Sunday 3 March 2024

गत 20Feb को मशहूर रेडियो उद्घोषक अमीन सयानी जी का देहांत हो गया। संभवत उस जमाने का शायद ही कोई उनकी जादुई आवाज से अपरिचित होगा । उनके संबंध में   "The Times of India" ने बड़ी दिलचस्प बात लिखी कि भारतीय होने और अपने सगे भाई के AIR में पहले से कार्यरत होने के बाद भी इतनी जादुई और मखमली आवाज के बाद भी क्या कारण था कि उन्होंने अपना कैरियर AIR के बजाय लंका (रेडियो सिलोन) से शुरू किया तो इसका कारण यह था कि उस समय ऑल इण्डिया रेडियो की नीति थी कि इसमें मात्र परंपरागत कलाकारों और वाद्य यंत्रों को प्रमोट करने के नाम पर उन्हें ही प्रवेश दिया जाता था और तो और इस कसौटी पर हारमोनियम भी विदेशी होने के कारण खरा नहीं उतरता था तो हिंदी फिल्मी गाने तो दूर की बात थी । ऐसे में अमीन सयानीजी ने अपने कैरियर की शुरुवात रेडियो सिलोन से की जो कि हिंदी फिल्म के गानों से जुड़ा कार्यक्रम था और चंद ही वर्षों में काफी प्रसिद्ध हो गया. बाद के वर्षो में AIR ने भी अपनी नीतियों में बदलाव के साथ 1957 में विविध भारती की स्थापना हुई जिससे हिंदी फिल्मी गानों की ऑल इण्डिया रेडियो पर प्रवेश मिला । बाद में भारतीय जनता की नब्ज को पकड़ते हुए इस कार्यक्रम को फौजी भाइयों के लिए समर्पित किया गया। इन सभी बातों का सार यह है कि आम जीवन हो या टेक्नोलॉजी में परिवर्तन की गुंजाइश हमेशा ही बनी रहती है बशर्ते उसका दुरुपयोग न किया जाए। कंप्यूटर के आने से पहले एक भ्रांति यह थी इससे बेरोजगारी बढ़ जाएंगी लेकिन आज इसके बिना जिंदगी नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर मालूम होती है। विवाह हो या अंतिम संस्कार उनमें होने वाले कई रिवाज मात्र इसलिए निभाया जा रहा हैं क्योंकि ये पुरानी हैं और हमेशा से होती आई हैं। गाहे बिगाहे हम या हमसे ऊपर की आज की पीढ़ी से अपनी तुलना करते हैं लेकिन होने वाले परिवर्तन को स्वीकारना हमारे लिए कई मायनों में जरूरी है।
 अपनी पुस्तक पथ का दावा में  शरद चंद कहते हैं कि कोई भी पुरानी चीज  सिर्फ इसलिए सही नहीं हो सकती क्योंकि वो पुरानी हैं जिस तरह सत्तर साल का बूढ़ा कभी भी दस साल के बच्चे से पवित्र नहीं हो सकता है। 
तो किसी भी नई चीज या विचार को नकारने से पहले उसके गुण  दोषों पर विचार करना श्रेयस्कर है क्योंकि यूं भी पुरानी शराब अच्छी होने के बाद भी उसके बॉटल और कलेवर को नया रूप दिया जाता है।
श्री तेजकर झा द्वारा लिखित पुस्तक "Darbhanga Chronicles" पिछले कुछ दिनों से मैं पढ़ रही थी। किताबों की श्रृंखला में कुछ पुस्तकें ऐसी होती हैं जिन्हें आप अच्छी तरह से समझ ही पढ़ते हैं और इस तरह की पुस्तकें आपके लिए यादगार साबित होती हैं , श्री झा की इस किताब को मैं इसी श्रेणी में रखना चाहूंगी।
यह पुस्तक दरभंगा राज के संबंध में लिखी गई है । श्री झा ने इसे छह भागों में बांटते हुए इसके सभी पहलुओं पर फोकस किया है।
