिखा दिया है वरना  अमीर कहते कि फलां गरीब था इसलिए बीमार हो गया या फलां गरीब था इसलिए मर गया 🥲🥲