पहले भाग  इतिहास में राज दरभंगा के शासकों के उत्पति और  राज विस्तार के बारे  विस्तृत रूप से बताया गया है। खड़वा,जबलपुर और मंडला से संबंधित  इसके आदिपुरुष महामहोपाध्याय गंगाधर झा से संकर्षण ठाकुर से होते हुए महेश ठाकुर ने दरभंगी खान को परास्त कर इस राज की स्थापना हुई। जिस पर कुल अठारह राजाओं ने शासन किया ।
दूसरे भाग में गेराल्ड डेनबी जिनका नाम , मिथिलावासी डेनबी रोड के रूप में बचपन से सुनते आए हैं, के बारे में जानना काफी रोचक है ।एक ऐसा ब्रिटिश जो हमेशा के लिए अपने पूरे परिवार के साथ लंदन जाने को जहाज पर चढ़ चुका था महाराज के एक आग्रह पर लंदन यात्रा को अंतिम क्षणों में स्थागित कर दी और पूरी शिद्दत से महाराज की मित्रता और राज की ओर से मिले पद को  ईमानदारी से निभाया ।यह उसी की दूरदर्शिता का परिणाम था कि राज के हर क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई ।लेकिन जब राज के खर्च को कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी की बारी आई तो महाराज के विरोध के बावजूद  उसने अपने पद का त्याग किया। कम शब्दों में उसने अपनी वेदना पत्र में महाराज को लिख भेजा कि यहां के लोगों ने मेरे ब्रिटिश होने के कारण कभी मुझे वफादार नहीं माना और ब्रिटेन के लोगों ने एक देशी राजा की नौकरी के कारण मेरी इज्जत नहीं की लेकिन मैंने हमेशा ही आपसे( महाराज) से अपनी मित्रता ही निभाई।
तीसरे भाग पॉलिटिक्स में लेखक ने तत्कालीन कांग्रेस और दरभंगा राज के संबंधों के बारे में प्रकाश डाला है । इस विषय में स्वतंत्रता से पूर्व और उसके बाद की राजनीति काफी रोचक है।
गांधी जी की south Africa की यात्रा और उसके संबंध में महाराज से किया गया पत्राचार इस किताब में तारीख के साथ दर्ज किया गया है। 1934 के विनाशकारी भूकंप के बाद गांधीजी ने उस समय रामबाग के कैंप में रह रही बड़ी महारानी से सवाल किया कि वे संभवत महारानी होने के कारण आराम ही करती होगी ? महारानी ने विनम्रता से जवाब दिया कि मिथिला की स्त्रियां बचपन से ही चरखा चलाने में सिद्धहस्त होती हैं।
Democracy वाले भाग को पढ़ने से उस समय जमींदारी उन्मूलन अभियान के साथ ही उस वक्त की कई बिंदुओं पर ध्यान दिया गया है।
इस पुस्तक का अंतिम और सबसे दिलचस्प भाग है दरबार डायरी  जो कि महाराज की दो डायरियों पर आधारित है। इसमें महाराज की व्यक्तिगत बातों के साथ दिन प्रति दिन घट रही समस्याओं का बहुत ही अच्छा वर्णन है। इसे पढ़ते हुए आप किसी शीर्षस्थ व्यक्ति की तनावपूर्ण जीवन को भलीभांति अनुभव कर सकते हैं।         इस किताब को पढ़ने की सिफारिश मैं सिर्फ इसलिए नहीं करती हूं कि ये अमुक व्यक्ति या अमुक स्थान विशेष पर लिखी गई है बल्कि हमारे लिए यह एक लज्जास्पद बात है कि हम अपने ही राज्य के किसी भी राजवंश के इतिहास से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं।इसी पुस्तक के अनुसार स्वतंत्रता के समय बिहार में लगभग पचास हजार छोटी बड़ी रियासतें थी जिनमें छह प्रमुख थी लेकिन हम सभी के लिए अफसोस की बात है कि किसी भी राजवंश के बारे में सुनी सुनाई और अधकचरे ज्ञान के अलावा हम कुछ भी नहीं जानते हैं।

Saturday 14 October 2023

 श्री तेजाकर झा द्वारा लिखित पुस्तक The Crisis of succession को पढ़ा ।आज  तक महाराजा,महारानी और साम्राज्य संबंधी बातें हमने इतिहास में ही पढ़ा है। लेकिन इस किताब के माध्यम से जाने पहचाने क्षेत्रों और उनके शासकों को  पढ़ना काफी रोचक है। जैसा कि इस किताब के नाम से ही स्पष्ट है एक भरे पूरे और प्रभुत्व संपन्न साम्राज्य में उत्तराधिकार के अंधी दौड़ में किस तरह की साजिशें रची जा सकती है और  इसका परिणाम संबंधों को किस हद तक ले जा सकता है,ये किताब इसे पेश करने में पूरी तरह सक्षम है।
 वैसे तो अपने को देवी कंकाली का सेवक मात्र मानने वाले तिरहुत /मिथिला/दरभंगा खंडावला वंशीय महाराजाओं का इस रियासत का आरंभ सन् 1573 से माना जाता है जिसे पहले मुगल बादशाह शाह आलम 2nd और बाद में बंगाल के नवाबों द्वारा घोषित किया गया। कुल अठारह राजाओं ने इस पर राज किया जिन्होंने अपनी अच्छी शिक्षा  और सुचारू रूप से चलने वाले शासन प्रबंध के द्वारा साम्राज्य की अच्छी पहचान बनाई लेकिन इस किताब में लेखक श्री झा ने महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह ,महाराज रामेश्वर सिंह और विशेष रूप से महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह जी का चरित्र चित्रण और उनकी महारानियो की जीवनी  लिखी है। साथ ही साथ  महाराजा के निकटस्थ संबंधी भी पुस्तक का  महत्वपूर्ण हिस्सा है।
 महाराज रामेश्वर सिंह जी की एक बेटी लक्ष्मी दाईजी और  दो पुत्र कामेश्वर सिंह एवम   विशेश्वर सिंह थे। लक्ष्मी दाईजी उम्र में अपने भाई कामेश्वर सिंह से पांच वर्ष बड़ी थी। भाइयों से बड़ी होने के कारण वो स्वभाव से ही काफी दबंग थी ।अपने गुणों और बड़े भाई होने के कारण कामेश्वर सिंह जी दरभंगा के महाराज बने और कालांतर में विशेश्वर सिंह को राजाबहादुर की उपाधि के साथ राजनगर सौंपा गया। 
 तत्कालीन समय के अनुरूप  सोलह वर्षीय कामेश्वर सिंह जी का ब्याह नौ वर्ष की कुलीन परिवार की छोटी सी कन्या से हुआ जो विवाह के बाद राजलक्ष्मी कहलाई ।राजलक्ष्मी बचपन से ही काफी धार्मिक प्रवृति और स्वभाव से सरल थी । शायद उनकी इसी  प्रवृति के कारण उनकी सास ,ननद और यहां तक की उनके मायके से साथ आई नौकरानी तक उनपर हावी रही जो महाराज से उनके अलगाव का कारण बनी । यहां महाराज और महारानी के बीच दूरी बढ़ाने का काम संभवत उत्तराधिकार से सबंधित एक सोची समझी रणनीति थी जिसके अनुसार महाराज के अपनी संतान नहीं होने की स्थिति में में यह अधिकार संभवत लक्ष्मी दाईजी के पुत्र कन्हैयाजी को मिलता ।लक्ष्मी दाईजी,उनकी मां और उनके पति ने अपने बेटे को इस गद्दी का अघोषित वारिस मान लिया था।
महाराज कामेश्वर सिंह और महारानी राजलक्ष्मी जी के वैमनस्य के कारण महाराज ने दूसरा विवाह किया जो विवाह के बाद कामेश्वरी प्रिया कहलाई । शिक्षित,संस्कारी और बुद्धिमती रानी अपने पहले ही  प्रसव के दौरान लक्ष्मी दाईजी की षडयंत्र का शिकार बन कर मृत्यु को प्राप्त हुई और  जिसका आरोप  बड़ी महारानी पर आया जिसके कारण क्रोधित होकर महाराज ने जिंदगी भर उनका मुंह न देखने की शपथ खा ली । इस बीच राजाबहादुर को तीन पुत्र हुए और महाराज ने उनके बड़े बेटे जीवेश्वर सिंह को बाकायदा उतराधिकारी बनाने के बारे में सोचना शुरू किया ।लेकिन  राजमाता ने महाराज को तीसरे विवाह के लिए विवश किया ।तीसरी रानी एक बड़े पंडित परिवार से आई और कामसुंदरी कहलाई । लेकिन वो भी महाराज को वारिस नहीं दे पाई। जीवेश्वर सिंह को हर तरह से एक शासक बनाने की कोशिश की गई लेकिन अंतत वो कई बुरी आदतों का शिकार होने की वजह से इससे वंचित रह गए ।उत्तराधिकार की लड़ाई अब संपत्ति की लड़ाई में बदल गई और पारिवारिक षड्यत्रो और साजिशों से तंग आकर महाराज ने लंदन में बसने का इरादा किया लेकिन उससे पहले ही संदेहास्पद मृत्यु को प्राप्त हुए ।
  दरभंगा राज, एक ऐसा राज्य जो इस क्षेत्र में अपने समय का सबसे विशाल और समृद्ध राज था । जिसकी सांस्कृतिक विरासत और प्रसिद्धि पूरे देश में दूर दूर तक फैली हुई थी। हर लिहाज से एक ऐसी  आदर्श रियासत , जो अपने आखिरी शासक की संदेहास्पद मृत्यु के मात्र 60 साल के भीतर ही क्यों छिन्न भिन्न हो गई !
इस तरह बातें संभवत किसी भी रियासत के लिए साधारण हो ।लेकिन यह किताब मात्र सुनी सुनाई बातों पर न होकर  महाराज ,महारानियो और कुमार जीवेश्वर सिंह जी के डायरियों पर आधारित है।इसके साथ साथ राज में कार्यरत कर्मचारियों के रिपोर्ट भी इसके साथ संलग्न है।
एक ऐसा राजवंश जिसके शासकों ने रोजगार उपलब्ध करवाने के लिए क्षेत्र में कई उद्योगों और मिल्स की स्थापना करवाई । शिक्षा और आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने वाले ये शासक  अपने भाई भतीजे के साथ महारानियो की शिक्षा के लिए काफी प्रयासरत थे लेकिन उस समय की परंपरागत सोच और रूढ़िवादिता उन्हें पीछे धकेलने के लिए पर्याप्त थी । नारी अशिक्षा ,बाल और बेमेल विवाह के कारण अधिकांश राजाओं के दांपत्य जीवन में सामंजस्य  का अभाव रहता था जिसके कारण विवाहोत्तर संबंध और व्यभिचार आम बाते थी । 
अगर अधिक विस्तार में इस पुस्तक की बातों को लिखा जाए तो शायद ये चर्चा काफी लंबी हो जाएगी और  नए पाठकों के लिए जिज्ञासा खत्म  हो जाएगी । महाराज की मृत्यु के बाद की स्थिति का वर्णन भी किताब में बखूबी किया गया है।लेखक श्री झा का  महारानी कामसुंदरी के नजदीकी रिश्तेदार रहते हुए भी सभी महारानियो के प्रति तटस्थता का भाव रखना उनकी लेखनी की गहराई का परिचय देता है।
इस रियासत के संबंध में गालिब का  ये शेर कहना वाजिब है
हमें तो अपनों ने लूटा , गैरों में कहां दम था।
अपनी कश्ती वहां डूबी जहां पानी कम था ।।

Thursday 21 September 2023

पिछले दो हफ्तों से श्री विकास कुमार झा द्वारा लिखित पुस्तक "राजा मोमो और पीली बुलबुल "को पढ़ने में लगी हुई थी।देश के सबसे छोटे राज्य गोवा के विषय में इसे एक उत्कृष्ट पुस्तक के रूप में जाना जा सकता है। बचपन से लेकर इस किताब को पढ़ने तक गोवा के विषय में मेरी धारणा कुछ अलग किस्म की थी ।ज्यादातर लोग इसे नशाखोरी और हिप्पियों के अड्डे के रूप में ही जानते हैं लेकिन जब हम गोवा को किसी गोअन की दृष्टि से देखते हैं तो उसके एक अलग रूप से परिचित होते हैं।
    "मारियो मिरांडा "  गोवा के लौटोलिम गांव में रहते थे वो Times of India prakashn से बतौर कार्टूनिस्ट जुड़े हुए थे ।अपने बेटे के मनिपाल ले जाने के क्रम में लेखक का गोवा जाना हुआ और गोवा में वो  विश्व प्रसिद्ध  कार्टूनिस्ट मारिया मिरांडा के आवास पर जाकर मिले । हालंकि मिरांडा उन दिनों अपने दो दोस्तों के गुजर जाने से काफी दुखी थे लेकिन फिर भी उन्होंने श्री झा को अपना समय दिया।जब श्री मिरांडा ने जाना कि श्री झा ने कई उपन्यास लिखे हैं तो उन्होंने उनसे गोवा के विषय में लिखने को कहा उनका कहना था कि हर लिहाज से खुशगवार गोवा आज एक अलग तरह की समस्या से जूझ रहा है और वो है मोटापा । इस मोटापा के कारण उनका जीना मुश्किल है क्योंकि वे अपने दैनिक काम करने से भी लाचार हैं। महिलाओं में ये बीमारी अधिक देखी जा रही हैं लेकिन पुरुष और बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। गौर करने वाली बात ये है कि श्री झा के मिलने के कुछ दिनों के बाद ही श्री मिरांडा का निधन हो गया।इस दौरान श्री झा का अनेकों बार गोवा जाना हुआ और श्री मिरांडा से किया गया वायदा उन्हें बार बार याद आता रहा।इसी दौरान उनकी मुलाकात एक बेकरी चलाने वाली मां बेटी से हुई । दोनों ही अत्याधिक मोटापे से ग्रस्त थी लेकिन मां कई सालों से 24घंटे  बिस्तर पर ही रहने को लाचार थी ।श्री झा को श्री मिरांडा से किया गया वायदा याद आ गया और उन्होंने उनसे उनपर लिखने की अनुमति मांगी।कुछ झिझक के बाद उन्होंने नाम बदलने की शर्त पर इसकी अनुमति मांगी। 
सैंड्रा और उनकी मम्मी मिनि पर आधारित कहानी काफी रोचक है ।इस क्रम में आप कई बार उनके दर्द से भावुक हो जाते हैं। घटनाक्रम कुछ ऐसी होती हैं कि घर के ठीक बगल में "सैंड्रा फिटनेस सेंटर" के नाम से एक जिम खुल जाता है। पूर्वाग्रह से ग्रसित सैंड्रा इसे अपना मजाक बनाना समझती है जबकि यथार्थ कुछ और ही होता है। गोवा में चार दिनों तक चलने वाला कार्निवाल फेस्टिवल में किंग मोमो जो सैंड्रा का बचपन का साथी है वो उसे एक मनचाहा प्रिंस के पाने की दुआ देता है लेकिन अपने उम्र के चालीसवे साल में पहुंची अविवाहित सैंड्रा जिंदगी के प्रति  बिल्कुल हताश है लेकिन किंग मोमो की दुआ के अनुसार उसकी बुआ के द्वारा भेजा गया एक मेहमान विटामियो उसके सपनों का राजकुमार होता है जो उसकी जिंदगी की हर परेशानी का समाधान करता है ।
इस कहानी के साथ साथ चेरिल ,नेहरू पिमेटा , विश्वसुंदरी रीता फारिया और कई और किरदारों की कहानी से भी आप रूबरू होते है। लेखक श्री झा गोवा के साथ साथ पुर्तगाल के इतिहास के अच्छे जानकार हैं ये  बात इस किताब को पढ़कर आप अच्छी तरह से समझ सकते हैं। जनसाधारण गोवा के क्रिसमस और नए साल के जश्न को ही जानता है लेकिन इसे पढ़ने के बाद ही आप गोवा के ऐसे वसंत ऋतु से वाकिफ होते हैं जिसमें कार्निवाल फेस्टिवल का आयोजन किया जाता है जिसमें किंग मोमो के रूप में एक प्रतिनिधि का चुनाव किया जाता है जिसे देखने के लिए पूरी दुनिया के लोग आते हैं।छोटी सी पीली बुलबुल गोवा की राजकीय पक्षी है। विगत दो हफ्तों से मैं इस किताब को पढ़ते हुए वहां की सामाजिक और भौगोलिक क्षेत्र को जानते हुए गोवा के काफी करीब पहुंच गई । पुर्तगालियों ने मिट्टी और नदी के भविष्य को सोच कर ब्राजील की तरह गोवा में भी काजू की खेती शुरू करवाई वे जानना  भी काफी दिलचस्प है।काजू ,बादाम और धान के फसलों से भरपूर गोवा मेहनती किसानों से भी भरा हुआ है जो कई गांवो में हिंदु बहुसंख्यक के रुप में हैं ।जब आप इस तरह की किताब को पढ़ते हैं तो इसे एक झटके में किसी सामान्य उपन्यास की तरह नहीं पढ़ सकते हैं बल्कि इसे कोर्स की किताब की तरह समझकर पढ़ना श्रेयस्कर होता है। 
 

Tuesday 15 August 2023

आज सुबह की सैर से लौटते हुए एक घर को टूटते हुए देखा। कई महीनों से ये घर खाली पड़ा था सुनने में आया था कि ये घर अपार्टमेंट के लिए किसी बिल्डर को दे दिया गया है।इस घर में एक प्रोफेसर साहब रहा करते थे और उनकी वाइफ बच्चों की ट्यूशन लिया करती थी संयोगवश दोनों बेटियों के पढ़ाई के सिलसिले में मैं अक्सर उनसे मिलती रहती थी तो हमारा संबंध काफी घरेलू बन गया था। सच कहूं तो एक बार में अच्छा नहीं लगा देख कर ,किसी भी घर से बहुत सी यादें जुड़ी होती है न जाने कितनी बार टीचर्स डे के मौके पर इस घर के छोटे से बरामदे ने स्टेज की भूमिका निभाई थी और इसी घर में न जाने कितनी ही बार मैडम से मैंने किशोरवय बच्चों की पढ़ाई के साथ साथ  कई अन्य मसलों पर सलाह भी ली, ये तो  एक निजी मकान है वैसे बुरा तो उस वक्त भी लगा था जब मैंने R block के सरकारी घर को तोड़ कर नई इमारतें बनते हुए देखा ।पापाजी (ससुर ) सरकारी नौकरी में थे और उन्हें R block का बड़े से कंपाउंड वाला सरकारी क्वार्टर मिला था उसी घर से परिवार की कई शादियां हुई मेरी  दोनों बेटियों  का बचपन भी  उसी घर में गुजरा । उसी तरह प्रोफेसर साहब काफी दिनों से वहां रहते थे तो जाहिर सी बात है कि बेटे और बेटी की शादी भी उन्होंने उसी घर से किया था ।समय बीतता गया उनके दोनों बच्चे अपनी अपनी जिंदगी में सेट हो गए ।बाद के वर्षों में जब भी मेरी बेटियां आती लगभग तब ही उनके साथ मैं भी उस परिवार से मिल पाती और कई बार मैडम को बढ़ती उम्र और घरेलू परिचायको की अनियमितता के कारण घर की साफ सफाई और रख रखाव के लिए परेशान देखती ।
   वहीं रांची में मेरे  पापा के जाने के बाद मां का  घरेलू सहायिकाओ के सहारे रहने के कारण हम तीनों भाई बहनों का रांची जाने का क्रम बढ़ गया है और वहां की हर यात्रा में कॉलोनी का हर तीसरा मकान तोड़ कर नया बनता दिखाई देता है। धीरे धीरे वहां की कॉलोनी के अमूमन सभी के बच्चे नौकरी और शादी  के सिलसिले में बाहर निकल गए हैंऔर बूढ़े माता पिता जो अपने पुराने लेकिन शौक से बनवाए मकान में रहते हैं ।यह स्थिति कमोवेश प्राय हर जगह पर देखी जा सकती है । इस मामले में जिनकी दूसरी पीढ़ी संयोगवश माता पिता के साथ में रहती है उनके साथ इस तरह की समस्या नहीं आती ।  
अब अगर इसी विषय को बेटे बेटियों की ओर से सोचा जाए तो उनके लिए ये समस्या काफी बड़ी है क्योंकि विवाह , परिवार और नौकरी  के कारण उन्हें माता पिता को छोड़ कर  दूर जाना ही पड़ता है और धीरे धीरे उनकी व्यस्तता बढ़ती जाती है नतीजन वो छोटी बड़ी बातों के लिए आ नहीं पाते है ,वहीं मकान को भी पुराने होने के बाद बार बार मरम्मत की ज़रूरत होती है ।इसके साथ ही कोई भी बड़ा घर बाद के वर्षों में बुजुर्गो के लिए रख रखाव के साथ साथ सुरक्षा के लिहाज से भी परेशानी का कारण बन जाता है। ऐसे में हाल के वर्षो में अपार्टमेंट बनाने वाले बिल्डरों के द्वारा लोगों के सामने एक अच्छा  विकल्प रखा गया है भले ही कुछ लोगों को खुले और बड़े से घर में रहने के बाद फ्लैट में रहना पसंद नहीं आता है लेकिन जहां तक मैं सोचती हू व्यवहारिक दृष्टिकोण से इस मसले पर सोचा जा सकता है। जहां अपार्टमेंट्स आपको आपकी जरूरत के हिसाब से कई सुविधाएं देता है  वहीं सुरक्षा के लिहाज से भी विचारणीय है। 
तो बदली हुई परिस्थितियों के साथ बदलना कई बार अच्छा फैसला होता है वैसे भी हमारे मिथिला में कहावत है "नब घर उठे पुरान घर खसे" ।
 
   

Monday 15 May 2023

कल का दिन माताओं के नाम था । मां तो मां होती है फिर चाहे वो इंसान के रूप में हो या संसार के किसी भी प्राणी के रूप में।
पिछले कुछ दिनों से मेरी बड़ी बेटी जो बैंगलोर में नौकरी के सिलसिले में पिछले डेढ़ सालों से रह रही है बेहद खुश और व्यस्त रहती थी ।वैसे आज कल के बच्चे अपने काम में इतने तल्लीन रहते हैं कि उन्हें  मशीनी जिंदगी जीने की आदत हो जाती है। खैर,बेटी की खुशी का राज यह था कि उसके फ्लैट के बालकनी के हैंगिंग  इनडोर प्लांट में दो  बुलबुलों ने घोंसला बनाना शुरू किया था।धीरे धीरे जैसे जैसे उन पखेरुओ का गृह निर्माण का काम आगे बढ़ता गया  बेटी के साथ साथ हमारी उत्सुकता बढ़ती गई । सफ्ताहांत में दिन में कई कई बार हम वीडियो कॉल के जरिए पहले घोंसले और बाद में उन दो अंडो को देखते। स्कूली कक्षा में पढ़ी कहानी "रक्षा में हत्या" के कारण मैंउसे यथासंभव घोंसले से दूर रहने की सलाह देती । धीरे धीरे उसका घर नन्हें खेचरों की चहचहाहट से भर गया।उसकी दिनचर्या में उनकी उपस्थिति अनिवार्य हो गई और कभी नजदीक जाने पर उनकी छोटी सी मां उसे अपनी चहचहाट से दूर करने का प्रयास भी करती ।अक्सर मेरे  दोनों बच्चे मुझसे पूछते कि एक बार घोंसले से निकलने के बाद क्या फिर वो अपनी मां को पहचान पाएंगे ? और इसी तरह की कई बातें हमारे टेलीफोनिक वार्ता का हिस्सा बन चुकी थी।
इस कहानी का अंत शायद अत्यंत सुखद होता अगर परसों बहुत सुबह बेटी का जोर जोर से रोता हुआ फोन मेरे पास नहीं आता । कुछ देर रोने के बाद जब उसने बताया कि कौवे ने घोंसले में मौजूद दोनो बच्चों को मार दिया और उनकी मां उन्हें बचा नही पाई। अपनी सुबह की नींद को कोसती बेटी लगातार रोती जा रही थी ।
    शायद यही प्रकृति का नियम है जिसके अनुसार हर क्षेत्र में कमजोर ,ताकतवर के द्वारा शोषित होता है ,मेरे पास इन शब्दों में उसे दिलासा देने के अलावा दूसरा कोई वि
वैसे अगर सच कहूं तो मुझे बेटी को समझाने के लिए कहे गए अपने  ही शब्द बेहद खोखले लगते हैं  क्योंकि कमजोरों और निरीहों को दबाने की प्रवृत्ति क्या प्रकृति तक ही सीमित है ?
 

Thursday 4 May 2023

इन दिनों मेरे पति के इंटीरियर वर्क्स के काम के सिलसिले में एक नए बढ़ई को देख रही हूं। अपने काम में निपुण उस बढ़ई की भाषा  सहज में समझ नहीं आती है जिसके कारण उसके साथी बढ़ई उसके बोलने की नकल करके उसका मजाक उड़ाया करते हैं। चूंकि अभी कुछ दिन पहले ही उसने आना शुरू किया है तो उसके और उसके परिवार से मैं अपरिचित हूं। 
जहां दिनभर वो अपना काम पूरी लगन से करता शाम के चार बजे से ही अपने औजार समेटने लगता जबकि दूसरे, सात से पहले जाने का नाम नहीं लेते ।इस विषय पर कितनी ही बार बोलने पर उसपर कोई असर नहीं होता।  कल फिर जब वो साढ़े चार के लगभग घर जाने के लिए बिल्कुल तैयार हो था तो मैंने उससे पूछा कि "आप कहीं दूसरी जगह भी काम करते हैं क्या ? 
नहीं ! सिर हिला कहा ।
फिर ?
शादी के पंद्रह साल के बाद बेटी हुई है, अभी अभी उसने बोलना शुरू किया है और शाम होते ही सो जाती है। शरमाते हुए उसने बताया।
अच्छा ! मैंने रुचि दिखाते हुए कहा।
क्या बोलती है ?
पापा ! और बिल्कुल साफ बोलती है मेरी तरह नहीं !
 छोटी सी बेटी की साफ बोली ने उसके जिंदगी भर के हीन भाव पर एक मलहम का काम किया । 
जेहन में याद आ गई फिल्म कोशिश का  वह दृश्य जब संजीव कुमार और जया भादुड़ी एक मूक वधिर माता पिता की भूमिका में थे और बच्चे के न सुनने से परेशान हो गए थे। 
फिर बेटी के  पिता का "पापा जल्दी आ जाना" की डोर पर खींचा जाना मेरे चेहरे पर मुकुराहट लाने के लिए काफ़ी था।